सूरए यूनुस – चौथा रूकू

सूरए यूनुस – चौथा रूकू

तुम फ़रमाओ तुम्हें कौन रोज़ी देता है आसमान और ज़मीन से(1)
या कौन मालिक है कान और आँखों का (2)
और कौन निकालता है ज़िन्दा को मुर्दे से और निकालता है मुर्दा को ज़िन्दा से(3)
और कौन तमाम कामों की तदबीर (युक्ति) करता है तो अब कहेंगे कि अल्लाह (4)
तो तुम फ़रमाओ तो क्यों नहीं डरते(5){31}
तो यह अल्लाह है तुम्हारा सच्चा रब (6)
फिर हक़ के बाद क्या है मगर गुमराही (7)
फिर कहाँ फिरे जाते हो {32} यूंही साबित हो चुकी है तेरे रब की बात फ़ासिक़ों (दुराचारियों) (8)
पर तो वो ईमान नहीं लाएंगे{33} तुम फ़रमाओ तुम्हारे शरीकों में (9)
कोई ऐसा है कि पहले बनाए फिर फ़ना (विनाश) के बाद दोबारा बनाए (10)
तुम फ़रमाओ अल्लाह पहले बनाता है फिर फ़ना के बाद दोबारा बनाएगा तो कहाँ औंधे जाते हो(11{34}
तुम फ़रमाओ तुम्हारे शरीकों में कोई ऐसा है कि हक़ की राह दिखाए (12)
तुम फ़रमाओ कि अल्लाह हक़ की राह दिखाता है, तो क्या जो हक़ की राह दिखाए उसके हुक्म पर चलना चाहिये या उसके जो ख़ुद ही राह न पाए जब तक राह न दिखाया जाए (13)
तो तुम्हें क्या हुआ कैसा हुक्म लगाते हो {35} और(14)
उनमें अक्सर तो नहीं चलते मगर गुमान पर (15)
बेशक गुमान हक़ का कुछ काम नहीं देता, बेशक अल्लाह उनके कामों को जानता है {36} और क़ुरआन की यह शान नहीं कि कोई अपनी तरफ़ से बनाले बे अल्लाह के उतारे(16)
हाँ वह अगली किताबों की तस्दीक़ {पुष्टि} है (17)
और लौह में जो कुछ लिखा है सबकी तफ़सील है इसमें कुछ शक नहीं है जगत के रब की तरफ़ से है{37} क्या ये कहते हैं (18)
कि उन्होंने इसे बना लिया है, तुम फ़रमाओ (19)
तो इस जैसी कोई एक सूरत ले आओ और अल्लाह को छोड़कर जो मिल सकें सबको बुला लाओ(20)
अगर तुम सच्चे हो {38} बल्कि उसे झुटलाया जिसके इल्म पर क़ाबू न पाया(21)
और अभी उन्होंने इसका अंजाम नहीं देखा, (22)
ऐसे ही उनसे अगलों ने झुटलाया था (23)
तो देखो ज़ालिमों का कैसा अंजाम हुआ(24){39}
और उनमें (25)
कोई इस (26)
पर ईमान लाता है और उनमें कोई इस पर ईमान नहीं लाता है, और तुम्हारा रब फ़सादियों को ख़ूब जानता है(27){40}

तफ़सीर
सूरए यूनुस – चौथा रूकू

(1) आसमान से मेंह बरसाकर और ज़मीन में हरियाली उगाकर.

(2) और ये हवास या इन्द्रियाँ तुम्हे किसने दिये है, किसने ये चमत्कार तुम्हें प्रदान किये हैं, कौन इन्हें मुद्दतों सुरक्षित रखता है.

(3) इन्सान को वीर्य से और वीर्य को इन्सान से, चिड़िया को अन्डे से और अन्डे को चिड़िया से. मूमिन को काफ़िर से और  काफ़िर को मूमिन से. आलिम को जाहिल से और जाहिल को आलिम से.

(4) और उसकी सम्पूर्ण क़ुदरत का ऐतिराफ़ करेंगे और इसके सिवा कुछ चारा न होगा.

(5) उसके अज़ाब से, और क्यों बुतों को पूजते और उनको मअबूद बनाते हो जबकि वो कुछ क़ुदरत नहीं रखते.

(6) जिसकी ऐसी भरपूर क़ुदरत है.

(7) यानी जब ऐसी खुली दलीलें और साफ़ प्रमाणों से साबित हो गया कि इबादत के लायक़ सिर्फ़ अल्लाह है, तो उसके अलावा सब बातिल और गुमराही, और जब तुमने उसकी क़ुदरत को पहचान लिया और उसकी क्षमता का ऐतिराफ़ कर लिया तो.

(8) जो कुफ़्र में पक्के हो गए. रब की बात से मुराद है अल्लाह की तरफ़ से जो लिख दिया गया. या अल्लाह तआला का इरशाद “लअम लअन्ना जहन्नमा.”… (मैं तुम सबसे जहन्नम भर दूंगा – सूरए अअराफ़, आयत 18)

(9) जिन्हें ऐ मुश्रिकों, तुम मअबूद ठहराते हो.

(10) इसका जवाब ज़ाहिर है कि कोई ऐसा नहीं क्यों कि मुश्रिक भी यह जानते हैं कि पैदा करने वाला अल्लाह ही है, लिहाज़ा ऐ मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम.

(11) और ऐसी रौशन दलीलें क़ायम होने के बाद सीधे रास्तें से मुंह फेरते हो.

(12) तर्क और दलीलें क़ायम करके, रसूल भेजकर, किताबें उतारकर,  समझ वालों को अक़्ल और नज़र अता फ़रमा कर. इसका खुला जवाब यह है कि कोई नहीं, तो ऐ हबीब.

(13) जैसे कि तुम्हारे बुत हैं किसी जगह जा नहीं सकते जब तक कि कोई उठा ले जाने वाला उन्हें उठाकर न ले जाए. और न किसी चीज़ की हक़ीक़त को समझें और न सच्चाई की राह को पहचानें, बग़ैर इसके कि अल्लाह तआला उन्हें ज़िन्दगी, अक़्ल और नज़र दे. तो जब उनकी मजबूरी का यह आलम है तो वो दूसरों को क्या राह बता सकेंगे. ऐसों को मअबूद बनाना, फ़रमाँबरदारी करना कितना ग़लत और बेहूदा है.

(14) मुश्रिक लोग.

(15) जिसकी उनके पास कोई दलील नहीं, न उसके ठीक होने का इरादा और यक़ीन. शक में पड़े हुए हैं और यह ख़याल करते हैं कि पहले लोग भी बुत पूजते थे, उन्होंने कुछ तो समझा होगा.

(16) मक्का के काफ़िरों ने यह वहम किया था कि क़ुरआन शरीफ़ सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ख़ुद बना लिया है. इस आयत में उनका यह वहम दूर फ़रमाया गया कि क़ुरआने करीम ऐसी किताब ही नहीं जिसकी निस्बत शक हो सके. इसकी मिसाल बनाने से सारी सृष्टि लाचार है तो यक़ीनन वह अल्लाह की उतारी हुई किताब है.

(17) तौरात और इंजील वग़ैरह की.

(18) काफ़िर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की निस्बत.

(19)अगर तुम्हारा यह ख़याल है तो तुम भी अरब हो, ज़बान और अदब, फ़साहत और बलाग़त के दावेदार हो, दुनिया में कोई इन्सान ऐसा नहीं हैं जिसके कलाम के मुक़ाबिल कलाम बनाने को तुम असम्भव समझते हो. अगर तुम्हारे ख़याल में यह इन्सान का कलाम है.

(20 )और उनसे मदद लो और सब मिलकर क़ुरआन जेसी एक सूरत तो बनाओ.

(21) यानी क़ुरआन शरीफ़ को समझने और जानने के बग़ैर उन्होंने इसे झुटलाया और यह निरी जिहालत है कि किसी चीज़ को जाने बग़ैर उसका इन्कार किया जाए. क़ुरआन शरीफ़ में ऐसे उलूम शामिल होना, जिसे इल्म और अक़्ल वाले न छू सकें, इस किताब की महानता और बुज़ुर्गी ज़ाहिर करता है. तो ऐसी उत्तम उलूम वाली किताब को मानना चाहिये था न कि इसका इन्कार करना.

(22) यानी उस अज़ाब को जिसकी क़ुरआन शरीफ़ में चुनौतियाँ हैं.

(23)दुश्मन से अपने रसूलों को, बग़ैर इसके कि उनके चमत्कार और निशानियाँ देखकर सोच समझ से काम लेते.

(24) और पहली उम्मतें अपने नबियों को झुटलाकर कैसे कैसे अज़ाबों में जकड़ी गई तो ऐ हबीब सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, आप को झुटलाने वालों को डरना चाहिये.

(25)मक्का वाले.

(26) नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम या क़ुरआन शरीफ़

(27) जो दुश्मनी से ईमान नहीं लाते और कुफ़्र पर अड़े रहते हैं.

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