छब्बीसवाँ पारा – हा मीम
46 सूरए अहक़ाफ़
بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ
حم
تَنزِيلُ الْكِتَابِ مِنَ اللَّهِ الْعَزِيزِ الْحَكِيمِ
مَا خَلَقْنَا السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ وَمَا بَيْنَهُمَا إِلَّا بِالْحَقِّ وَأَجَلٍ مُّسَمًّى ۚ وَالَّذِينَ كَفَرُوا عَمَّا أُنذِرُوا مُعْرِضُونَ
قُلْ أَرَأَيْتُم مَّا تَدْعُونَ مِن دُونِ اللَّهِ أَرُونِي مَاذَا خَلَقُوا مِنَ الْأَرْضِ أَمْ لَهُمْ شِرْكٌ فِي السَّمَاوَاتِ ۖ ائْتُونِي بِكِتَابٍ مِّن قَبْلِ هَٰذَا أَوْ أَثَارَةٍ مِّنْ عِلْمٍ إِن كُنتُمْ صَادِقِينَ
وَمَنْ أَضَلُّ مِمَّن يَدْعُو مِن دُونِ اللَّهِ مَن لَّا يَسْتَجِيبُ لَهُ إِلَىٰ يَوْمِ الْقِيَامَةِ وَهُمْ عَن دُعَائِهِمْ غَافِلُونَ
وَإِذَا حُشِرَ النَّاسُ كَانُوا لَهُمْ أَعْدَاءً وَكَانُوا بِعِبَادَتِهِمْ كَافِرِينَ
وَإِذَا تُتْلَىٰ عَلَيْهِمْ آيَاتُنَا بَيِّنَاتٍ قَالَ الَّذِينَ كَفَرُوا لِلْحَقِّ لَمَّا جَاءَهُمْ هَٰذَا سِحْرٌ مُّبِينٌ
أَمْ يَقُولُونَ افْتَرَاهُ ۖ قُلْ إِنِ افْتَرَيْتُهُ فَلَا تَمْلِكُونَ لِي مِنَ اللَّهِ شَيْئًا ۖ هُوَ أَعْلَمُ بِمَا تُفِيضُونَ فِيهِ ۖ كَفَىٰ بِهِ شَهِيدًا بَيْنِي وَبَيْنَكُمْ ۖ وَهُوَ الْغَفُورُ الرَّحِيمُ
قُلْ مَا كُنتُ بِدْعًا مِّنَ الرُّسُلِ وَمَا أَدْرِي مَا يُفْعَلُ بِي وَلَا بِكُمْ ۖ إِنْ أَتَّبِعُ إِلَّا مَا يُوحَىٰ إِلَيَّ وَمَا أَنَا إِلَّا نَذِيرٌ مُّبِينٌ
قُلْ أَرَأَيْتُمْ إِن كَانَ مِنْ عِندِ اللَّهِ وَكَفَرْتُم بِهِ وَشَهِدَ شَاهِدٌ مِّن بَنِي إِسْرَائِيلَ عَلَىٰ مِثْلِهِ فَآمَنَ وَاسْتَكْبَرْتُمْ ۖ إِنَّ اللَّهَ لَا يَهْدِي الْقَوْمَ الظَّالِمِينَ
सूरए अहक़ाफ़ मक्का में उतरी, इसमें 35 आयतें, चार रूकू हैं.
-पहला रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए अहक़ाफ़ मक्का में उतरी मगर कुछ के नज़्दीक इसकी कुछ आयतें मदनी हैं जैसे कि आयत ” क़ुल अरएतुम” और “फ़स्बिर कमा सबरा” और तीन आयतें “ववस्सैनल इन्साना बिवालिदैहे”. इस सूरत में चार रूकू, पैंतीस आयतें, छ सौ चवालीस कलिमे और दो हज़ार पाँच सौ पचानवे अक्षर हैं.
हा-मीम {1} यह किताब (2)
(2) यानी क़ुरआन शरीफ़
उतारना है अल्लाह इज़्ज़त व हिकमत (बोध) वाले की तरफ़ से {2} हमने न बनाए आसमान और ज़मीन और जो कुछ इन के बीच है मगर हक़ के साथ(3)
(3) कि हमारी क़ुदरत और एक होने के प्रमाणित करें.
और एक मुक़र्रर (निश्चित) मीआद पर (4)
(4) वह निश्चित अवधि क़यामत का दिन है जिस के आ जाने पर आसमान और ज़मीन नष्ट हो जाएंगे.
और काफ़िर उस चीज़ से कि डराए गए (5)
(5) इस चीज़ से मुराद या अज़ाब है या क़यामत के दिन की घबराहट या क़ुरआने पाक जो मरने के बाद उठाए जाने और हिसाब का डर दिलाता है.
मुंह फेरे हैं(6){3}
(6) कि उस पर ईमान नहीं लाते.
तुम फ़रमाओ भला बताओ तो वो जो तुम अल्लाह के सिवा पूजते हो(7)
(7) यानी बुत जिन्हे मअबूद ठहराते हो.
मुझे दिखाओ उन्होंने ज़मीन का कौन सा ज़र्रा (कण) बनाया या आसमान में उनका कोई हिस्सा है, मेरे पास लाओ इससे पहली कोई किताब (8)
(8) जो अल्लाह तआला ने क़ुरआन से पहले उतारी हो. मुराद यह है कि वह किताब यानी क़ुरआने मजीद तौहीद की सच्चाई और शिर्क के बातिल होने का बयान करती है और जो किताब भी इससे पहले अल्लाह तआला की तरफ़ से आई उसमें यही बयान है. तुम अल्लाह तआला की किताबों में से कोई एक किताब तो ऐसी ले आओ जिसमें तुम्हारे दीन (बुत-परस्ती) की गवाही हो.
या कुछ बचा खुचा इल्म(9)
(9) पहलों का.
अगर तुम सच्चे हो(10){4}
(10) अपने इस दावे में कि ख़ुदा का कोई शरीक है जिसकी इबादत का उसने तुम्हें हुक्म दिया है.
औऱ उससे बढ़कर कौन गुमराह जो अल्लाह के सिवा ऐसो को पूजे(11)
(11) यानी बुतों को.
जो क़यामत तक उसकी न सुनें और उन्हें उनकी पूजा की ख़बर तक नहीं(12){5}
(12) क्योंकि वो पत्थर और बेजान है.
और जब लोगों का हश्र होगा वो उनके दुश्मन होंगे(13)
(13) यानी बुत, अपने पुजारियों के.
और उनसे इन्कारी हो जाएंगे(14){6}
(14) और कहेंगे कि हमने उन्हें अपनी इबादत की दावत नहीं दी. अस्ल में ये अपनी ख़्वाहिशों के पुजारी थे.
और जब उनपर(15)
(15) यानी मक्के वालों पर.
पढ़ी जाएं हमारी रौशन आयतें तो काफ़िर अपने पास आए हुए हक़ को(16)
(16)यानी क़ुरआन शरीफ़ को बग़ैर ग़ौरो फ़िक्र किये और अच्छी तरह सुने.
कहते हैं यह खुला जादू है(17){7}
(17) कि इसके जादू होने में शुबह नहीं और इससे भी बुरी बात कहते हैं जिसका आगे बयान है.
क्या कहते हैं उन्होंने उसे जी से बनाया (18)
(18) यानी सैयदे आलम मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने.
तुम फ़रमाओ अगर मैं ने उसे जी से बना लिया होगा तो तुम अल्लाह के सामने मेरा कुछ इख़्तियार नहीं रखते (19)
(19) यानी अगर फ़र्ज़ करो मैं दिल से बनाता और उसको अल्लाह तआला का कलाम बताता तो वह अल्लाह तआला पर लांछन होता और अल्लाह तआला ऐसे लांछन लगाने वाले को जल्द मुसीबत और अज़ाब में गिरफ़्तार करता है. तुम्हें तो यह क़ुदरत नहीं कि तुम उसके बज़ाब से बचा सको या उसके अज़ाब को दूर कर सको तो किस तरह हो सकता है कि मैं तुम्हारी वजह से अल्लाह तआला पर झूट बोलता.
वह ख़ूब जानता है जिन बातों में तुम मश्ग़ूल हो(20)
(20)और जो कुछ क़ुरआने पाक की निस्बत कहते हो.
और वह काफ़ी है मेरे और तुम्हारे बीच गवाह और वह बख़्शने वाला मेहरबान है(21){8}
(21) यानी अगर तूम कुफ़्र से तौबह करके ईमान लाओ तो अल्लाह तआला तुम्हारी मग़फ़िरत फ़रमाएगा. और तुम पर रहमत करेगा.
तुम फ़रमाओ मैं कोई अनोखा रसूल नहीं(22)
(22) मुझसे पहले भी रसूल आ चुके हैं तो तुम क्यों नबुव्वत का इन्कार करते हो.
और मैं नहीं जानता मेरे साथ क्या किया जाएगा और तुम्हारे साथ क्या(23)
(23) इसके मानी में मुफ़स्सिरों के कुछ क़ौल हैं एक तो यह कि क़यामत में जो मेरे और तुम्हारे साथ किया जाएगा वह मुझे मालूम नहीं. यह मानी हों तो यह आयत मन्सूख़ है. रिवायत है कि जब यह आयत नाज़िल हुई तो मुश्रिक ख़ुश हुए और कहने लगे लात और उज़्ज़ा की क़सम, अल्लाह के नज़्दीक हमारा और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) का एक सा हाल है. उन्हें हम पर कुछ फ़ज़ीलत नहीं. अगर यह क़ुरआन उनका अपना बनाया हुआ न होता तो उनका भेजने वाला उन्हें ज़रूर ख़बर देता कि उनके साथ क्या करेगा. तो अल्लाह तआला ने आयत “लियग़फ़िरा तकल्लाहो मा तक़द्दमा मिन ज़ंबिका वमा तअख़्ख़रा” यानी ताकि अल्लाह तुम्हारे कारण से गुनाह बख़्शे तुम्हारे अगलों के और तुम्हारे पिछलों के और अपनी नेअमतें तुमपर पूरी कर दे. (सूरए फ़त्ह, आयत 2) नाज़िल फ़रमाई. सहाबा ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, हुज़ूर को मुबारक हो आपको मालूम हो गया कि आप के साथ क्या किया जाएगा. यह इन्तिज़ार है कि हमारे साथ क्या करेगा. इसपर अल्लाह ने यह आयत उतारी “लियुदख़िलल मूमिनीना वल मूमिनाते जन्नातिन तजरी मिन तहतिहल अन्हारो” यानि ताकि ईमान वाले मर्दो और ईमान वाली औरतों को बाग़ों में ले जाए जिनके नीचे नहरें बहें हमेशा उनमें रहें. (सूरए फ़त्ह, आयत 5) और यह आयत उतरी “बश्शिरिल मूमिनीना बिअन्ना लहुम मिनल्लाहे फ़दलन कबीरा” यानी और ईमान वालो को ख़ुशख़बरी दो कि उनके लिये अल्लाह का बड़ा फ़ज़्ल है. (सूरए अहज़ाब, आयत 47) तो अल्लाह तआला ने बयान फ़रमाया कि हुज़ूर के साथ क्या करेगा और मूमिनीन के साथ क्या. दूसरा क़ौल आयत की तफ़सीर में यह है कि आख़िर का हाल तो हुज़ूर को अपना भी मालूम है और मूमिनीन का भी और झूठलाने वालों का भी. मानी ये हैं कि दुनिया में क्या किया जाएगा, यह नहीं मालूम. अगर ये मानी लिये जाएं तो भी यह आयत मन्सूख़ है, अल्लाह तआला ने हुज़ूर को यह भी बता दिया “लियुज़हिरहू अलद दीने कुल्लिही” कि उसे सब दीनों पर ग़ालिब करे. (सूरए तौबह, आयत 33) और “माकानल्लाहो लियुअज्ज़िबहुम व अन्ता फ़ीहिम” यानी जबतक ऐ मेहबूब, तुम उनमें तशरीफ़ फ़रमा हो और अल्लाह उन्हें अज़ाब करने वाला नहीं. (सूरए अनफ़ाल, आयत 33) बहरहाल अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को हुज़ूर के साथ और हुज़ूर की उम्मत के साथ पेश आने वाले उमूर पर मुत्तला फ़रमा दिया चाहे वो दुनिया के हों या आख़िरत के और अगर “दरायत” अक़्ल से जानने के अर्थ में लिया जाए तो मज़मून और भी ज़्यादा साफ़ है और आयत का इसके बाद वाला वाक्य इसकी पुष्टि करता है. अल्लामा नीशापुरी ने इस आयत के अन्तर्गत फ़रमाया कि इसमें नफ़ी अपनी ज़ात से जानने की है, वही के ज़रिये जानने का इन्कार नहीं है.
मैं तो उसी का ताबेअ हूँ जो मुझे वही होती है(24)
(24) यानी मैं जो कुछ जानता हूँ अल्लाह तआला की तालीम से जानता हूँ.
और मैं नहीं मगर साफ़ डर सुनाने वाला {9} तुम फ़रमाओ भला देखो तो अगर वह क़ुरआन अल्लाह के पास से हो और तुम ने उसका इन्कार किया और बनी इस्राईल का एक गवाह(25)
(25) वह हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम हैं जो नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाए और आपकी नबुव्वत की सच्चाई की गवाही दी.
उस पर गवाही दे चुका(26)
(26) कि वह क़ुरआन अल्लाह तआला की तरफ़ से है.
तो वह ईमान लाया और तुमने घमण्ड किया(27)
(27) और ईमान से मेहरूम रहे तो इसका नतीजा क्या होता है.
बेशक अल्लाह राह नहीं देता ज़ालिमों को{10}
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