सूरए माइदा – पहला रूकू
सूरए माइदा मदीना में उतरी और इसमें एक सौ आयतें और सोलह रूकू हैं .
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
ऐ ईमान वालो अपने क़ौल (वचन)पूरे करो (2)
तुम्हारे लिये हलाल हुए बे ज़बान मवेशी मगर वो जो आगे सुनाया जाएगा तुमको (3)
लेकिन शिकार हलाल न समझो जब तुम एहराम में हो (4)
बेशक अल्लाह हुक्म फ़रमाता है जो चाहे (1)
ऐ ईमान वालो हलाल न ठहरा लो अल्लाह के निशान (5)
और न अदब वाले महीने (6)
और न हरम को भेजी हुई क़ुर्बानियां और न (7)
जिनके गले में अलामतें (चिन्ह) लटकी हुई (8)
और न उनका माल और आबरू जो इज़्ज़त वाले घर का इरादा करके आएं (9)
अपने रब का फ़ज़्ल और उसकी ख़ुशी चाहते और जब एहराम से निकलो तो शिकार कर सकते हो (10)
और तुम्हें किसी क़ौम की दुश्मनी, कि उन्होंने तुम को मस्जिदे हराम से रोका था, ज़ियादती करने पर न उभारे (11)
और नेकी और परहेज़गारी पर एक दूसरे की मदद करो और गुनाह और ज़ियादती पर आपस में मदद न दो (12)
और अल्लाह से डरते रहो, बेशक अल्लाह का अज़ाब सख़्त है (2) तुमपर हराम है (13)
मुर्दार और ख़ून और सुअर का गोश्त और वह जिसके ज़िब्ह में ग़ैर ख़ुदा का नाम पुकारा गया और वो जो गला घोंटनें से मरे और बेधार की चीज़ से मारा हुआ और जो गिर कर मरा और जिसे किसी जानवर ने सींग मारा और जिसे कोई दरिन्दा खा गया, मगर जिन्हें तुम ज़िब्ह कर लो और जो किसी थान पर ज़िब्ह किया गया और पाँसे डाल कर बाँटा करना यह गुनाह का काम है आज तुम्हारे दीन की तरफ़ काफ़िरों की आस टूट गई (14)
तो उनसे न डरो और मुझसे डरो आज मैंने तुम्हारे लिये तुम्हारा दीन कामिल (पूर्ण) कर दिया (15)
और तुमपर अपनी नेमत पूरी करी (16)
और तुम्हारे लिये इस्लाम को दीन पसन्द किया (17)
तो जो भूख प्यास की शिद्दत (तेज़ी) में नाचार हो यूं कि गुनाह की तरफ़ न झुकें (18)
तो बेशक अल्लाह बख़्श्ने वाला मेहरबान है (3) ऐ मेहबूब, तुम से पूछते हैं कि उनके लिये क्या हलाल हुआ तुम फ़रमादो कि हलाल की गईं तुम्हारे लिये पाक चीज़ें(19)
और जो शिकारी जानवर तुम ने सधा लिये (20)
उन्हें शिकार पर दौङाते जो इल्म तुम्हें ख़ुदा ने दिया उसमें से उन्हें सिखाते तो खाओ उस में से जो वो मारकर तुम्हारे लिये रहने दें (21)8817988717
और उसपर अल्लाह का नाम लो (22)
और अल्लाह से डरते रहो बेशक अल्लाह को हिसाब करते देर नहीं लगती (4)
आज तुम्हारे लिये पाक चीज़ें हलाल हुईं और किताबियों का खाना (23)
तुम्हारे लिये हलाल है और तुम्हारा खाना उनके लिये हलाल है और पारसा औरतें मुसलमान (24)
और पारसा औरतें उनमें से जिनको तुम से पहले किताब मिली जब तुम उन्हें उनके मेहर दो क़ैद में लाते हुए (25)
न मस्ती निकालते हुए और न आशना बनाते (26)
और जो मुसलमान से काफ़िर हो उसका किया धरा सब अकारत गया और वह आख़िरत में घाटे वाला है (27)(5)
तफ़सीर :
सूरए माइदा – पहला रूकू
(1) सुरए माइदा मदीनए तैय्यिबह में उतरी, सिवाय आयत “अल यौमा अकमल्तो लकुम दीनकुम” के. यह आयत हज्जतुल वदाअ में अरफ़े के दिन उतरी और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ख़ुत्बे में इसको पढ़ा. इस सूरत में सोलह रूकू, एक सौ बीस आयतें और बारह हज़ार चारसौ चौसठ अक्षर हैं.
(2) “क़ौल” के मानी में मुफ़स्सिरों के कुछ क़ौल हैं. इब्ने जरीर ने कहा कि किताब वालों को ख़िताब फ़रमाया गया है. मानी यह हैं कि ऐ किताब वालों में के ईमान वालो, हमने पिछली किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने और आपकी फ़रमाँबरदारी करने के सम्बन्ध में जो एहद लिये हैं वो पूरे करो. कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि ख़िताब ईमान वालों को है, उन्हें क़ौल के पूरे करने का हुक्म दिया गया है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया, कि इस क़ौल से मुराद ईमान और वो एहद हैं जो हलाल और हराम के बारे में क़ुरआने पाक मे लिये गये हैं. कुछ मुफ़स्सिरों का कहना है कि इसमें ईमान वालों के आपसी समझौते मुराद हैं.
(3) यानि जिनकी हुरमत शरीअत में आई है. उनके सिवा तमाम चौपाये तुम्हारे लिये हलाल किये गये.
(4) कि ख़ुश्की का शिकार एहराम की हालत में हराम है, और दरियाई शिकार जायज़ है, जैसे कि इस सूरत के आख़री में आयेगा.
(5) उसके दीन की बातें, मानी ये हैं कि जो चीज़े अल्लाह ने फ़र्ज़ कीं और जो मना फ़रमाई, सबकी हुरमत का लिहाज़ रखो.
(6) हज के महीने, जिनमें क़िताल यानी लड़ाई वग़ैरह जाहिलियत के दौर में भी माना था, और इस्लाम में भी यह हुक्म बाकि रखा.
(7) वो क़ुरबानियाँ
(8) अरब के लोग क़ुरबानियों के गले में हरमशरीफ़ के दरख़्तों के छल वगैरह से गुलूबन्द बुनकर डालते थे ताकि देखने वाले जान लें कि ये हरम को भेजी हुई क़ुरबानियाँ हैं और उनसे न उलझें.
(9) हज और उमरा करने के लिये, शरीह बिन हिन्द एक मशहूर शक़ी (दुश्मन) था. वह मदीनए तैय्यिबह मे आया और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर कहने लगा कि आप ख़ल्क़े ख़ुदा को क्या दावत देते हैं. फ़रमाया, अपने रब के साथ ईमान लाने और अपनी रिसालत की तस्दीक़ करने और नमाज़ क़ायम रखने और ज़कात देने की. कहने लगा, बहुत अच्छी दावत है. मैं अपने सरदारों से राय ले लूं तो मैं भी इस्लाम ले आऊंगा और उन्हें भी लाऊंगा. यह कहकर चला गया. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसके आने से पहले ही अपने सहाबा को ख़बर दे दी थी कि रबीआ क़बीले का एक शख़्स आने वाला है जो शैतानी ज़बान बोलेगा. उसके चले जाने के बाद हुज़ूर ने फ़रमाया कि काफ़िर का चेहरा लेकर आया था और ग़द्दार और बदएहद की तरह पीठ फेरकर चला गया. यह इस्लाम लाने वाला नहीं. चुनांचे उसने बहाना किया और मदीना शरीफ़ से निकलते हुए वहाँ के मवेशी और माल ले गया. अगले साल यमामा के हाजियों के साथ तिजारत का बहुत सा सामान और हज की क़लावा पोश क़ुरबानियाँ लेकर हज के इरादे से निकला. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अपने सहाबा के साथ तशरीफ़ ले जा रहे थे. राह में सहाबा ने शरीह को देखा और चाहा कि मवेशी उससे वापस ले लें. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मना फ़रमाया. इस पर यह आयत उतरी और हुक्म दिया गया कि जिसकी ऐसी हालत हो उससे तआरूज़ नहीं करना चाहिये.
(10) यह बयाने अबाहत है कि एहराम के बाद शिकार मुबाह हो जाता है.
(11) यानी मक्का वालों ने रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को और आपके सहाबा को हुदैबिया के दिन उमरे से रोका. उनके इस दुश्मनी वाले काम का तुम बदला न लो.
(12) कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया, जिसका हुक्म दिया गया उसका बजा लाना बिर, और जिससे मना फ़रमाया गया उसको छोड़ देना तक़वा, और जिसका हुक्म दिया गया उसको न करना “इस्म” (गुनाह), और जिससे मना किया गया उसको करना उदवान (ज़ियादती) कहलाता है.
(13) आयत “इल्ला मा युतला अलैकुम” में जो ज़िक्र फ़रमाया गया था. यहाँ उसका बयान है और ग्यारह चीज़ों की हुरमत का ज़िक्र किया गया. एक मुर्दार यानी जिस जानवर के लिये शरीअत में ज़िबह का हुक्म हो और वह बेज़िबहं मर जाए, दूसरे बहने वाला ख़ून तीसरे सुअर का गोश्त और उसके तमाम अंग, चौथे वह जानवर जिसके ज़िबह के वक़्त ग़ैर ख़ुदा का नाम लिया गया हो जैसा कि जाहिलियत के ज़माने में लोग बुतों के नाम पर ज़िबह करते थे और जिस जानवर को ज़िबह तो सिर्फ़ अल्लाह के नाम पर किया गया हो मगर दूसरे औक़ात में वह ग़ैर ख़ुदा की तरफ़ मन्सूब रहा वह हराम नहीं जैसे कि अब्दुल्लाह की गाय, अक़ीक़े का बकरा, वलीमे का जानवर या वह जानवर जिनसे वलियों की आत्माओं को सवाब पहुंचाना मन्ज़ूर हो, उनको ग़ैर वक़्ते ज़िबह में वलियों के नामों के साथ नामज़द किया जाए मगर ज़िबह उनका फ़क़त अल्लाह के नाम पर हो, उस वक़्त किसी दूसरे का नाम न लिया जाए वो हलाल और पाक हैं. इस आयत में सिर्फ़ उसी को हराम फ़रमाया गया है जिसको ज़िबह करते वक़्त ग़ैरख़ुदा का नाम लिया गया हो. वहाबी जो ज़िबह की क़ैद नहीं लगाते वो आयत के मानी में ग़लती करते हैं और उनका क़ौल तमाम जानी मानी तफ़सीरों के ख़िलाफ़ है. और ख़ुद आयत उनके मानी को बनने नहीं देती क्योंकि “मा उहिल्ला बिही” को अगर ज़िबहके वक़्त के साथ सीमित न करे तो “इल्ला मा ज़क्कैतुम” की छूट उसको लाहिक़ होगी और वो जानवर जो ग़ैर वक़्त ज़िबह ग़ैर ख़ुदा के नाम से मौसुम रहा हो वह “इल्ला मा ज़क्कैतुम” से हलाल होगा. ग़रज़ वहाबी को आयत से सनद लाने की कोई सबील नहीं. पाँचवां गला घोंट कर मारा हुआ जानवर, छटे वह जानवर जो लाठी, पत्थर, ढेले, गोली, छर्रे, यानि बिना धारदार चीज़ से मारा गया हो, सातवें जो गिरकर मरा हो चाहे पहाड़ से या कुएं वगैरह में, आठवें वह जानवर जिसे दूसरे जानवर ने सिंग मारा हो और वह उसके सदमें से मर गया हो, नवें वह जिसे किसी दरिन्दें ने थोड़ा सा खाया हो और वह उसके जख़्म की तक़लीफ़ से मर गया हो लेकिन अगर ये जानवर मर गये हों और ऐसी घटनाओ के बाद जिन्दा बच रहे हो फिर तुम उन्हें बाका़यदा ज़िब्ह कर लो तो वो हलाल हैं, दसवें वह जो किसी थान पर पूजा की तरह ज़िबह किया गया हो जैसे कि ज़ाहिलियत वालों ने काबे के चार तरफ़ 360 पत्थर नसब किये थे जिनकी वो इबादत करते थे और उनके लिये ज़िबह करते थे, ग्यारहवें, हिस्सा और हुक्म जानने के लिये पाँसा डालना. जाहिलियत के दौर के लोगों को जब सफ़र या जंग या तिजारत या निकाह वग़ैरह के काम दरपेश होते तो वो तीरों से पाँसे डालते और जो निकलता उसके मुताबिक़ अमल करते और उसको ख़ुदा का हुक़्म मानते. इन सब से मना फ़रमाया गया.
(14) यह आयत अरफ़े के दिन जो जुमे का था, अस्र बाद नाज़िल हुई. मानी ये है कि काफ़िर तुम्हारे दीन पर ग़ालिब आने से मायूस हो गये.
(15) और उमूरे तकलीफ़ा में हराम और हलाल के जो एहकाम हैं वो और क़यास के क़ानून सब मुकम्मल कर दिये. इसीलिये इस आयत के उतरने के बाद हलाल व हराम के बयान की कोई आयत नाज़िल न हुई. अगरचे “वत्तक़ू यौमन तुरजऊना फ़ीहे इलल्लाह” नाज़िल हुई मगर वह आयत नसीहत और उपदेश की है. कुछ मुफ़स्सिरों का क़ौल है कि दीन कामिल करने के मानी इस्लाम को ग़ालिब करना है, जिसका यह असर है कि हज्जतुल वदाअ में जब यह आयत उतरी, कोई मुश्रिक मुसलमानों के साथ हज में शरीक न हो सका.एक क़ौल यह भी है कि दीन का पूरा होना यह है कि वह पिछली शरीअतों की तरह स्थगित न होगा और क़यामत तक बाक़ी रहेगा. बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस में है कि हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो के पास एक यहूदी आया और उसने कहा कि ऐ अमीरूल मूमिनीन, आप की किताब में एक आयत है अगर वह हम यहूदियों पर उतरी होती तो हम उसके उतरने वाले दिन ईद मनाते. फ़रमाया, कौनसी आयत, उसने यही आयत “अलयौमा अकमल्तु लकुम” पढ़ी. आपने फ़रमाया, मैं उस दिन को जानता हूँ जिस दिन यह उतरी थी और इसके उतरने की जगह को भी पहचानता हूँ वह जगह अरफ़ात की थी और दिन जुमे का, आप की मुराद इससे यह थी कि हमारे लिये वह दिन ईद है. तिरमिज़ी शरीफ़ में हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है, आप से भी एक यहूदी ने ऐसा ही किया. आपने फ़रमाया कि जिस दिन यह आयत उतरी उस दिन दो ईदें थी. जुमा और अरफ़ा, इससे मालूम हुआ कि किसी दीनी कामयाबी के दिन को ख़ुशी का दिन मनाना जायज़ और सहाबा से साबित है, वरना हज़रत उमर व इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा साफ़ फ़रमा देते कि जिस दिन कोई ख़ुशी का वाक़िया हो उसकी यादगार क़ायम करना और उस रोज़ को ईद मानना हम बिदअत जानते हैं. इससे साबित हुआ कि ईद मीलाद मनाना जायज़ है क्योंकि वह अल्लाह की सबसे बड़ी नेमत की यादगार और शुक्र गुज़ारी है.
(16) मक्कए मुकर्रमा फ़त्ह फ़रमाकर.
(17) कि उसके सिवा कोई और दीन क़ुबूल नहीं.
(18) मानी ये है कि ऊपर हराम चीज़ों का बयान कर दिया गया है, लेकिन जब खाने पीने की कोई हलाल चीज़ मयस्सर ही न आए और भूख प्यास की सख़्ती से जान पर बन जाए, उस वक़्त जान बचाने के लिये ज़रूरी भर का खाने पीने की इजाज़त है, इस तरह कि गुनाह की तरफ़ मायल न हो यानी ज़रूरत से ज़्यादा न खाए और ज़रूरत उसी क़दर खाने से रफ़ा हो जाती है जिससे जान का ख़तरा जाता रहे.
(19) जिनकी हुरमत क़ुरआन व हदीस, इजमाअ और क़यास से साबित नहीं है. एक क़ौल यह भी है कि तैय्यिवात वो चीज़े है जिनको अरब और पाक तबीअत लोग पसन्द करते हैं और ख़बीस वो चीज़ें है जिनसे पाक तबीअतें नफ़रत करती हैं. इससे मालूम हुआ कि किसी चीज़ की हुरमत पर दलील न होना भी उसके हलाल होने के लिये काफ़ी है, यह आयत अदी इब्ने हातिम और ज़ैद बिन महलहल के बारे में उतरी जिनका नाम रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने ज़ैदुल ख़ैर रखा था. इन दोनो साहिबों ने अर्ज़ की, या रसूलल्लाह, हम लोग कुत्ते और बाज़ के ज़रिये से शिकार करते हैं, तो क्या हमारे लिये हलाल है. तो इस पर यह आयत उतरी.
(20) चाहे वह दरिन्दों में से हो, कुत्तें और चीते जैसे, या शिकारी परिन्दों में से, शिकारे, बाज़, शाहीन वग़ैरह जैसे जब उन्हें इस तरह सधा लिया जाए कि जो शिकार करें उसमें से न खाएं और जब शिकारी उनको छोड़े तब शिकार पर जाएं, जब बुलाए, वापस आजाएं, ऐसे शिकारी जानवरों को मुअल्लम कहते हैं.
(21) और ख़ुद उसमें से न खाएं.
(22) आयत से जो निष्कर्ष निकलता है उसका खुलासा यह है कि जिस शख़्स ने कुत्ता या शिकरा वग़ैरह कोई शिकारी जानवर शिकार पर छोड़ा तो उसका शिकार कुछ शर्तों से हलाल है (1) शिकारी जानवर मुसलमान का हो और सिखाया हुआ (2) उसने शिकार को ज़ख़्म लगाकर मारा हो. (3) शिकारी जानवर बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर कहकर छोड़ा गया हो, (4) अगर शिकारी के पास शिकार ज़िन्दा पहुंचा हो तो उसको बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर कहकर ज़िबह करे. अगर इन शर्तों में से कोई शर्त न पाई गई, तो हलाल न होगा. मसलन , अगर शिकारी जानवर मुअल्लम (सिखाया हुआ) न हो या उसने ज़ख़्म न किया हो या शिकार पर छोड़ते वक़्त बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर न पढ़ा हो या शिकार ज़िन्दा पहुंचा हो और उसको ज़िबह न किया हो या सधाए हुए शिकारी जानवर के साथ बिना सिखाया हुआ जानवर शिकार में शरीक हो गया हो या ऐसा शिकारी जानवर शरीक हो गया हो जिसको छोड़ते वक़्त बिस्मिल्लहे अल्लाहो अकबर न पढ़ा गया हो या वह शिकारी जानवर मजूसी काफ़िर का हो, इन सब सूरतों में वह शिकार हराम है. तीर से शिकार करने का भी यही हुक्म है, अगर बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर कहकर तीर मारा और उससे शिकार ज़ख्मी हो कर गिर गया तो हलाल है और अगर न मरा तो दोबारा उसको बिस्मिल्लाहे अल्लाहो अकबर पढ़कर फिर से ज़िब्ह करे. अगर उसपर बिस्मिल्लाह न पढ़े या तीर का ज़ख़्म उस को न लगा या ज़िन्दा पाने के बाद उसको ज़िब्ह न किया, इन सब सूरतों में हराम है.
(23) यानी उनके ज़बीहे, मुसलमान और किताबी का ज़िब्ह किया हुआ जानवर हलाल है चाहे वह मर्द हो, औरतें हो, या बच्चा.
(24) निकाह करने में औरत को पारसाई का लिहाज़ मुस्तहब है लेकिन निकाह की सेहत के लिए शर्त नहीं.
(25) निकाह करके.
(26) नाजायज़ तरीके से मस्ती निकालने से बेधड़क ज़िना करना, और आशना बनाने से छुपवाँ ज़िना मुराद है.
(27) क्योंकि इस्लाम लाकर उससे फिर जाने से सारे अमल अकारत हो जाते हैं.
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