17 – सूरए बनी इस्राईल

पन्द्रहवां पारा – सुब्हानल्लज़ी
 
17 – सूरए बनी इस्राईल – पहला  रूकू


सूरए बनी इस्राईल मक्का में उतरी, इसमें 111 आयतें  12 रूकू हैं.
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए बनी इस्राइल का नाम सूरए अस्रा और सूरए सुब्हान भी है. यह सूरत मक्की है मगर आठ आयतें व इन कादू ल-यफ़-तिन-नका से नसीरन तक, यह क़ौल क़तादा का है. मगर बैज़ावी का कहना है कि यह सूरत सारी की सारी मक्की है. इस सूरत में बारह रूकू और एक सौ दस आयतें बसरी हैं और कूफ़ी एक सौ ग्यारह और पांच सौ तैंतीस कलिमे और तीन हज़ार चार सौ साठ अक्षर हैं.

पाकी है उसे(2)
(2) पाक है उसकी ज़ात हर ऐब और दोष से.

जो अपने बन्दे(3)
(3) मेहबूब मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

को रातों रात ले गया(4)
(4) शबे मेअराज.

मस्जिदे हराम से मस्जिदे अक़्सा तक(5)
(5)जिसका फ़ासला चालीस मंज़िल यानी सवा महीने से ज़्यादा की राह है. जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम शबे मेअराज ऊंचे दर्जे और बलन्द रूत्बे पर बिराजमान हुए तो रब तआला ने ख़िताब फ़रमाया ऐ  मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम यह फ़ज़ीलत और यह सम्मान मैंने तुम्हें क्यों अता फ़रमाया. अर्ज़ किया, इसलिये कि तूने मुझे अब्द यानी बन्दे की हैसियत से अपनी तरफ़ मन्सूब किया. इसपर यह आयत  उतरी. (ख़ाज़िन)

जिसके गिर्दा गिर्द हमने बरकत रखी(6)
(6) दीनी भी, दुनियावी भी, कि वह पाक धर्ती, वही उतरने की जगह और नबियों की इबादत गाह और उनके ठहरने की जगह और इबादत का क़िबला है. और नहरों और दरख़्तों की बहुतात से वह ज़मीन हरी भरी तरो ताज़ा और मेवों और फलों की बहुतात से बेहतरीन आराम और राहत की जगह है. मेअराज शरीफ़ नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का एक बड़ा चमत्कार और अल्लाह तआला की भारी नेअमत है और इससे हुज़ूर का अल्लाह की बारगाह में वह कुर्ब ज़ाहिर होता है जो मख़लूक़ में आपके सिवा किसी को हासिल नहीं नबुव्वत के बारहवें साल हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मेअराज से नवाज़े गए. महीने में इख़्तिलाफ़ है. मगर मशहूर यही है कि सत्ताईस्वीं रजब को मेअराज हुई. मक्कए मुकर्रमा से हुज़ूर पुरनूर का बैतुल मक़दिस तक रात के छोटे हिस्से में तशरीफ़ ले जाना क़ुरआनी आयत से साबित है. इसका इन्कार करने वाला काफ़िर है. और आसमानों की सैर और क़ुर्ब की मंज़िलों में पहुंचना सही हदीसों से साबित है जो हदे तवातुर के क़रीब पहुंच गई हैं. इसका इन्कार करने वाला गुमराह है. मेअराज़ शरीफ़ बेदारी हालत में जिस्म और रूह दोनों के साथ वाक़े हुई. इसी पर एहले इस्लाम की सर्वसम्मति है. और रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सहाबा इसी को मानते हैं. क़ुरआनी आयतों और हदीसों से भी यही निष्कर्ष निकलता है. तीरा और माग़ान फ़लसफ़े के औहामे फ़ासिदा महज़ बातिल हैं. अल्लाह की क़ुदरत के मानने वाले के सामने वो सारे संदेह महज़ बेहक़ीक़त है. हज़रत जिब्रील का बुराक़ लेकर हाज़िर होना, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म को बेहद अदब और एहितराम के साथ सवार करके ले जाना, बैतुल मक़दिस में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का नबियों की इमामत फ़रमाना, फिर वहाँ से आसमानों की सैर की तरफ़ मुतवज्जह होना, जिब्रीले अमीन का हर हर आसमान का दर्वाज़ा ख़ुलवाना और हर हर आसमान पर वहाँ के साहिबे मक़ाम अम्बिया अलैहिस्सलाम की ज़ियारत करना और हुज़ूर का सम्मान करना, तशरीफ़ आवरी की मुबारक -बादें देना, हुज़ूर का एक आसमान से दूसरे आसमान की तरफ़ सैर फ़रमाना, वहाँ के चमत्कार देखना और तमाम मुक़र्रिबीन की आख़िरी मंज़िल सिद-रतुल-मुन्तहा को पहुंचना जहाँ से आगे बढ़ने की किसी बड़े से बड़े फ़रिश्ते की भी मजाल नहीं है. जिब्रीले अमीन का वहाँ मजबूरी ज़ाहिर करके रह जाना, फिर ख़ास कुर्ब के मक़ाम में हुज़ूर का तरक़्कियाँ फ़रमाना और उस अअला क़ुर्ब में पहुंचना कि जिसके तसव्वुर तक सृष्टि की सोचने और विचार करने की शक्ति नहीं पहुंच सकती, वहाँ अल्लाह की रहमत और करम का हासिल करना और इनआमों और अच्छी नेअमतों से नवाज़ा जाना और आसमान व ज़मीन के फ़रिश्तों और उनसे ज़्यादा इल्म पाना और उम्मत के लिये नमाज़ें फ़र्ज़ होना, हुज़ूर का शफ़ाअत फ़रमाना, जन्नत व दोज़ख़ की सैर और वापस अपनी जगह तशरीफ़ लाना इस वाक़ए की ख़बरें देना, काफ़िरों का उसपर आलोचना करना और बैतुल मक़दिस की इमारत का हाल और शाम प्रदेश जाने वाले क़ाफ़िलों की क़ैफ़ियत हुज़ूर अलैहिस्लातो वस्सलाम से दरियाफ़्त करना, हुज़ूर का सब कुछ बताना और क़ाफ़िलों के आने पर उनकी पुष्टि होना, ये तमाम सहाबा की विश्वसनीय हदीसों से साबित है. और बहुत सी हदीसों में इन सारी बातों के बयान और उनकी तफ़सीलें आई हैं.

कि हम उसे अपनी अज़ीम निशानियाँ दिखाएं, बेशक वह सुनता देखता है{1} और हमने मूसा को किताब (7)
(7) यानी तौरात.

अता फ़रमाई और उसे बनी इस्राईल के लिये हिदायत किया कि मेरे सिवा किसी को कारसाज़ न ठहराओ{2} ऐ उनकी औलाद जिनको हमने नूह के साथ (8)
(8) किश्ती में,

सवार किया बेशक वह बड़ा शुक्र गुज़ार बन्दा था(9){3}
(9) यानी नूह अलैहिस्सलाम बहुत शुक्र किया करते थे. जब कुछ खाते पीते पहनते तो अल्लाह तआला की हम्द यानी तअरीफ़ करते और उसका शुक्र बजा लाते और उनकी सन्तान पर लाज़िम है कि वह अपने इज़्ज़त वाले दादा के तरीक़े पर क़ायम रहे.

और हमने बनी इस्राईल को किताब(10)
(10)तौरात

में वही (देववाणी) भेजी कि ज़रूर तुम ज़मीन में दोबारा फ़साद मचाओगे(11)
(11) इससे ज़मीने शाम और बैतुल मक़दिस मुराद है और दो बार के फ़साद का बयान अगली आयत में आता है.

और ज़रूर बड़ा घमण्ड करोगे(12){4}
(12) और ज़ुल्म और विद्रोह में जकड़ गए.

फिर जब उनमें पहली बार(13)
(13) के फ़साद के अज़ाब.

का वादा आया(14)
(14) और उन्होंने तौरात के आदेशों का विरोध किया और हराम कामों और गुनाहों में पड़ गए और हज़रत शोअया नबी अलैहिस्सलाम और एक क़ौल के मुताबिक़ हज़रत अरमिया को क़त्ल किया. (बैज़ावी वग़ैरह)

हमने तुमपर अपने बन्दे भेजे सख़्त लड़ाई वाले(15)
(15)  बहुत ज़ोर और क़ुव्वत वाले, उनको तुमपर हावी किया और वो सन्जारीब और उसकी फ़ौजें हैं या बुख्ते नसर या जालूत जिन्होंने बनी इस्राईल के उलमा को क़त्ल किया. तौरात को जलाया, मस्जिद को ख़राब किया और सत्तर हज़ार को उनमें से गिरफ़्तार किया.

तो वो शहरों के अन्दर तुम्हारी तलाश को घुसे(16)
(16) कि तुम्हें लूटें और क़त्ल और क़ैद करें.

और यह एक वादा था(17)
(17) अज़ाब का, कि लाज़िम था.

जिसे पूरा होना {5} फिर हमने उनपर उलट कर तुम्हारा हमला कर दिया(18)
(18) जब तुम ने तौबह की और घमण्ड और फ़साद से बाज़ आए तो हमने तुमको दौलत दी और उनपर ग़लबा इनायत फ़रमाया जो तुमपर मुसल्लत हो चुके थे.

और तुमको मालों और बेटों से मदद दी और तुम्हारा जत्था बढ़ा दिया{6} अगर तुम भलाई करोगे अपना भला करोगे(19)
(19) तुम्हें इस भलाई का बदला मिलेगा.

और बुरा करोगे तो अपना, फिर जब  दूसरी बार का वादा आया(20)
(20) और तुमने फिर फ़साद बरपा किया, हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के क़त्ल पर तुले. अल्लाह तआला ने उन्हें बचाया और अपनी तरफ़ उठा लिया. और तुमने हज़रत ज़करिया और हज़रत यहया अलैहुमस्सलाम को क़त्ल किया, तो अल्लाह तआला ने तुमपर फ़ारस और रूम वालों को मुसल्लत कर दिया कि तुम्हारे वो दुश्मन तुम्हें क़त्ल करें या क़ैद करें और तुम्हें इतना परेशान करें.

कि दुश्मन तुम्हारा मुंह बिगाड़ दें(21)
(21) कि रंज और परेशानी के भाव तुम्हारे चेहरों से ज़ाहिर हो.

और मस्जिदे में दाख़िल हो(22)
(22) यानी बैतुल मक़दिस में और उसको वीरान करें.

जेसे पहली बार दाख़िल हुए थे (23)
(23) और उसको वीरान किया था, तुम्हारे पहले फ़साद के वक़्त.

और जिस चीज़ पर क़ाबू पाएं(24)
(24) बनी इस्राईल के इलाकों से, उसको—-

तबाह करके बर्बाद कर दें{7} क़रीब है कि तुम्हारा रब तुमपर रहम करें(25)
(25) दूसरी बार के बाद भी, अगर तुम दोबारा तौबह करो, और गुनाहों से बाज़ आओ.

और अगर तुम फिर शरारत करो (26)
(26) तीसरी बार.

तो हम फिर अज़ाब करेंगे(27)
(27) चुनांचे ऐसा ही हुआ, और उन्होंने फिर अपनी शरारत की तरफ़ पलटा खाया और मुस्तफ़ा जाने रहमत सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पाक दौर में हूज़ुरे अक़दस को झुटलाया, तो क़यामत तक के लिये उनपर ज़िल्लत लाज़िम कर दी गई और मुसलमान उनपर मुसल्लत फ़रमा दिये गए, जैसा कि क़ुरआन शरीफ़ में यहूदियों की निस्बत आया “दुरिबत अलैहिमुज़ ज़िल्लतु” यानी उनपर जमा दी गई ख़्वारी – (सूरए आले इमरान आयत 112)

और हमने जहन्नम को काफ़िरों का क़ैदख़ाना बनाया है {8} बेशक यह क़ुरआन वह राह दिखाता है जो सबसे सीधी है(28)
(28)  वह अल्लाह की तौहीद और उसके रसूलों पर ईमान लाना और उनका अनुकरण करना है.

और ख़ुशी सुनाता है ईमान वालों को जो अच्छे काम करें कि उनके लिये बड़ा सवाब है{9} और यह कि जो आख़िरत पर ईमान नहीं लाते हमने उनके लिये दर्दनाक अज़ाब तैयार कर रखा है{10}

17 सूरए बनी इस्राईल- दूसरा रूकू

17 सूरए  बनी इस्राईल- दूसरा रूकू

और आदमी बुराई की दुआ करता है (1)
(1) अपने लिये अपने घर वालों के लिये और अपने माल के लिये और अपनी औलाद के लिये और ग़ुस्से में आकर उन सबको कोसता है और उनके लिये बद दुआएं करता है.

जैसे भलाई मांगता है(2)
(2) अगर अल्लाह तआला उसकी यह बद दुआ क़ुबूल कर ले तो वह शख़्स या उसके घर वाले और माल हलाक हो जाएं. लेकिन अल्लाह तआला अपने फ़ज़्ल व करम से उसको क़ुबूल नहीं फ़रमाता.

और आदमी बड़ा जल्दबाज़ है(3){11}
(3) कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि इस आयत में इन्सान से काफ़िर मुराद है और बुराई की बददुआ से उसका अज़ाब में जल्दी करना. और  हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि नज़र बिन हारिस काफ़िर ने कहा, यारब अगर यह दीने इस्लाम तेरे नज़दीक सच्चा है तो हम पर आस्मान से पत्थर बरसा, दर्दनाक अज़ाब भेज. अल्लाह तआला ने उसकी यह दुआ क़ुबूल कर ली और उसकी गर्दन मारी गई.

और  हमने रात और  दिन को दो निशानियां बनाया(4)
(4) अपनी वहदानियत और क़ुदरत पर दलील देने वाली.

तो रात की निशानी मिटी हुई रखी (5)
(5) यानी रात को अंधेरा किया ताकि इसमें आराम किया जाए.

और  दिन की निशानियाँ दिखाने वाली(6)
(6) रौशन, कि इसमें सब चीज़ें नज़र आएं.

कि अपने रब का फ़ज़्ल तलाश करो(7){79}
(7) और रोज़ी की कमाई और मेहनत के काम आसानी से अंजाम दे सको.

 और (8)
(8) रात दिन के दौरे से.

बरसों की गिनती और  हिसाब जानो(9)
(9) दीन और  दुनिया के कामों के औक़ात.

और  हमने हर चीज़ ख़ूब अलग अलग ज़ाहिर फ़रमा दी(10){12}
(10) चाहे उसकी ज़रूरत दीन में हो या दुनिया में. मतलब यह है कि हर चीज़ की तफ़सील फ़रमा दी जैसा कि दूसरी आयत में इरशाद है “मा फर्रतना फ़िल किताबे मिन शैइन” यानी और हमने इस किताब में कुछ उठा न रखा (सूरए अनआम, आयत 38). और एक और आयत में इरशाद है:”व नज़्ज़लना अलैकल किताबे तिब्यानल लिकुल्ले शैइन” यानी और हमने तुमपर ये क़ुरआन उतारा कि हर चीज़ का रौशन बयान है (सूरए नहल, आयत 89). ग़रज़ इन आयतों से साबित है कि क़ुरआन शरीफ़ में सारी चीज़ों का बयान है. सुब्हानल्लाह! क्या किताब है, कैसी इसकी सम्पूर्णता. (जुमल,ख़ाज़िन व मदारिक)

और हर इन्सान की क़िस्मत हमने उसके ,गले से लगा दी (11)
(11) यानी जो कुछ उसके लिये मुक़द्दर किया गया है, अच्छा या बुरा, ख़ुशनसीबी या बदनसीबी, वह उसको इस तरह लाज़िम है जैसे गले का हार, जहाँ जाए साथ रहे, कभी अलग न हो. मुजाहिद ने कहा कि हर इन्सान के गले में उसकी सआदत यानी ख़ुशनसीबी या शक़ावत यानी बदक़िस्मती और हट धर्मी का लेखा डाल दिया जात है.

और  उसके लिये क़यामत के दिन एक नविश्ता (भाग्यपत्र) निकालेंगे जिसे खुला हुआ पाएगा(12){13}
(12) वह उसका आमालनामा यानी कर्मों का लेखा होगा.

फ़रमाया जाएगा कि अपना नामा (लेखा)पढ़ आज तू ख़ुद ही अपना हिसाब करने को बहुत है{14} जो राह पर आया वह अपने ही भले को राह पर आया,(13)
(13) उसका सवाब वही पाएगा.

और जो बहका तो अपने ही बुरे को बहका(14)
(14) उसके बहकने का गुनाह और  वबाल उसपर.

और कोई बोझ उठाने वाली जान दूसरे का बोझ न उठाएगी(15)
(15) हर एक के गुनाहों का बोझ उसी पर होगा.

और हम अज़ाब करने वाले नहीं जब तक रसूल न भेज लें(16){15}
(16) जो उम्मत को उसके कर्तव्यों से आगाह फ़रमाए और सीधी सच्ची राह उनको बता दे और हुज्जत क़ायम फ़रमाए.

और जब हम किसी बस्ती को हलाक करना चाहते हैं उसके ख़ुशहालों (17)
(17)और सरदारों…

पर एहकाम भेजते हैं फिर वो उसमें बेहुक्मी करते हैं तो उसपर बात पूरी हो जाती है तो हम उसे तबाह करके बर्बाद कर देते हैं{16} और  हमने कितनी ही संगतें (क़ौमे)(18)
(18) यानी झुटलाने वाली उम्मतें.

नूह के बाद हलाक कर दीं(19)
(19)आद, समूद वग़ैरह की तरह.

और  तुम्हारा रब काफी है अपने बन्दों के गुनाहों से ख़बरदार देखने वाला(20){17}
(20) ज़ाहिर और बातिन का जानने वाला, उससे कुछ छुपाया नहीं जा सकता.

जो यह जल्दी वाली चाहे(21)
(21) यानी दुनिया का तलबगार हो.

हम उसे उसमें जल्दी दे दें जो चाहें जिसे चाहें(22)
(22) यह ज़रूरी नहीं कि दुनिया के तालिब की हर ख़्वाहिश पूरी की जाए और उसे दिया ही जाए और  वह जो मांगे वही दिया जाए. ऐसा नहीं है, बल्कि उनमें से जिसे चाहते हैं देते हैं और जो चाहते हैं देते हैं, कभी ऐसा होता है कि मेहरूम कर देते हैं और कभी ऐसा होता है कि वह बहुत चाहता है और थोड़ा देते हैं. कभी ऐसा कि ऐश चाहता है, तक़लीफ़ देते हैं. इन हालतों में काफ़िर दुनिया और आख़िरत के टोटे में रहा और  अगर दुनिया में उसको उसकी मुराद देदी गई तो आख़िरत की बदनसीबी और  शक़ावत जब भी है. इसके विपरीत मूमिन, जो आख़िरत का तलबगार है, अगर वह दुनिया में फ़क्र से यानी दरिद्रता से भी बसर कर गया तो आख़िरत की हमेशा की नेअमत उसके लिये है. और  अगर दुनिया में भी अल्लाह की कृपा से उसको ऐश मिला तो दोनों जगत में कामयाब, गरज़ मूमिन हर हाल में कामयाब हैं. और काफ़िर अगर दुनिया में आराम पा भी ले, तो भी क्या? क्योंकि….

फिर उसके लिये जहन्नम करदें कि उसमें जाए मज़म्मत(निंदा) किया हुआ धक्के खाता{18} और  जो आख़िरत चाहे और उसकी सी कोशिश करे(23)
(23) और नेक अमल करे.

और हो ईमान वाला तो उन्हीं की कोशिश ठिकाने लगी(24){19}
(24) इस आयत से मालूम हुआ कि कर्म की मक़बूलियत के लिये तीन बातें ज़रूरी हैं, एक, नेक नियत, दूसरे कोशिश यानी अमल को उसके पूरे संस्कारों के साथ अदा करना, तीसरे ईमान जो सबसे ज़्यादा ज़रूरी है.

हम सबको मदद देते हैं उनको भी(25)
(25) जो दुनिया चाहते हैं.

और उनको भी(26)
(26) जो आख़िरत के तलबगार हैं.

तुम्हारे रब की अता से  (27)
(27) दुनिया में रोज़ी देते हैं और हर एक का अंजाम उसके हाल के अनुसार.

और तुम्हारे रब की अता पर रोक नहीं(28){20}
(28) दुनिया में सब उससे फ़ैज़ उठाते हैं, अच्छे हों या बुरे.

देखो हमने उनमें एक को एक पर कैसी बड़ाई दी(29)
(29) माल व कमाल व शान शौकत और  दौलत में.

और बेशक आख़िरत दर्जों में सब से बड़ी और  फ़ज़्ल(इज़्ज़त) में सबसे अअला(उत्तम)है {21} ऐ सुनने वाले अल्लाह के साथ दूसरा ख़ुदा न ठहरा कि तू बैठ रहेगा मज़म्मत किया जाता बेकस(30){22}
(30) दोस्त, साथी और  मददगार के बिना.

17 सूरए बनी इस्राईल – तीसरा रूकू

17 सूरए  बनी इस्राईल – तीसरा रूकू

और तुम्हारे रब ने हुक्म फ़रमाया कि उसके सिवा किसी को न पूजो और  माँ बाप के साथ अच्छा सुलूक करो, अगर तेरे सामने उनमें एक या दोनो बुढ़ापे को पहुंच जाए(1)
(1) कमज़ोरी बढ़े, शरीर के अंगों में क़ुव्वत न रहे और जैसा तू बचपन में उनके पास बेताक़त था ऐसे ही वो उम्र के आख़िर में तेरे पास कमज़ोर रह जाएं.

तो उनसे हूँ न कहना (2){23}
(2) यानी कोई ऐसा कलिमा ज़बान से न निकालना जिसे यह समझा जाए कि उनकी तरफ़ से तबियत पर कुछ बोझ है.

और उन्हें न झिड़कना और  उनसे तअज़ीम (आदर) की बात कहना (3)
(3) और  बहुत ज़्यादा अदब के साथ उनसे बात करना. माँ बाप को उनका नाम लेकर न पुकारे, यह अदब के ख़िलाफ़ है. और इसमें उनके दिल दुखने का डर है. लेकिन  वो सामने न हों तो उनका नाम लेकर ज़िक्र करना जायज़ है. माँ बाप से इस तरह कलाम करे जैसे ग़ुलाम और सेवक अपने मालिक से करता हैं.

 और उनके लिये आजिज़ी (नम्रता) का बाज़ू बिछा(4)
(4) यानी विनम्रता और मेहरबानी और  झुककर पेश आ और उनके साथ थके वक़्त में शफ़क़त व महब्बत का व्यवहार कर कि उन्हों ने तेरी मजबूरी के वक़्त तुझे प्यार दुलार से पाला था. और  जो चीज़ उन्हें दरकार हो वह उनपर ख़र्च करने में पीछे मत हट…

नर्म दिली से और  अर्ज़ कर कि ऐ मेरे रब, तू इन दोनों पर रहम कर जैसा कि इन दोनो ने मुझे छुटपन में पाला(5){24}
(5) मतलब यह है कि दुनिया में बेहतर सुलूक और ख़िदमत को कितना भी बढ़ाया जाए, लेकिन माँ बाप के एहसान का हक़ अदा नहीं होता. इसलिये बन्दे को चाहिये कि अल्लाह की बारगाह में उनपर फ़ज़्ल व रहमत फ़रमाने की दुआ करे और  अर्ज़ करे कि यारब मेरी ख़िदमतें उनके एहसान का बदला नहीं हो सकतीं, तू उनपर करम कर कि उनके एहसान का बदला हो. इस आयत से साबित हुआ कि मुसलमान के लिये रहमत और  मग़फ़िरत की दुआ जायज़ और  उसे फ़ायदा पहुंचाने वाली है. मुर्दों के ईसाले सवाब में भी उनके लिये रहमत की दुआ होती है, लिहाज़ा इसके लिये यह आयत अस्ल है. माँ बाप काफ़िर हों तो उनके लिये हिदायत और  ईमान की दुआ करे कि यही उनके हक़ में रहमत है. हदीस शरीफ़ में है कि माँ बाप की रज़ामन्दी में अल्लाह तआला की रज़ा और  उनकी नाराज़ी में अल्लाह तआला की नाराज़ी है. दूसरी हदीस में है, माँ बाप की आज्ञा का पालन करने वाला जहन्नमी न होगा और उनका नाफ़रमान कुछ भी अमल करे, अज़ाब में जकड़ा जाएगा, एक और हदीस में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया माँ बाप की नाफ़रमानी से बचो इसलिये कि जन्नत की ख़ुश्बू हज़ार बरस की राह तक आती है और नाफ़रमान वह ख़ुश्बू न पाएगा, न सगे रिश्तों को तोड़ने वाला, न बूढ़ा बलात्कार, न घमण्ड से अपनी इज़ार टखनों से नीचे लटकाने वाला.

तुम्हारा रब ख़ूब जानता है जो तुम्हारे दिलों में है(6)
(6) माँ बाप की फ़रमाँबरदारी का इरादा और उनकी ख़िदमत का शौक़.

अगर तुम लायक़ हुए (7)
(7) और तुम से माँ बाप की ख़िदमत में कमी वाक़े हुई तो तुमने तौबह की.

तो बेशक वह तौबह करने वाले को बख़्शने वाला है{25} और  रिश्तेदारों को उनका हक़ दे(8)
(8) उनके साथ मेहरबानी करो और महब्बत और मेल जोल  ख़बरगीरी और  मौक़े पर मदद और अच्छा सुलूक. और अगर वो मेहरमों में से हो और मोहताज हो जाएं तो उनका ख़र्च उठाना, यह भी उनका हक़ है. और  मालदार रिश्तेदार पर लाज़िम है. कुछ मुफ़स्सिरों ने इस आयत की तफ़सीर में कहा है कि रिश्तेदारों से सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ रिश्ते रखने वाले मुराद हैं और  उनका हक़ यानी पाँचवा हिस्सा देना और उनका आदर सत्कार करना है.

और मिस्कीन और मुसाफ़िर को(9)
(9) उनका हक़ दो यानी जक़ात.

और फ़ुज़ूल न उड़ा(10){26}
(10) यानी नाज़ायज़ काम में ख़र्च न कर. हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि “तबज़ीर” माल का नाहक़ में ख़र्च करना है.

बेशक उड़ाने वाले शैतानों के भाई हैं(11)
(11) कि उनकी राह चलते हैं.

और शैतान अपने रब का बड़ा नाशुक्रा है(12){27}
(12) तो उसकी राह इख़्तियार करना न चाहिये.

और अगर तू उनसे(13)
(13) यानी रिश्तेदारों और  मिस्कीनों और  मुसाफ़िरों से. यह आयत मेहजअ व बिलाल व सुहैब व सालिम व ख़ब्बाब सहाबए रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की शान में उतरी जो समय समय पर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अपनी ज़रूरतों की पूर्ति के लिये कुछ न कुछ मांगते रहते थे. अगर किसी वक़्त हुज़ूर के पास कुछ न होता तो आप हया से उनका सामना न करते और ख़ामोश हो जाते इस इन्तिज़ार में कि अल्लाह तआला कुछ भेजे तो उन्हें अता फ़रमाएं.

मुंह फेरे अपने रब की रहमत के इन्तिज़ार में जिसकी तुझे उम्मीद है तो उनसे आसान बात कह(14){28}
(14) यानी उनकी ख़ुशदिली के लिये, उनसे वादा कीजिये या उनके हक़ में दुआ फ़रमाइये.

और  अपना हाथ अपनी गर्दन से बंधा हुआ न रख और न पूरा खोल दे कि तू बैठ रहे मलामत किया हुआ थका हुआ(15) {29}
(15) यह मिसाल है जिससे ख़र्च करने में मध्यमार्ग पर चलने की हिदायत मंज़ूर है और  यह बताया जाता है कि न तो इस तरह हाथ रोको कि बिलकुल ख़र्च ही न करो और यह मालूम हो गया कि हाथ गले से बांध दिया गया है, देने के लिये हिल ही नहीं सकता. ऐसा करना तो मलामत का कारण होता है कि कंजूस को सब बुरा कहते हैं. और  न ऐसा हाथ खोलो कि अपनी ज़रूरतों के लिये भी कुछ बाक़ी न रहे. एक मुसलमान बीबी के सामने एक यहूदी औरत ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की सख़ावत का बयान किया और उसमें इस हद तक बढ़ा चढ़ा कर कहा कि हज़रत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से बढ़कर बता दिया और  कहा कि हज़रत मूसा कि सख़ावत इस इन्तिहा पर पहुंची हुई थी कि अपनी ज़रूरतों के अलावा जो कुछ भी उनके पास होता, मांगने वाले को देने से नहीं हिचकिचाते. यह बात मुसलमान बीबी को नागवार गुज़री और उन्होंने कहा कि सारे नबी बुज़ुर्गी व कमाल वाले हैं. हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की उदारता और  सख़ावत में कुछ संदेह नहीं, लेकिन सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का दर्जा सबसे ऊंचा है और यह कहकर उन्होंने चाहा कि हज़रत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की सख़ावत और करम की आज़माइश उस यहूदी औरत को कर दी जाए चुनांचे उन्होंने अपनी छोटी बच्ची को भेजा कि हुज़ूर से क़मीज़ माँग लाए. उस वक़्त हुज़ूर के पास एक ही क़मीज़ थी जो आप पहने हुए थे, वही उतार कर अता फ़रमा दी और  आप ने मकान के अन्दर तशरीफ़ रखी. शर्म से बाहर न आए यहाँ तक कि अज़ान का वक़्त हो गया. अज़ान हुई. सहाबा ने इन्तिज़ार किया, हुज़ूर तशरीफ़ न लाए तो सबको फ़िक्र हुई. हाल मालूम करने के लिये सरकार के मुबारक मकान में हाज़िर हुए तो देखा कि पाक बदन पर क़मीज़ नहीं हैं. इसपर यह आयत उतरी.

बेशक तुम्हारा रब जिसे चाहे रिज़्क कुशादा देता और  (16)
(16) जिसे चाहे उसके लिये तंगी करता और  उसको.

कस्ता है, बेशक वह अपने बन्दों को ख़ूब जानता(17)
(17) और  उनकी हालतों और  मसलिहतों को.
देखता है{30}

17 सूरए बनी इस्राईल- चौथा रूकू

17 सूरए बनी इस्राईल- चौथा रूकू


और अपनी औलाद को क़त्ल न करो मुफ़लिसी(दरिद्रता) के डर से.(1)
(1) जिहालत के दौर में लोग अपनी लड़कियों को ज़िन्दा गाड़ दिया करते थे और इसके कई कारण थे. नादारी व मुफ़लिसी के डर, लूट का ख़ौफ़, अल्लाह तआला ने इसको मना फ़रमाया.

हम उन्हें भी रोज़ी देंगे और तुम्हें भी, बेशक उनका क़त्ल बड़ी खता है{31} और बदकारी के पास न जाओ बेशक वह बेहयाई है और बहुत ही बुरी राह{32} और कोई जान जिसकी हुरमत (प्रतिष्ठा) अल्लाह ने रखी है नाहक़ न मारो और जो नाहक़ मारा जाए तो बेशक हमने उसके वारिस को का़बू दिया है(2)
(2) क़िसास लेने का. आयत से साबित हुआ कि क़िसास लेने का हक़ वली को है और ख़ून के रिश्ते के हिसाब से हैं. और  जिसका वली न हो उसका वली सुल्तान है.

तो वह क़त्ल में हद से न बढ़े(3)
(3) और जिहालत के ज़माने की तरह एक मक़तूल के बदले में कई कई को या बजाए क़ातिल के उसकी क़ौम और जमाअत के और  किसी व्यक्ति को क़त्ल न करे.

ज़रूर उसकी मदद होनी है(4){33}
(4) यानी वली की या मक़तूले मज़लूम की या उस शख़्स की जिसको वली नाहक़ क़त्ल करे.

और यतीम के माल के पास न जाओ मगर उस राह से जो सबसे भली है(5)
(5) वह यह है कि उसकी हिफ़ाज़त करो और उसको बढ़ाओ.

यहां तक कि वह अपनी जवानी को पहुंचे(6)
(6) और वह अठारह साल की उम्र है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हा के नज़दीक यही मुख़्तार है और हज़रत इमामे आज़म अबू हनीफ़ा रहमतुल्लाह अलैह ने अलामात ज़ाहिर न होने की हालत में बालिग़ होने की मुद्दत की इन्तिहा अठारह साल क़रार दी. (अहमदी)

और एहद पूरा करो(7)
(7)  अल्लाह का भी, बन्दो का भी.

बेशक एहद से सवाल होना है{34} और नापों तो पूरा और बराबर तराज़ू से तौलो, यह बेहतर है और इसका अंजाम अच्छा{35} और उस बात के पीछे न पड़ जिसका तुझे इल्म नहीं(8)
(8) यानी जिस चीज़ को देखा न हो उसे न कहो कि मैं ने देखा. जिसको सुना न हो उसकी निस्बत यह न कहो कि मैं ने सुना. इब्ने हनीफ़ा से मन्क़ूल है कि झूठी गवाही न दो. इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा कहते है किसी पर वह इल्ज़ाम न लगाओ जो तुम न जानते हो.

बेशक कान और आँख और दिल इन सब से सवाल होना है(9){36}
(9) कि तुमने उनसे क्या काम लिया.

और ज़मीन में इतराता न चल(10)
(10) घमण्ड और  अपनी शान दिखाने से.

बेशक हरगिज़ ज़मीन न चीर डालेगा और हरगिज़ बलन्दी में पहाड़ों को न पहुंचेगा(11) {37}
(11) मानी ये हैं कि घमण्ड और झूठी शान दिखाने से कुछ लाभ नहीं.

यह जो कुछ गुज़रा इन में की बुरी बात तेरे रब को ना पसन्द है {38} यह उन वहियों (देव-वाणियों) में से है जो तुम्हारे रब ने तुम्हारी तरफ़ भेजी हिकमत की बातें(12)
(12) जिनकी सच्चाई पर अक़्ल गवाही दे और उनसे नफ़्स की दुरूस्त हो, उनकी रिआयत या उनका ख़्याल रखना लाज़िम है. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि इन आयतों का निष्कर्ष तौहीद और  बैरग़बती और आख़िरत की तरफ़ रग़बत दिलाना है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया ये अठारह आयतें “ला तजअल मअल्लाहे इलाहन आख़रा” से “मदहूरा” तक हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की तख़्तियों में थीं. इनकी शुरूआत तौहीद के हुक्म से हुई और  अन्त शिर्क की मुमानिअत पर. इससे मालूम हुआ कि हर हिकमत की बुनियाद तौहीद और ईमान है और कोई क़ौल और अमल इसके बिना क़ुबूल नहीं.

और ऐ सुनने वाले अल्लाह के साथ दूसरा ख़ुदा न ठहरा कि तू जहन्नम में फेंका जाएगा तअने पाता धक्के खाता {39} क्या तुम्हारे रब ने तुम को बेटे चुन दिये और अपने लिये फ़रिश्तों से बेटियां बनाई(13)
(13) यह हिकमत के  ख़िलाफ़ बात किस तरह कहते हो.

बेशक तुम बड़ा बोल बोलते हो(14){40}
(14) कि अल्लाह तआला के लिये औलाद साबित करते हो जो जिस्म की विशेषता से है और अल्लाह तआला इससे पाक. फिर उसमें भी अपनी बड़ाई रखते हो कि अपने लिये तो बेटे पसन्द करते हो और उसके लिये बेटियाँ बताते हो. कितनी बेअदबी और गुस्ताख़ी है.

17 सूरए बनी इस्राईल- पांचवाँ रूकू

17 सूरए बनी इस्राईल- पांचवाँ रूकू

और बेशक हमने इस क़ुरआन में तरह तरह से बयान फ़रमाया(1)
(1) दलीलों से भी, मिसालों से भी, हिकमतों से भी, इबरतों से भी और जगह जगह इस मज़मून को तरह तरह से बयान फ़रमाया.

कि वो समझे(2)
(2) और नसीहत हासिल करें.

और इससे उन्हें नहीं बढ़ती मगर नफ़रत (3){41}
(3) और सच्चाई से दूरी.

तुम फ़रमाओ अगर उसके साथ और ख़ुदा होते जैसा ये बकते हैं जब तो वो अर्श के मालिक की तरफ़ कोई राह ढूंढ निकालते(4){42}
(4) और उससे मुक़ाबला करते, जैसा बादशाहों का तरीक़ा है.

उसे पाकी और बरतरी उनकी बातों से बड़ी बरतरी{43} उसकी पाकी बोलते हैं सातों आसमान और ज़मीन और  जो कोई उनमें हैं(5)
(5) अपने अस्तित्व की ज़बान से, इस तरह कि उनके वुजूद बनाने वाले की क़ुदरत और हिकमत के प्रमाण हैं. या बोलती ज़बान से, और यही सही है. बहुत सी हदीसों में इसी तरह आया है और बुज़ुर्गों ने भी यही बताया है.

और कोई चीज़ नहीं(6)
(6) पत्थर, सब्ज़ा (वनस्पित) और जानदार.

जो उसे सराहती हुई उसकी पाकी न बोले(7)
(7) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया  हर ज़िन्दा चीज़ अल्लाह की तस्बीह करती है और हर चीज़ की ज़िन्दगी उसकी हैसियत के अनुसार है. मुफ़स्सिरों ने कहा कि दर्वाज़ा खोलने की आवाज़ और छत का चटख़ना यह भी तस्बीह करना है और इन सबकी तस्बीह “सुब्हानल्लाहे व बिहम्दिही” है. हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हु से मन्क़ूल हैं. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मुबारक उंगलियों से पानी के चश्मे जारी होते हमने देखे और यह भी हमने देखा कि खाते वक़्त में ख़ाना तस्बीह करता था (बुख़ारी शरीफ़) हदीस शरीफ़ में सैयदे आलम  सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, मैं उस पत्थर को पहचानता हूँ जो मेरी नबुव्वत के ज़माने में मुझे सलाम करता था. (मुस्लिम शरीफ़) इब्ने उमर रदियल्लाहो अन्हु से रिवायत है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम लकड़ी के एक सुतून से तकिया फ़रमा कर ख़ुतबा दिया करते थे. जब मिम्बर बनाया गया और हुज़ूर उसपर जलवा अफ़रोज़ हुए तो वह सुतून रोया. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उसपर मेहरबानी का हाथ फेरा और शफ़क़त फ़रमाई और तस्कीन दी (बुखारी शरीफ़). इन सारी हदीसों से बेजान चीज़ों का कलाम और तस्बीह करना साबित हुआ.

हाँ तुम उनकी तस्बीह नहीं समझते(8)
(8) ज़बानों की भिन्नता या अलग अलग होने के कारण या उनके मानी समझने में दुशवारी की वजह से.

बेशक वह हिल्म (सहिष्णुता) वाला बख़्शने वाला है(9){44}
(9) कि बन्दों की ग़फ़लत पर अज़ाब मैं जल्दी नहीं फ़रमाता.

और ऐ मेहबूब तुमने क़ुरआन पढ़ा हमने तुमपर और उनमें कि आख़िरत पर ईमान नहीं लाते एक छुपा हुआ पर्दा कर दिया(10){45}
(10) कि वो आपको न देख सकें. जब आयत “तब्बत यदा” उतरी तो अबू लहब की औरत पत्थर लेकर आई. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हज़रत अबू बक्र रदियल्लाहो अन्हु के साथ तशरीफ़ रखते थे. उसने हुज़ूर को न देखा और हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हु से कहने लगी, तुम्हारे आक़ा कहां हैं, मुझे मालूम हुआ है उन्होंने मेरी बुराई की है. हज़रत सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हु ने फ़रमाया, वो कविता नहीं करते हैं. तो वह यह कहती हुई वापस हुई कि मैं उनका सर कुचलने के लिये यह पत्थर लाई थी. हज़रत सिद्दीक़े अक़बर रदियल्लाहो अन्हु ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अर्ज़ किया कि उसने हुज़ूर को देखा नहीं. फ़रमाया मेरे और उसके बीच एक फ़रिश्ता खड़ा रहा. इस घटना के बारे में यह आयत उतरी.

और  हमने उनके दिलों पर ग़िलाफ़ (पर्दे) डाल दिये हैं कि उसे न समझें और उनके कानों में टैंट (11)
(11) बोझ, जिसके कारण वो क़ुरआन नहीं सुनते.

और जब तुम क़ुरआन में अपने अकले रब की याद करते हो वो पीठ फेरकर भागते हैं नफ़रत करते {46} हम ख़ूब जानते हैं जिस लिये वो सुनते हैं(12)
(12)  यानी सुनते भी हैं तो ठट्ठा करने और झुटलाने के लिये.

जब तुम्हारी तरफ़ कान लगाते हैं और जब आपस में मशवरा करते हैं जब कि ज़ालिम कहते हैं तुम पीछे नहीं चले मगर एक ऐसे मर्द के जिस पर जादू हुआ(13){47}
(13) तो उनमें से कुछ आपको पागल कहते हैं, कुछ जादूगर, कुछ तांत्रिक, कुछ शायर.

देखो उन्होंने तुम्हें कैसी तशबीहें (उपमाएं) दीं तो गुमराह हुए कि राह नहीं पा सकते{48} और  बोले क्या जब हम हड्डियां और  रेज़ा रेज़ा हो जाएंगे क्या सच मुच नए बनकर उठेंगे(14){49}
(14) यह बात उन्होंने बड़े आश्चर्य से कही और मरने और ख़ाक़ में मिल जाने के बाद ज़िन्दा किये जाने को उन्हों ने बहुत दूर समझा. अल्लाह तआला ने उनका रद किया और अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को इरशाद फ़रमाया.

तुम फ़रमाओ कि पत्थर या लोहा हो जाओ {50} या और कोई मख़लूक़ (प्रणीवर्ग) जो तुम्हारे ख़याल में बड़ी हो(15)
(15) और ज़िन्दगी से दूर हो, जान उससे कभी न जुड़ी हो तो भी अल्लाह तआला तुम्हें ज़िन्दा करेगा और पहली हालत की तरफ़ वापस फ़रमाएगा. तो फिर हड्डियों और इस जिस्म के ज़र्रों का क्या कहना, उन्हें ज़िन्दा करना उसकी क़ुदरत से क्या दूर है. उनसे तो जान पहले जुड़ी रह चुकी है.

तो अब कहेंगे हमें कौन फिर पैदा करेगा, तुम फ़रमाओ वही जिसने तुम्हें पहली बार पैदा किया, तो अब तुम्हारी तरफ़ मसखरगी (ठठोल) से सर हिलाकर कहेंगे यह कब है(16)
(16) यानी क़यामत कब क़ायम होगी और मुर्दे कब उठाये जाएंगे.

तुम फ़रमाओ शायद नज़दीक ही हो {51} जिस दिन वह तुम्हें बुलाएगा (17)
(17) कब्रों से क़यामत के मैदान की तरफ़.

तो तुम उसकी हम्द करते चले आओगे(18)
(18) अपने सरों से मिट्टी झाड़ते और “सुब्हानकल्लाहुम्मा व बिहम्दिका” कहते और यह इक़रार करते की अल्लाह ही पैदा करने वाला है, मरने के बाद उठाने वाला है.

और समझोगे कि न रहे थे(19)
(19) दुनिया में या कब्रों में.
मगर थोड़ा {52}