8- सूरए अनफ़ाल

8- सूरए अनफ़ाल
सूरए अनफ़ाल मदीने में उतरी, इसमें 75 आयतें और दस रूकू हैं.

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)

पहला रूकू

ऐ मेहबूब! तुम से ग़नीमतों (युद्ध के बाद हाथ आने वाला माल) को पूछते हैं(2)
तुम फ़रमाओ ग़नीमतों के मालिक अल्लाह और रसूल हैं (3)
तो अल्लाह से डरो(4)
और आपस में मेल रखो और अल्लाह और रसूल का हुक्म मानो अगर ईमान रखते हो{1} ईमान वाले वही हैं कि जब अल्लाह याद किया जाए (5)
उनके दिल डर जाएं और जब उनपर उसकी आयतें पढ़ी जाएं उनका ईमान तरक़्क़ी पाए और अपने रब ही पर भरोसा करें  (6){2}
वो जो नमाज़ क़ायम रखें और हमारे दिये से हमारी राह में ख़र्च करें {3} यही सच्चे मुसलमान हैं उनके लिये दर्ज़े हैं उनके रब के पास (7)
और बख़्शिश है और इज़्ज़त की रोज़ी (8){4}
जिस तरह ऐ मेहबूब तुम्हें तुम्हारे रब ने तुम्हारे घर से हक़ के साथ बरामद किया (9)
और बेशक मुसलमानों का एक गिरोह उसपर नाख़ुश था (10){5}
सच्ची बात में तुम से झगड़ते थे(11)
बाद इसके कि ज़ाहिर हो चुकी (12)
मानो वो आँखों देखी मौत की तरफ़ हाँके जाते हैं (13){6}
और याद करो जब अल्लाह ने तुम्हें वादा दिया था कि इन दोनों गिरोहों (14)
में एक तुम्हारे लिये है और तुम यह चाहते थे कि तुम्हें वह मिले जिसमें काँटें का खटका नहीं और कोई नुक़सान न हो (15)
अल्लाह यह चाहता था कि अपने कलाम से सच को सच कर दिखाए (16)
और काफ़िरों की जड़ काट दे (17){7}
कि सच को सच करे और झूट को झूट (18)
पड़े बुरा मानें मुजरिम{8} जब तुम अपने रब से फ़रियाद करते थे (19)
तो उसने तुम्हारी सुन ली कि मैं तुम्हें मदद देने वाला हूँ हज़ारों फ़रिश्तों की क़तार से (20){9}
और यह तो अल्लाह ने किया मगर तुम्हारी ख़ुशी को और इसलिये कि तुम्हारे दिल चैन पाएं और मदद नहीं मगर अल्लाह की तरफ़ से (21)
बेशक अल्लाह ग़ालिब हिकमत वाला है {10}

तफ़सीर सूरए अनफ़ाल – पहला रूकू

(1) यह सूरत मदनी है, सिवाय सात आयतों के, जो मक्कए मुकर्रमा में उतरीं और “इज़ यमकुरो बिकल्लज़ीना” से शुरू होती हैं. इसमें नौ रूकू, पछहत्तर आयतें, एक हज़ार पछहतर कलिमे और पाँच हज़ार अस्सी अक्षर हैं.

(2) हज़रत उबादा बिन सामित रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है उन्होंने फ़रमाया कि यह आयत हम बद्र वालों के हक़ में उतरी. जब शत्रु के माल के बारे में हमारे बीच मतभेद हुआ और झगड़े की नौबत आ गई तो अल्लाह तआला ने मामला हमारे हाथ से निकाल कर अपने रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सुपुर्द कर दिया. आपने वह माल बराबर तक़सीम कर दिया.

(3) जैसे चाहें तक़सीम फ़रमाएं.

(4) और आपस में इख़्तिलाफ़ न करो.

(5) तो उसकी अज़मत व जलाल से.

(6) और अपने सारे काम उसके सुपुर्द कर दें.

(7) उनके कर्मों के बराबर, क्योंकि ईमान वालों के एहवाल इन विशेषताओं में अलग अलग हैं इसलिये उनके दर्जें भी अलग अलग हैं.

(8) जो हमेशा इज़्ज़त और सम्मान के साथ बिना मेहनत और मशक्क़त अता की जाए.

(9) यानी मदीनए तैय्यिबह से बद्र की तरफ.

(10) क्योंकि वो देख रहे थे कि उनकी संख्या कम है, हथियार थोड़े हैं, दुश्मन की तादाद भी ज़्यादा है, और वह हथियार वग़ैरह का बड़ा सामान रखता है. मुख़्तसर वाक़िआ यह है कि अबू सुफ़ियान के शाम प्रदेश से एक क़ाफिले के साथ आने की ख़बर पाकर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अपने सहाबा के साथ उनके मुक़ाबले के लिये रवाना हुए. मक्कए मुकर्रमा से अबू जहल क़ुरैश का एक भारी लश्कर लेकर क़ाफ़िले की सहायता के लिये रवाना हुआ. अबू सुफ़ियान तो रास्ते से कतराकर अपने क़ाफ़िले के साथ समन्दर तट की राह चल पड़े. अबू जहल से उसके साथियों ने कहा कि क़ाफ़िला तो बच गया अब मक्का वापस चलें. तो उसने इन्कार कर दिया और वह सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से लड़ने के इरादे से बद्र की तरफ़ चल पड़ा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपने सहाबा से सलाह मशवरा किया और फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने मुझसे वादा फ़रमाया है कि वह काफ़िरों के दोनों गिरोहों में से एक पर मुसलमानों को विजयी करेगा, चाहे क़ाफ़िला हो या क़ुरैश का लश्कर. सहाबा ने इससे सहमति की, मगर कुछ को यह बहाना हुआ कि हम इस तैयारी से नहीं चले थे और न हमारी संख्या इतनी है न हमारे पास काफ़ी हथियार हैं. यह रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को बुरा लगा और हुज़ूर ने फ़रमाया कि क़ाफ़िला तो साहिल की तरफ़ निकल गया और अबू जहल सामने से आ रहा है. इस पर उन लोगों ने फिर अर्ज़ किया या रसूलल्लाह, क़ाफिले का ही पीछा कीजिये और दुश्मन के लश्कर को छोड़ दीजिये. यह बात हुज़ूर के मिज़ाज को नागवार हुई तो हज़रत सिद्दीके अकबर और हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हुमा ने खड़े होकर अपनी महब्बत, फ़रमाँबरदारी और क़ुरबानी की ख़्वाहिश का इज़हार किया और बड़ी क़ुव्वत और मज़बूती के साथ अर्ज़ किया कि वो किसी तरह हुज़ूर की मुबारक मर्ज़ी के ख़िलाफ़ सुस्ती करने वाले नहीं हैं. फिर और सहाबा ने भी अर्ज़ किया कि अल्लाह ने हुज़ूर को जो हुक्म दिया उसके मुताबिक तशरीफ़ ले चलें, हम साथ हैं, कभी पीछे न हटेंगे. हम आप पर ईमान लाए, हमने आपकी तस्दीक़ की, हमने आपके साथ चलने के एहद किये हैं. हमें आपके अनुकरण में समन्दर के अन्दर कूद जाने से भी कोई हिचकिचाहट नहीं है. हुज़ूर ने फ़रमाया, चलो, अल्लाह की बरकत पर भरोसा करो, उसने मुझे वादा दिया है. मैं तुम्हें बशारत देता हूँ. मुझे दुश्मनों के गिरने की जगह नज़र आ रही है. और हुज़ूर ने काफ़िरों के मरने और गिरने की जगहें नाम बनाम बतादीं और एक एक की जगह पर निशानात लगा दिये और यह चमत्कार देखा गया कि उनमें से जो मर कर गिरा उसी निशान पर गिरा, उससे इधर उधर न हुआ.

(11) और कहते थे कि हमें क़ुरैश के लश्कर का हाल ही मालूम न था कि हम उनके मुक़ाबले की तैयारी करके चलते.

(12) यह बात कि हज़रत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम जो कुछ करते हैं अल्लाह के हुक्म से करते हैं और आपने ऐलान फ़रमा दिया है कि मुसलमानों को ग़ैबी मदद पहुंचेगी.

(13) यानी क़ुरैश से मुक़ाबला उन्हें ऐसा भयानक मालूम होता है.

(14) यानी अबू सुफ़ियान के क़ाफ़िले और अबूजहल के लश्कर.

(15) यानी अबू सुफ़ियान का क़ाफ़िला.

(16) सच्चे दीन को ग़लबा दे, उसको ऊंचा और बलन्द करे.

(17) और उन्हें इस तरह हलाक करे कि उनमें से कोई बाक़ी न बचे.

(18) यानी इस्लाम को विजय और मज़बूती अता फ़रमाए और कुफ़्र को मिटाए.

(19) मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है, बद्र के रोज़ रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मुश्रिकों को देखा कि हज़ार हैं और आपके साथी तीन सौ दस से कुछ ज़्यादा, तो हुज़ूर क़िबले की तरफ़ मुतवज्जह हुए और अपने मुबारक हाथ फैला कर अपने रब से यह दुआ करने लगे, यारब, जो तूने मुझसे वादा फ़रमाया है, पूरा कर. यारब, जो तूने मुझसे वादा फ़रमाया, इनायत फ़रमा, यारब, अगर तू एहले इस्लाम की इस जमाअत को हलाक कर देगा, तो ज़मीन में तेरी पूजा नहीं होगी. इसी तरह हुज़ूर दुआ करते रहे यहाँ तक कि आपके कन्धे से चादर शरीफ़ उतर गई तो हज़रत अबूबक्र हाज़िर हुए और चादर मुबारक हुज़ूर के कन्धे पर डाली और अर्ज़ किया, या नबीयल्लाह, आपकी दुआ अपने रब के साथ काफ़ी हो गई. वह बहुत जल्द अपना वादा पूरा फ़रमाएगा. इस पर यह आयत उतरी.

(20) चुनांचे पहले हज़ार फ़रिश्ते आए, फिर तीन हज़ार, फिर पांच हजार. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि मुसलमान उस रोज़ काफ़िरों का पीछा करते थे और काफ़िर मुसलमान के आगे आगे भागता जाता था, अचानक ऊपर से कोड़े की आवाज़ आती थी और सवार का यह कलिमा सुना जाता था “इक़दम ख़ैरोम” यानी आगे बढ एक ख़ैरोम (ख़ैरोम हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम के घोड़े का नाम है) और नज़र आता था कि काफ़िर गिर कर मर गया और उसकी नाक तलवार से उड़ा दी गई और चेहरा ज़ख़्मी हो गया. सहाबा ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अपने यह आँखों देखे मंज़र बयान किये तो हुज़ूर ने फ़रमाया कि यह तीसरे आसमान की मदद है. अबू जहल ने हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो से कहा कि कहाँ से मार आती थी, मारने वाला तो हमको नज़र नहीं आता था. आपने फ़रमाया फ़रिश्तों की तरफ़ से, तो कहने लगा फिर वही तो ग़ालिब हुए, तुम तो ग़ालिब नहीं हुए.

(21) तो बन्दे को चाहिये कि उसी पर भरोसा करे और अपने ज़ोर और कुव्वत और सामान व संख्या पर नाज़ न करे.

8- सूरए अनफ़ाल – दूसरा रूकू

8- सूरए अनफ़ाल – दूसरा रूकू

जब उसने तुम्हें ऊंघ से घेर दिया तो उसकी तरफ़ से चैन थी(1)
और आसमान से तुमपर पानी उतारा कि तुम्हें उससे सुथरा करदे शैतान की नापाकी तुमसे दूर फ़रमादे और तुम्हारे दिलों को ढारस बंधाए और उससे तुम्हारे क़दम जमादे(2){11}
जब ऐ मेहबूब, तुम्हारा रब फ़रिश्तों को वही भेजता था कि मैं तुम्हारे साथ हूँ तुम मुसलमानों को साबित रखो(3)
बहुत जल्द काफ़िरों के दिलों में हैबत डालूंगा तो काफ़िरों की गर्दनों से ऊपर मारो और उनकी एक एक पोर (जोड़) पर चोट लगाओ(4){12}
यह इसलिये कि उन्होंने अल्लाह और उसके रसूल से मुख़ालिफ़त की, और जो अल्लाह और उसके रसूल से मुख़ालिफ़त करे तो बेशक अल्लाह का अज़ाब सख़्त है {13} यह तो चखो(5)
और उसके साथ यह है कि काफ़िरों को आग का अज़ाब है (6){14}
ऐ ईमान वालों जब काफ़िरों के लाम से तुम्हारा मुक़ाबला हो तो उन्हें पीठ न दो (7){15}
और जो उस दिन उन्हें पीठ देगा लड़ाई का हुनर करने या अपनी जमाअत में जा मिलने को तो वह अल्लाह के ग़ज़ब में पलटा और उसका ठिकाना दोज़ख़ है और क्या बुरी जगह पलटने की (8){16}
तो तुमने उन्हें क़त्ल न किया बल्कि अल्लाह ने (9)
उन्हें क़त्ल किया और ऐ मेहबूब वह ख़ाक जो तुमने फैंकी तुमने न फैंकी बल्कि अल्लाह ने फैंकी और इसलिये कि मुसलमानों को उससे अच्छा इनाम अता फ़रमाए, बेशक अल्लाह सुनता जानता है(10){17}
तो लो और उसके साथ यह है कि अल्लाह काफ़िरों का दाव सुस्त करने वाला है {18} ऐ काफ़िरों अगर तुम फ़ैसला मांगते हो तो यह फ़ैसला तुमपर आचुका (11)
और अगर बाज़ आओ तो तुम्हारा भला है(12)
और अगर तुम फिर शरारत करो तो हम फिर सज़ा देंगे और तुम्हारा जत्था तुम्हें कुछ काम न देगा चाहे कितना ही बहुत हो और उसके साथ यह है कि अल्लाह मुसलमानों के साथ है {19}

तफ़सीर सूरए अनफ़ाल -दूसरा रूकू

(1) हज़रत इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि ग़नूदगी अगर जंग में हो तो अम्न है और अल्लाह की तरफ़ से है, और नमाज़ में हो तो शैतान की तरफ़ से है. जंग में ऊंघ का अम्न होना इससे ज़ाहिर है कि जिसे जान का डर हो उसे नींद और ऊंघ नहीं आती, वह ख़तरे और बैचैनी में रहता है. सख़्त डर वक़्त ऊंघ आना, अम्न पाने और डर निकल जाने की दलील है. कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा है कि जब मुसलमानों को डर हुआ और बहुत ज़्यादा प्यास लगी तो उन पर ऊंघ डाल दी गई जिससे उन्हें राहत हासिल हुई और थकान और प्यास दूर हुई और वो दुश्मन से जंग करने पर क़ादिर हुए. यह ऊंघ उनके हक़ में नेअमत थी और एक साथ सबको आई. बड़ी जमाअत का सख़्त डर की हालत में इस तरह एक साथ ऊंघ जाना, ख़िलाफ़े आदत है. इसलिये कुछ उलमा ने फ़रमाया, यह ऊंघ चमत्कार के हुक्म में है. (ख़ाज़िन)

(2) बद्र के दिन मुसलमान रेगिस्तान में उतरे. उनके और उनके जानवरों के पाँव रेत में धंस जाते थे और मुश्रिक उनसे पहले पानी पर क़ब्ज़ा कर चुके थे. सहाबा में कुछ हज़रात को वुज़ू की, कुछ को ग़ुस्ल की ज़रूरत थी और प्यास की सख़्ती थी, तो शैतान ने वसवसा डाला कि तुम गुमान करते हो कि तुम हक़ पर हो, तुम में अल्लाह के नबी हैं और तुम अल्लाह वाले हो और हाल यह है कि मुश्रिक लोग ग़ालिब होकर पानी पर पहुंच गए, तुम बग़ैर वुज़ू और ग़ुस्ल किये नमाज़ें पढ़ते हो तो तुम्हें दुश्मन पर विजयी होने की किस तरह उम्मीद है. तो अल्लाह तआला ने मेंह भेजा जिससे जंगल सैराब हो गया और मुसलमानों ने उससे पानी पिया और ग़ुस्ल किये और वुज़ू किये और अपनी सवारियों को पिलाया और अपने बर्तनों को भरा और ग़ुबार बैठ गया, ज़मीन इस क़ाबिल हो गई कि उस पर क़दम जमने लगे और यह नेअमत विजय और कामयाबी हासिल होने की दलील है.

(3) उनकी मदद करके और उन्हें बशारत दे कर.

(4) अबूदाउद ज़मानी, जो बद्र में हाज़िर हुए थे, फ़रमाते हैं कि मैं मुश्रिक की गर्दन मारने के लिये उसके दरपे हुआ. उसका सर मेरी तलवार पहुंचने से पहले ही कट कर गिर गया, तो मैंने जान लिया कि उसको किसी और ने क़त्ल किया. सहल बिन हनीफ़ फ़रमाते हैं कि बद्र के दिन हम में से कोई तलवार से इशारा करता था तो उसकी तलवार पहुंचने से पहले ही मुश्रिक का सर जिस्म से जुदा होकर गिर जाता था. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने एक मुठ्ठी कंकरियाँ काफ़िरों पर फैंक कर मारीं तो कोई काफ़िर ऐसा न बचा जिसकी आँख़ों में उसमें से कुछ पड़ा न हो. बद्र का यह वाक़िआ शुक्रवार की सुबह सत्तरह रमज़ान सन दो हिजरी में पेश आया.

(5) जो बद्र में पेश आया और काफ़िर मक़तूल और क़ैद हुए, यह तो दुनिया का अज़ाब है.

(6) आख़िरत में.

(7) यानी अगर काफ़िर तुमसे ज़्यादा भी हों तो उनके मुक़ाबले से न भागो.

(8) यानी मुसलमानों में से जो जंग में काफ़िरों के मुक़ाबले से भागा वह अल्लाह के ग़ज़ब में गिरफ़्तार हुआ, उसका ठिकाना दोज़ख़ है. सिवाय दो हालतों के, एक तो यह कि लड़ाई का हुनर या कर्तब करने के लिये पीछे हटा हो, वह पीठ देने और भागने वाला नहीं है. दूसरे, जो अपनी जमाअत में मिलने के लिये पीछे हटा, वह भी भागने वाला नहीं समझा जाएगा.

(9) जब मुसलमान बद्र की लड़ाई से लौटे तो उनमें से एक कहता था कि मैं ने फ़लाँ को क़त्ल किया दूसरा कहता कि मैंने उसको क़त्ल किया. इस पर यह आयत उतरी और फ़रमाया गया कि इस क़त्ल को तुम अपने ज़ोर और क़ुव्वत से मत जोड़ो कि हक़ीक़त में अल्लाह की मदद और उसकी तक़वियत और ताईद है.

(10) विजय और कामयाबी.

(11) यह सम्बोधन मुश्रिकों से हैं जिन्होंने बद्र में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से जंग की और उनमें से अबू जहल ने अपनी और हुज़ूर की निस्बत यह दुआ कि यारब हम मे जो तेरे नज़दीक अच्छा हो, उसकी मदद कर और जो बुरा हो, उसे मुसीबत में जकड़. और एक रिवायत में है कि मुश्रिकों ने मक्कए मुकर्रमा से बद्र को चलते वक़्त काबए मुअज़्ज़मा के पर्दों से लिपट कर यह दुआ की थी कि यारब अगर मुहम्मद सच्चाई पर हों, तो उनकी मदद फ़रमा और अगर हम हक़ पर हैं, तो हमारी मदद कर. इस पर यह आयत उतरी कि जो फ़ैसला तुमने चाहा था वह कर दिया गया और जो समूह सच्चाई पर था, उसको विजय दी गई. यह तुम्हारा मांगा हुआ फ़ैसला है. अब आसमानी फ़ैसले से भी, जो उनका तलब किया हुआ था, इस्लाम की सच्चाई साबित हुई. अबू जहल भी इस जंग में ज़िल्लत और रूस्वाई के साथ मारा गया और उसका सर रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में हाज़िर किया गया.

(12) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ दुश्मनी और हुज़ूर के साथ जंग करने से.

8- सूरए अनफ़ाल – तीसरा रूकू

8- सूरए अनफ़ाल – तीसरा रूकू

ऐ ईमान वालो अल्लाह और उसके रसूल का हुक्म मानो(1)
और सुन सुनाकर उससे न फिरो  {20} और उन जैसे न होना जिन्हों ने कहा हमने सुना और वो नहीं सुनते(2){21}
बेशक सब जानवरों में बदतर अल्लाह के नज़दीक वो हैं जो बहरे गूंगे हैं जिनको अक़्ल नहीं(3){22}
और अगर अल्लाह उन्हें कुछ भलाई(4)
जानता तो उन्हें सुना देता और अगर (5)
सुना देता जब भी आख़िर मुंह फेर कर पलट जाते (6){23}
ऐ ईमान वालों अल्लाह और रसूल के बुलाने पर हाज़िर हो (7)
जब रसूल तुम्हें उस चीज़ के लिये बुलाएं जो तुम्हें ज़िन्दगी बख़्शेगी(8)
और जान लो कि अल्लाह का हुक्म आदमी और उसके दिली इरादों से हायल (बाधक) हो जाता है और यह कि तुम्हें उसकी तरफ़ उठना है {24} और उस फ़ितने से डरते रहो जो हरगिज़ तुम में ख़ालिस ज़ालिमों को ही न पहुंचेगा(9)
और जान लो कि अल्लाह का अज़ाब सख़्त है{25} और याद करो (10)
जब तुम थोड़े थे मुल्क में दबे हुए (11)
डरते थे कहीं लोग तुम्हें अचानक न ले जाएं तो उसने तुम्हें (12)
जगह दी और अपनी मदद से ज़ोर दिया और सुथरी चीज़ें तुम्हें रोज़ी दें (13)
कि कहीं तुम एहसान मानो{26} ऐ ईमान वालों अल्लाह और रसूल से दग़ा न करो (14)
और न अपनी अमानतों में जान बूझकर ख़यानत {27} और जान रखो कि तुम्हारे माल और तुम्हारी औलाद सब फ़ितने हैं (15)
और अल्लाह के पास बड़ा सवाब है (16){28}

तफ़सीर सूरए अनफ़ाल -तीसरा रूकू

(1) क्योंकि रसूल की फ़रमाँबरदारी और अल्लाह की फ़रमाँबरदारी एक ही चीज़ है, जिसने रसूल की इताअत की, उसने अल्लाह की इताअत की.

(2) क्योंकि जो सुनकर फ़ायदा न उठाए, और नसीहत हासिल न करे, उसका सुनना सुनना ही नहीं है. यह मुनाफ़िक़ों और मुश्रिकों का हाल है. मुसलमानों को इस हाल से दूर रहने का हुक्म दिया जाता है.

(3) न वो सत्य सुनते हैं, न सत्य बोलते हैं, न सच्चाई को समझते हैं, कान और ज़बान और अक़्ल से फ़ायदा नहीं उठाते. जानवरों से भी गए गुज़रे हैं. क्योंकि वो जान बूझकर बहरे गूंगे बनते हैं और अक़्ल से दुश्मनी करते हैं. यह आयत बनी अब्दुद दार बिन कुसई के हक़ में उतरी जो कहते थे कि जो कुछ मुहम्मद लाए, हम उससे बहरे गूंगे अंधे हैं. ये सब लोग उहद की लड़ाई में मारे गए और उनमें से सिर्फ़ दो व्यक्ति ईमान लाए, मुसअब बिन उमैर और सुवैबित बिन हुरमला.

(4) यानी सिद्क़ और रग़बत.

(5) मौजूदा हालत में, यह जानते हुए, कि उनमें सिद्क़ और रग़बत नहीं है.

(6) क्योंकि दुशमनी, और सच्चाई से विरोध के कारण.

(7) क्योंकि रसूल का बुलाना अल्लाह ही का बुलाना हैं. बुख़ारी शरीफ़ में सईद बिन मुअल्ला से रिवायत है, फ़रमाते हैं कि मैं मस्जिद में नमाज़ पढ़ता था, मुझे रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने पुकारा. मैं ने जवाब न दिया. फिर मैं ने ख़िदमत में हाज़िर होकर अर्ज़ किया या रसूलल्लाह, मैं नमाज़ पढ़ रहा था. हुज़ूर ने फ़रमाया, क्या अल्लाह तआला ने यह नहीं फ़रमाया है कि अल्लाह और रसूल के बुलाने पर हाज़िर हो. ऐसा ही दूसरी हदीस शरीफ़ में है कि हज़रत उबई बिन कअब नमाज़ पढ़ते थे. हुज़ूर ने उन्हें पुकारा. उन्हों ने जल्दी नमाज़ पूरी करके सलाम अर्ज़ किया. हुज़ूर ने फ़रमाया तुम्हें जवाब देने से किस चीज़ ने रोका. अर्ज़ किया, हुज़ूर मैं नमाज़ में था. हुज़ूर ने फ़रमाया, क्या तुमने क़ुरआन पाक में यह नहीं पाया कि अल्लाह और रसूल के बुलाने पर हाज़िर हो. अर्ज़ किया, बेशक, आयन्दा ऐसा न होगा.

(8) इस चीज़ से या ईमान मुराद है, क्योंकि काफ़िर मुर्दा होता है, ईमान से उसको ज़िन्दगी हासिल होती है. क़तादा ने कहा कि वह चीज़ क़ुरआन है, क्योंकि इससे दिलों की ज़िन्दगी है और इसमें निजात है, और दोनों जगत की इस्मत है. मुहम्मद बिन इस्हाक़ ने कहा कि वह चीज़ जिहाद है, क्योंकि उसकी बदौलत अल्लाह तआला ज़िल्लत के बाद इज़्ज़त अता फ़रमाता है. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि वह शहादत है, इसलिये कि शहीद अपने रब के नज़दीक ज़िन्दा हैं.

(9) बल्कि अगर तुम उससे न डरे और उसके कारणों यानी ममनूआत को तर्क न किया और वह फ़ितना नाज़िल हुआ तो यह न होगा कि उसमें ख़ास ज़ालिम और बदकार ही जकड़े हों बल्कि वह नेक और बद सबको पहुंच जाएगा. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ने ईमान वालों को हुक्म दिया कि वो अपने बीच ममनूआत न होने दें, यानी अपनी ताक़त भर बुराइयों को रोकें और गुनाह करने वालों को गुनाह से मना करें. अगर उन्हों ने ऐसा न किया तो अज़ाब उन सब को आम होगा. ख़ताकार और ग़ैर ख़ताकार सबको पहुंचेगा. हदीस शरीफ़ में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला ख़ास लोगों के अमल पर आम अज़ाब नहीं करता जबतक कि आम तौर पर लोग ऐसा न करें कि ममनूआत को अपने बीच होता देखते रहे और उसके रोकने और मना करने पर क़ादिर हों, इसके बावुजूद न रोकें, न मना करें. जब ऐसा होता है तो अल्लाह तआला अज़ाब में ख़ास और आम सब को जकड़ता है. अबू दाऊद की हदीस में है कि जो शख़्स किसी क़ौम में बुराई में सक्रिय हो और वो लोग क़ुदरत के बावुजूद उसको न रोकें, तो अल्लाह तआला उन्हें मरने से पहले अज़ाब में जकड़ता है. इससे मालूम हुआ कि जो क़ौम अल्लाह की मना की हुई चीज़ों से नहीं रूकती, और लोगों को गुनाहों से नहीं रोकती, वह अपने इस फ़र्ज़ के छोड़ने की सज़ा में अज़ाब में जकड़ी जाती है.

(10) ऐ ईमान वाले मुहाजिरीन, इस्लाम के शुरू में हिजरत करने से पहले मक्कए मुकर्रमा में.

(11) क़ुरैश तुमपर ग़ालिब थे और तुम.

(12) मदीनए तैय्यिबह में.

(13) यानी ग़नीमत के माल, जो तुमसे पहले किसी उम्मत के लिये हलाल नहीं किये गए थे.

(14) फ़र्ज़ों का छोड़ देना अल्लाह तआला से ख़यानत करना है और सुन्नत का तर्क करना रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से. यह आयत अबू लुबाबा हारून बिन अब्दुल मुन्ज़र अन्सारी के हक़ में नाज़िल हुई. वाक़िआ यह था कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने बनी क़ुरैज़ा के यहूदियों का दो हफ़्ते से ज़्यादा समय तक घिराव किया. वो इस घिराव से तंग आ गए और उनके दिल डर गए, तो उनसे उनके सरदार कअब बिन असद ने यह कहा कि अब तीन शक्लें हैं, या तो उस शख़्स यानी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तस्दीक़ करो और उनकी बैअत कर लो, क्योंकि ख़ुदा की क़सम, वह अल्लाह के भेजे हुए नबी हैं, यह ज़ाहिर हो चुका. और यह वही रसूल हैं जिनका ज़िक्र तुम्हारी किताब में है. उन पर ईमान ले आए, तो जान माल आल औलाद सब मेहफ़ूज रहेंगे. मगर इस बात को क़ौम ने न माना तो कअब ने दूसरी शक्ल पेश की और कहा कि तुम अगर इसे नहीं मानते तो आओ पहले हम अपने बीबी बच्चों को क़त्ल कर दें फिर तलवारें खींचकर मुहम्मद और उनके साथियों के मुक़ाबले में आएं कि अगर हम इस मुक़ाबले में हलाक भी हो जाएं तो हमारे साथ अपने बाल बच्चों का ग़म तो न रहे. इस पर क़ौम ने कहा कि बाल बच्चों के बाद जीना ही किस काम का. तो कअब ने कहा कि यह भी मंजूर नहीं है तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से सुलह की दरख़्वास्त करो, शायद उसमें बेहतरी की कोई सूरत निकल आए. तो उन्होंने हुज़ूर से सुलह की दरख़्वास्त की लेकिन हुज़ूर ने मंज़ूर नहीं फ़रमाया, सिवाय इसके कि अपने हक़ में सअद बिन मआज़ के फ़ैसले को मंज़ूर करें. इस पर उन्होंने कहा कि हमारे पास अबू लुबाबा को भेज दीजिये क्योंकि अबू लुबाबा से उनके सम्बन्ध थे और अबू लुबाबा का माल और उनकी औलाद और उनके बाल बच्चे सब बनी क़ुरैज़ा के पास थे. हुज़ूर ने अबू लुबाबा को भेज दिया. बनी क़ुरैज़ा ने उनसे राय दरियाफ़्त की कि क्या हम सअद बिन मआज़ का फ़ैसला मंज़ूर करलें कि जो कुछ वो हमारे हक़ में फ़ैसला दें वह हमें क़ुबूल हो. अबू लुबाबा ने अपनी गर्दन पर हाथ फेर कर इशारा किया कि यह तो गले कटवाने की बात है. अबू लुबाबा कहते हैं कि मेरे क़दम अपनी जगह से हटने न पाए थे कि मेरे दिल में यह बात जम गई कि मुझसे अल्लाह और उसके रसूल की ख़यानत वाक़े हुई. यह सोचकर वह हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में तो न आए, सीधे मस्जिद शरीफ़ पहुंचे और मस्जिद शरीफ़ के एक सुतून से अपने आपको बंधवा लिया और अल्लाह की क़सम खाई कि न कुछ खाएंगे न पियेंगे यहाँ तक कि मर जाएं या अल्लाह तआला उनकी तौबह क़ुबूल करें. समय समय पर उनकी बीबी आकर उन्हें नमाज़ों के लिये और इन्सानी हाजतों के लिये खोल दिया करतीं और फिर बांध दिये जाते थे. हुज़ूर को जब यह ख़बर पहुंची तो फ़रमाया कि अबू लुबाबा मेरे पास आते तो मैं उनके लिये मग़फ़िरत की दुआ करता लेकिन जब उन्होंने यह किया है तो मैं उन्हें न खोलूंगा जब तक अल्लाह तआला उनकी तौबह क़ुबूल न करे. वह सात दिन बंधे रहे, न कुछ खाया न पिया. यहाँ तक कि बेहोश होकर गिर गए. फिर अल्लाह तआला ने उनकी तौबह क़ुबूल की. सहाबा ने उन्हें तौबह क़ुबूल होने की ख़ुशख़बरी दी तो उन्होंने कहा मैं ख़ुदा की क़सम न खुलूँगा जब तक रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मुझे ख़ुद न खोलें. हज़रत ने उन्हें अपने मुबारक हाथों से खोल दिया. अबू लुबाबा ने कहा, मेरी तौबह उस वक़्त पूरी होगी जब मैं अपनी क़ौम की बस्ती छोड दूँ जिसमें मुझ से यह ख़ता सरज़द हुई और मैं अपने कुल माल को अपनी मिल्क से निकाल दूँ. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, तिहाई माल का सदक़ा करना काफ़ी है. उनके बारे में यह आयत उतरी.

(15) कि आख़िरत के कामों में रूकावट बनता है.

(16) तो समझ वाले को चाहिये कि उसी का तलबगार रहे और माल व औलाद के कारण उससे मेहरूम न हो.

8- सूरए अनफ़ाल – चौथा रूकू

8- सूरए अनफ़ाल – चौथा रूकू

ऐ ईमान वालो अल्लाह से डरोगे(1)
तो तुम्हें वह देगा जिस से हक़ (सत्य) को बातिल (झूट) से अलग कर लो और तुम्हारी बुराइयां उतार देगा और तुम्हें बख़्श देगा और अल्लाह बड़े फ़ज़्ल (बुज़ुर्गी) वाला है {29}  और ऐ मेहबूब! याद करो जब काफ़िर तुम्हारे साथ धोखा करते थे कि तुम्हें बन्द करलें या शहीद करदें या निकाल दें (2)
और वो अपना सा धोखा करते थे और अल्लाह अपनी छुपवां तदबीर फ़रमाता था और अल्लाह की छुपवाँ तदबीर सबसे बेहतर {30} और जब उनपर हमारी आयतें पढ़ी जाएं तो कहते हैं हाँ हमने सुना हम चाहते तो ऐसी हम भी कह देते यह तो नहीं मगर अगलों के क़िस्से (3){31}
और जब बोले (4)
कि ऐ अल्लाह अगर यही (क़ुरआन) तेरी तरफ़ से हक़ है तो हमपर आसमान से पत्थर बरसा या कोई दर्दनाक अज़ाब हम पर ला {32} और अल्लाह का काम नहीं कि उन्हें अज़ाब करे जब तक ऐ मेहबूब तुम उन में तशरीफ़ फ़रमा हो (5)
और अल्लाह उन्हें अज़ाब करने वाला नहीं जब तक वो बख़्शिश मांग रहे हैं (6){33}
और उन्हें कया है कि अल्लाह उन्हें अज़ाब न करे वो तो मस्जिदे हराम से रोक रहे हैं (7)
और वो इसके अहल (योग्य) नहीं (8)
इसके औलिया तो परहेज़गार ही हैं मगर उनमें अक्सर को इल्म नहीं {34} और काबे के पास उनकी नमाज़ नहीं मगर सीटी और ताली (9)
तो अब अज़ाब चखो(10)
बदला अपने कुफ़्र का {35} बेशक काफ़िर अपने माल खर्च करते हैं कि अल्लाह की राह से रोकें (11)
तो अब उन्हें ख़र्च करेंगे फर भी उनपर पछतावा होंगे (12)
फिर मग़लूब(पराजित) कर दिये जाएंगे, और काफ़िरों का हश्र(अंजाम) जहन्नम की तरफ़ होगा{36} इसलिये कि अल्लाह गन्दे को सुथरे से अलग फ़रमा दे (13)
और निजासतों (गन्दगियों) को तले ऊपर रखकर सब एक ढेर बनाकर जहन्नम में डाल दे वही नुक़सान पाने वाले हैं(14){37

तफ़सीर सूरए अनफ़ाल -चौथा रूकू

(1) इस तरह कि गुनाह छोड़ो और ताअत बजा लाओ.

(2) इसमें उस घटना का बयान है जो हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाई कि क़ुरैश के काफ़िर कमेटी घर (दारून नदवा) में रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की निस्बत मशवरा करने के लिये जमा हुए. इब्लीसे लईन एक बूढ़े की सूरत में आया और कहने लगा कि मैं नज्द का शैख़ हूँ मुझे तुम्हारे इस इज्तिमाअ या सम्मेलन की सूचना मिली तो मैं आया. मुझसे तुम कुछ न छुपाना. मैं तुम्हारा दोस्त हूँ और इस मामले में बेहतर राय से तुम्हारी मदद करूंगा. उन्होंने उसको शामिल कर लिया और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के बारे में रायज़नी शुरू हुई. अबुल बख़्तरी ने कहा कि मेरी राय यह है कि मुहम्मद को पकड़कर एक मकान में क़ैद कर दो और मज़बूत बन्धनों से बांध दो और दरवाज़ा बन्द कर दो, सिर्फ़ एक सूराख़ छोड़ दो जिससे कभी कभी खाना पानी दिया जाए और वहीं हलाक होकर रह जाएं. इस पर शैतान लईन जो नज्द का शैख़ बना हुआ था, बहुत नाख़ुश हुआ और कहा अत्यन्त बुरी राय है. यह ख़बर मशहूर होगी और उनके साथी आएंगे और तुमसे मुक़ाबला करेंगे और उनको तुम्हारे हाथ से छुड़ा लेंगे. लोगों ने कहा, शैख़े नज्दी ठीक कहता है. फिर हिशाम बिन अम्र खड़ा हुआ. उसने कहा मेरी राय यह है कि उनको ऊंट पर सवार करके अपने शहर से निकाल दो, फिर वह जो कुछ भी करें, उससे तुम्हें कुछ नुक़सान नहीं. इब्लीस ने इस राय को भी नापसन्द किया और कहा, जिस शख़्स ने तुम्हारे होश उड़ा दिये और तुम्हारे बुद्धिमानों को हैरान कर दिया, उसको तुम दूसरों की तरफ़ भेजते हो. तुमने उसकी मीठी ज़बान, तलवार की तरह काट करने वाले बोल, और दिलकशी नहीं देखी है, अगर तुमने ऐसा किया तो वह दूसरी क़ौम के दिलो को अपने क़ाबू में कर के उन लोगों के साथ तुम पर चढ़ाई करेंगे. सबने कहा शैख़े नज्दी की राय ठीक मालूम होती है. इस पर अबू जहल खड़ा हुआ और उसने यह राय दी कि क़ुरैश के हर ख़ानदान से एक एक अच्छे नसब वाला जवान चुना जाए और उनको तेज़ तलवारें दी जाएं. वो सब एक बार में मुहम्मद पर हमला करके क़त्ल कर दें तो बनी हाशिम क़ुरैश के सारे क़बीलों से न लड़ सकेंगे. ज़्यादा से ज़्यादा यह है कि ख़ून का मुआविज़ा देना पड़ेगा, वह दे देंगे. इब्लीसे लईन ने इस प्रस्ताव को पसन्द किया और अबू जहल की बहुत तारीफ़ की और इसी पर सब की सहमति हो गई. हज़रत जिब्रील अलैहिस्सलाम ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर होकर वाक़िआ अर्ज़ किया और अर्ज़ किया कि हुज़ूर अपनी ख़्वाबगाह में रात को न रहें. अल्लाह तआला ने हुक्म दिया है कि मदीनए तैय्यिबह का इरादा फ़रमाएं. हुज़ूर ने अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो को रात में अपने बिस्तर पर रहने का हुक्म दिया और फ़रमाया कि हमारी चादर ओढ़ो, तुम्हें कोई नागवार बात पेश न आएगी. हुज़ूर अपने मकान से बाहर तशरीफ़ लाएं और एक मुठ्ठी धूल दस्ते मुबारक में ली और आयत “इन्ना जअलना फ़ी अअनाक़िहिम अग़लालन—“ पढ़कर घिराव करने वालों पर मारी. सब की आँखों और सरों पर पहुंची, सब अंधे हो गए और हुज़ूर को न देख सके और हुज़ूर हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ के साथ ग़ारे सौर में तशरीफ़ ले गए और हज़रत अली को लोगों की अमानते पहुंचाने के लिये मक्कए मुकर्रमा में छोड़ा. मुश्रिक रात भर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मकान का पेहरा देते रहे. सुब्ह को जब क़त्ल के इरादे से आक्रमण किया तो देखा कि हज़रत अली हैं. उनसे हुज़ूर को दरियाफ़्त किया कि कहाँ हैं. उन्होंने फ़रमाया, हमें मालूम नहीं. तो तलाश के लिये निकलें. जब ग़ार पर पहुंचे तो मकड़ी के जाले देखकर कहने लगे कि अगर इसमें दाख़िल होते तो ये जाले बाक़ी न रहते. हुज़ूर इस ग़ार में तीन दिन रहे फिर मदीने को रवाना हुए.

(3) यह आयत नज़र बिन हारिस के हक़ में उतरी जिसने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से क़ुरआने पाक सुनकर कहा था कि हम चाहते तो हम भी ऐसी ही किताब कह लेते. अल्लाह तआला ने उनका यह कथन नक़्ल किया कि इसमें उनकी हद दर्जें की बेहयाई और बेशर्मी है कि क़ुरआने पाक की फ़साहत और बलाग़त देखने और अरब के चोटी के विद्वानों को क़ुरआने करीम जैसी एक सूरत बना लाने की चुनौती देने और उन सब के अपना सा मुंह लेकर रह जाने के बाद नज़र बिन हारिस का यह कलिमा कहना और ऐसा झूटा दावा करना निहायत ज़लील हरकत है.

(4) काफ़िर, और उनमें यह कहने वाला या नज़र बिन हारिस था या अबू जहल, जैसा कि बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है.

(5) क्योंकि रहमतुल-लिल-आलमीन बनाकर भेजे गए हो और अल्लाह की सुन्नत यह है कि जब तक किसी क़ौम में उसके नबी मौजूद हों, उन पर आम बर्बादी का अज़ाब नहीं भेजता, जिसके कारण सब के सब हलाक़ हो जाएं और कोई न बचे. मुफ़स्सिरों की एक जमाअत का क़ौल है कि यह आयत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर उस वक़्त उतरी जब आप मक्कए मुकर्रमा में मुक़ीम थे फिर जब आपने हिजरत फ़रमाई और कुछ मुसलमान रह गए, जो इस्तग़फ़ार किया करते थे तो “वमा कानल्लाहो मुअज़्ज़िबहुम” नाज़िल हुआ जिसमें बताया गया कि जब तक इस्तग़फ़ार करने वाले ईमानदार मौजूद रहेंगे उस वक़्त तक भी अज़ाब न आएगा. फिर जब वो हज़रात भी मदीनए तैय्यिबह को रवाना हो गए तो अल्लाह तआला ने मक्का की विजय का इज़्न दिया और ये अज़ाबे मौऊद आ गया, जिसकी निस्बत इस आयत में फ़रमाया “वमा लहुम अल्ला युअज़्ज़िबहुमुल्लाह”. मुहम्मद बिन इस्हाक़ ने कहा कि “मा कानल्लाहो लियुअज़्ज़िबहुम” भी काफ़िरों का क़ौल है जो उनसे हिकायत के तौर पर नक़्ल किया गया है. अल्लाह अज़्ज़ व जल्ल ने उनकी जिहालत का ज़िक्र फ़रमाया कि इस क़द्र अहमक़ हैं. आप ही तो यह कहते हैं कि यारब, ये तेरी तरफ़ से हक़ है तो हम पर नाज़िल कर और आप ही यह कहते हैं कि या मुहम्मद, जब तक आप हैं अज़ाब नाज़िल न होगा, क्योंकि कोई उम्मत अपने नबी की मौजूदगी में हलाक नहीं की जाती.

(6) इस आयत से साबित हुआ कि इस्तग़फ़ार अज़ाब से अम्न में रहने का ज़रिया है. हदीस शरीफ़ में है कि अल्लाह तआला ने मेरी उम्मत के लिये दो अमानें उतारीं, एक मेरा उनमें तशरीफ़ फ़रमा होना, एक उनका इस्तग़फ़ार करना.

(7) और ईमान वालों को काबे के तवाफ़ के लिये नहीं आने देते, जैसा कि हुदैबियह की घटना के साल सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके सहाबा को रोक.

(8) और काबे के प्रबन्ध में हिस्सा लेने का कोई इख़्तियार नहीं रखते क्योंकि मुश्रिक हैं.

(9) यानी नमाज़ की जगह सीटी और ताली बजाते हैं. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि क़ुरैश नंगे होकर ख़ानए काबा का तवाफ़ करते थे और सीटियाँ तालियाँ बजाते थे और ये काम उनका या तो अक़ीदे से था कि सीटी और ताली बजाना इबादत है, या इस शरारत से कि सैयदे आलम (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) को नमाज़ में परेशानी हो.

(10) क़त्ल और क़ैद का, बद्र में.

(11) यानी लोगों को अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाने से रोकें. यह आयत काफ़िरों में से उन बारह क़ुरैशियों के बारे में उतरी जिन्हों ने काफ़िर लश्कर का खाना अपने ज़िम्मे लिया था और हर एक उनमें से लशकर को रवाना देता था हर रोज़ दस ऊंट.

(12) कि माल भी गया और काम भी न बना.

(13) यानी अगर वह काफ़िरों को ईमान वालों से मुमताज़ कर दे.

(14) कि दुनिया और आख़िरत के टोटे में रहे और अपने माल ख़र्च करके आख़िरत का अज़ाब मोल लिया.

8- सूरए अनफ़ाल – पांचवाँ रूकू

8- सूरए अनफ़ाल – पांचवाँ रूकू

तुम काफ़िरों से फ़रमाओ अगर वो बाज़ रहे तो जो हो गुज़रा वह उन्हें माफ़ कर दिया जाएगा(1)
और अगर फिर वही करें तो अगलों का दस्तूर (तरीक़ा) गुज़र चुका (2){38}
और अगर उनसे लड़ो यहाँ तक कि कोई फ़साद (3)
बाक़ी न रहे और सारा दीन अल्लाह का होजाए फिर अगर वो बाज़ रहें तो अल्लाह उनके काम देख रहा है {39} और अगर वो फिरें (4)
तो जान लो कि अल्लाह तुम्हारा मौला है(5)
तो क्या ही अच्छा मौला और क्या ही अच्छा मददगार{40}

दसवाँ पारा – वअलमू
(सूरए अनफ़ाल जारी)

और जान लो कि जो कुछ ग़नीमत (युद्ध के बाद हाथ आया माल) लो (6)
तो उसका पांचवाँ हिस्सा ख़ास अल्लाह और रसूल और क़राबत (रिशतेदार) वालों और यतीमों और मोहताजों और मुसाफ़िरों का है (7)
अगर तुम ईमान लाए हो अल्लाह पर और उसपर जो हमने अपने बन्दे पर फ़ैसले के दिन उतारा जिसमें दोनों फ़ौजें मिली थीं (8)
और अल्लाह सब कुछ कर सकता है {41} जब तुम नाले के किनारे थे (9)
और काफ़िर परले किनारे और क़ाफ़िला (10)
तुमसे तराई में(11)
और अगर तुम आपस में कोई वादा करते तो ज़रूर वक़्त पर बराबर न पहुंचते (12)
लेकिन यह इसलिये कि अल्लाह पूरा करे जो काम होना है (13)
कि जो हलाक हो दलील से हलाक हो(14)
और जो जिये दलील से जिये(15)
और बेशक अल्लाह ज़रूर सुनता है{42} जब कि ऐ मेहबूब अल्लाह तुम्हें काफ़िरों को तुम्हारे ख़्वाब में थोड़ा दिखाता था (16)
और ऐ मुसलमानो अगर वह तुम्हें बहुत करके दिखाता तो ज़रूर तुम बुज़दिली करते और मामले में झगड़ा डालते(17)
मगर अल्लाह ने बचा लिया (18)
बेशक वह दिलों की बात जानता है {43} और जब लड़ते वक़्त (19)
तुम्हें करके दिखाए(20)
और तुम्हें उनकी निगाहों में थोड़ा किया (21)
कि अल्लाह पूरा करे जो काम होना है (22)
और अल्लाह की तरफ़ सब काम पलटने वाले हैं {44}

तफ़सीर सूरए अनफ़ाल -पांचवां  रूकू

(1) इस आयत से मालूम हुआ कि काफ़िर जब कुफ़्र से बाज़ आए और इस्लाम लाए तो उसका पहला कुफ़्र और गुनाह माफ़ हो जाते हैं.

(2) कि अल्लाह तआला अपने दुश्मनों को हलाक करता है और अपने नबियों और वलियों की मदद करता है.

(3) ग़नी शिर्क.

(4) ईमान लाने से.

(5) तुम उसकी मदद पर भरोसा रखो.

पारा नौ समाप्त
सूरए अनफ़ाल पाँचवाँ रूकू (जारी)

(6) चाहे कम या ज़्यादा, ग़नीमत वह माल है जो मुसलमानों को काफ़िरों से जंग में विजय के बाद हासिल हो. माले ग़नीमत पाँच हिस्सों पर तक़सीम किया जाए. इसमें से चार हिस्से लड़ने वालों के लिये.

(7) ग़नीमत का पाँचवा हिस्सा, फिर पाँच हिस्सों पर तक़सीम होगा. इनमें से एक हिस्सा जो कुल माल का पच्चीसवाँ हिस्सा हुआ, वह हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के लिये है. और एक हिस्सा आपके एहले क़राबत के लिये. और तीन हिस्से यतीमों और मिस्कीनों मुसाफ़िरों के लिये. रसूले करीम के बाद हुज़ूर और आपके एहले क़राबत के हिस्से भी यतीमों और मिस्कीनों और मुसाफ़िरों को मिलेंगे और यह पाँचवाँ हिस्सा इन्ही तीन पर तक़सीम हो जाएगा. यही क़ौल है इमाम आज़म अबू हनीफ़ा रदियल्लाहो अन्हो का.

(8) इस दिन से बद्र का दिन मुराद है और दोनों फ़ौजों से मुसलमानों और काफ़िरों की फ़ौजें. और यह घटना सत्रह या उन्नीस रमजा़न को पेश आई. रसूलल्लाह के सहाबा की संख्या तीन सौ दस से कुछ ज़्यादा थी और मुश्रिक हज़ार के क़रीब थे. अल्लाह तआला ने उन्हें परास्त किया. उनमें से सत्तर से ज़्यादा मारे गए और इतने ही गिरफ़्तार हुए.

(9) जो मदीनए तैय्यिबह की तरफ़ है.

(10) क़ुरैश का, जिसमें अबू सुफ़ियान वग़ैरह थे.

(11) तीन मील के फ़ासले पर समु्द्र तट की तरफ़.

(12) यानी अगर तुम और वो आपस में जंग का कोई समय निर्धारित करते, फिर तुम्हें अपनी अल्पसंख्या और बेसामानी और उनकी कसरत और सामान का हाल मालूम होता तो ज़रूर तुम दहशत और अन्देशे से मीआद में इख़्तिलाफ़ करते.

(13) यानी इस्लाम और मुसलमानों की जीत और दीन का सम्मान और दीन के दुश्मनों की हलाकत, इसलिये तुम्हें उसने बे मीआदी जमा कर दिया.

(14) यानी खुला तर्क क़ायम होने और इबरत का मुआयना कर लेने के बाद.

(15) मुहम्मद बिन इस्हाक़ ने कहा कि हलाक से कुफ़्र और हयात से ईमान मुराद है. मानी ये हैं कि जो कोई काफ़िर हो, उसको चाहिये कि पहले हुज्जत या तर्क क़ायम करे और ऐसे ही जो ईमान लाए वह यक़ीन के साथ ईमान लाए और हुज्ज्त एवं दलील से जान ले कि यह सच्चा दीन है. बद्र का वाक़िआ खुली निशानियों में से है. इसके बाद जिसने कुफ़्र इख़्तियार किया वह घमण्डी है और अपने नफ़्स को धोखा देता है.

(16) यह, अल्लाह तआला की नेअमत थी कि नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को काफ़िरों की संख्या थोड़ी दिखाई गई और आपने अपना यह ख़्वाब सहाबा से बयान किया. इससे उनकी हिम्मतें बढ़ीं और अपनी कम ताक़ती का अन्देशा न रहा और उन्हें दुश्मन पर जुरअत पैदा हुई और दिल मज़बूत हुए. नबियों का ख़्वाब सच्चा होता है. आपको काफ़िर दिखाए गए थे और ऐसे काफ़िर जो दुनिया से बे ईमान जाएं और कुफ़्र पर ही उनका अन्त हो. वो थोड़े ही थे, क्योंकि जो लश्कर मुक़ाबले पर आया था उसमें काफ़ी लोग थे जिन्हें अपनी ज़िन्दग़ी में ईमान नसीब हुआ और ख़्वाब में कम संख्या की ताबीर कमज़ोरी से है. चुनांचे अल्लाह तआला ने मुसलमानों को ग़ालिब फ़रमाकर काफ़िरों की कमज़ोरी ज़ाहिर फ़रमा दी.

(17) और अडिग रहने या भाग छूटने के बीच हिचकिचाते हुए रहते.

(18) तुमको बुज़दिली, हिचकिचाहट और आपसी मतभेद से.

(19) ऐ मुसलमानों!

(20) हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि वो हमारी नज़रों में इतने कम जचे कि मैंने अपने बराबर वाले एक आदमी से पूछा क्या तुम्हारे गुमान में काफ़िर सत्तर होंगे, उसने कहा मेरे ख़्याल से सौ हैं और थे हज़ार.

(21) यहां तक अबूजहल ने कहा कि इन्हें रस्सियों में बाँध लो जैसे कि वह मुसलमानों की जमाअत को इतना कम देख रहा था कि मुक़ाबला करने और युद्ध करने के लायक़ भी ख़्याल नहीं करता था और मुश्रिकों को मुसलमानों की संख्या थोड़ी दिखाने में यह हिकमत थी कि मुश्रिक मुक़ाबले पर जम जाएं, भाग न पड़े और यह बात शुरू में थी, मुक़ाबला होने के बाद उन्हें मुसलमान बहुत अधिक नज़र आने लगे.

(22) यानी इस्लाम का ग़लबा और मुसलमानों की जीत और शिक की दमन और मुश्रिकों का अपमान और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के चमत्कार का इज़हार कि जो फ़रमाया था वह हुआ कि अल्पसंख्यक जमाअत भारी भरकम लश्कर पर ग़ालिब आई.