36 सूरए यासीन
بِسْمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحْمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
يسٓ وَٱلْقُرْءَانِ ٱلْحَكِيمِ
إِنَّكَ لَمِنَ ٱلْمُرْسَلِينَ
عَلَىٰ صِرَٰطٍۢ مُّسْتَقِيمٍۢ
تَنزِيلَ ٱلْعَزِيزِ ٱلرَّحِيمِ
لِتُنذِرَ قَوْمًۭا مَّآ أُنذِرَ ءَابَآؤُهُمْ فَهُمْ غَٰفِلُونَ
لَقَدْ حَقَّ ٱلْقَوْلُ عَلَىٰٓ أَكْثَرِهِمْ فَهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ
إِنَّا جَعَلْنَا فِىٓ أَعْنَٰقِهِمْ أَغْلَٰلًۭا فَهِىَ إِلَى ٱلْأَذْقَانِ فَهُم مُّقْمَحُونَ
وَجَعَلْنَا مِنۢ بَيْنِ أَيْدِيهِمْ سَدًّۭا وَمِنْ خَلْفِهِمْ سَدًّۭا فَأَغْشَيْنَٰهُمْ فَهُمْ لَا يُبْصِرُونَ
وَسَوَآءٌ عَلَيْهِمْ ءَأَنذَرْتَهُمْ أَمْ لَمْ تُنذِرْهُمْ لَا يُؤْمِنُونَ
إِنَّمَا تُنذِرُ مَنِ ٱتَّبَعَ ٱلذِّكْرَ وَخَشِىَ ٱلرَّحْمَٰنَ بِٱلْغَيْبِ ۖ فَبَشِّرْهُ بِمَغْفِرَةٍۢ وَأَجْرٍۢ كَرِيمٍ
إِنَّا نَحْنُ نُحْىِ ٱلْمَوْتَىٰ وَنَكْتُبُ مَا قَدَّمُوا۟ وَءَاثَٰرَهُمْ ۚ وَكُلَّ شَىْءٍ أَحْصَيْنَٰهُ فِىٓ إِمَامٍۢ مُّبِينٍۢ
सूरए यासीन मक्का में उतरी, इसमें 83 आयतें और पांच रूकू हैं.
पहला रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए यासीन मक्के में उतरी. इसमें पाँच रूकू, तिरासी आयतें, सात सौ उनतीस कलिमे और तीन हज़ार अक्षर हैं. तिरमिज़ी की हदीस शरीफ़ में है कि हर चीज़ के लिये दिल है और क़ुरआन का दिल यासीन है और जिसने यासीन पढ़ी, अल्लाह तआला उसके लिये दस बार क़ुरआन पढ़ने का सवाब लिखता है. यह हदीस ग़रीब है और इसकी असनाद में एक रावी मजहूल है. अबू दाऊद की हदीस में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया अपने मरने वालों पर यासीन पढो. इसी लिये मौत के वक़्त सकरात की हालत में मरने वाले के पास यासीन पढ़ी जाती है.
यासीन {1} हिकमत वाले क़ुरआन की क़सम {2} बेशक तुम(2){3}
(2) ऐ नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम.
सीधी राह पर भेजे गए हो(3) {4}
(3) जो मंज़िले मक़सूद को पहुंचाने वाली है यह राह तौहीद और हिदायत की राह है, तमाम नबी इसी पर रहे हैं. इस आयत में काफ़िरों का रद है जो हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहते थे “लस्ता मुरसलन” तुम रसूल नहीं हो. इसके बाद क़ुरआने करीम की निस्बत इरशाद फ़रमाया.
इज़्ज़त वाले मेहरबान का उतारा हुआ {5} ताकि तुम उस क़ौम को डर सुनाओ जिसके बाप दादा न डराए गए (4) {6}
(4) यानी उनके पास कोई नबी न पहुंचे और क़ुरैश की क़ौम का यह हाल है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से पहले उनमें कोई रसूल नहीं आया.
तो वो बेख़बर है, बेशक उनमें अक्सर पर बात साबित हो चुकी है (5)
(5) यानी अल्लाह के हुक्म और उसका लिखा उनके अज़ाब पर जारी हो चुका है और अल्लाह तआला का इरशाद “लअमलअन्ना जहन्नमा मिनल जिन्नते वन्नासे अजमईन” यानी बेशक ज़रूर जहन्नम भर दूंगा जिन्नों और आदमियों को मिलाकर. (सूरए हूद, आयत 119) उनके हक़ में साबित हो चुका है और अज़ाब का उनके लिये निश्चित हो जाना इस कारण से है कि वो कुफ़्र और इनकार पर अपने इख़्तियार से अड़े रहने वाले हैं.
तो वो ईमान न लाएंगे(6) {7}
(6) इसके बाद उनके कुफ़्र में पक्के होने की एक तमसील (उपमा) इरशाद फ़रमाई.
हमने उनकी गर्दनों में तौक़ कर दिये हैं कि वो ठोड़ियों तक रहें तो ये ऊपर को मुंह उठाए रह गए (7){8}
(7) यह तमसील है उनके कुफ़्र में ऐसे पुख़्ता होने की कि डराने और चेतावनी वाली आयतों और नसीहत और हिदायत के अहकामात किसी से वो नफ़ा नहीं उठा सकते जैसे कि वो व्यक्ति जिन की गर्दनों में “ग़िल” की क़िस्म का तौक़ पड़ा हो जो ठोड़ी तक पहुंचता है और उसकी वजह से वो सर नहीं झुका सकते. यही हाल उनका है कि किसी तरह उनको हक़ की तरफ़ रूचि नहीं होती और उसके हुज़ूर सर नहीं झुकाते. और कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया है कि यह उनके हाल की हक़ीक़त् है. जहन्नम में उन्हें इसी तरह का अज़ाब किया जाएगा जैसा की दूसरी आयत में इरशाद फ़रमाया : “इंज़िल अग़लालो फ़ी अअनाक़िहम” जब उनकी गर्दनों में तौक़ होंगे और ज़ंजीरें, घसीटे जाएंगे (सूरए अल-मूमिन, आयत 71) . यह आयत अबू जहल और उसके दो मख़ज़ूमी दोस्तों के हक़ में उतरी. अबू जहल ने क़सम खाई थी कि अगर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को नमाज़ पढ़ते देखेगा तो पत्थर से सर कुचल डालेगा. जब उसने हु़जूर को नमाज़ पढ़ते देखा तो वह इसी ग़लत इरादे से एक भारी पत्थर लाया. जब उस पत्थर को उठाया तो उसके हाथ गर्दन में चिपके रह गए और पत्थर हाथ को लिपट गया. यह हाल देखकर अपने दोस्तों की तरफ़ वापस हुआ और उनसे वाक़िआ बयान किया तो उसके दोस्त वलीद बिन मुग़ीरह ने कहा कि यह काम मैं करूंगा और मैं उनका सर कुचल कर ही आऊंगा. चुनांन्चे पत्थर ले आया. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अभी नमाज़ ही पढ़ रहे थे, जब यह क़रीब पहुंचा, अल्लाह तआला ने उसकी बीनाई यानी दृष्टि छीन ली. हुज़ूर की आवाज़ सुनता था, आँखों से देख नहीं सकता था. यह भी परेशान होकर अपने यारों की तरफ़ लौटा, वो भी नज़र न आए. अब अबू जहल के तीसरे दोस्त ने दावा किया कि वह इस काम को अंजाम देगा और बड़े दावे के साथ वह हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तरफ़ चला था. पर उलटे पाँव ऐसा बदहवास होकर भागा कि औंधे मुंह गिर गया. उसके दोस्तों ने हाल पूछा तो कहने लगा कि मेरा दिल बहुत सख़्त है मैं ने एक बहुत बड़ा सांड देखा जो मेरे और मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) के बीच आ गया. लात और उज़्ज़ा की क़स्म. अगर मैं ज़रा भी आगे बढ़ता तो मुझे खा ही जाता इसपर यह आयत उतरी. (ख़ाज़िन व जुमल)
और हमने उनके आगे दीवार बनादी और उनके पीछे एक दीवार और उन्हें ऊपर से ढांक दिया तो उन्हें कुछ नहीं सूझता (8){9}
(8) यह भी तमसील है कि जैसे किसी शख़्स के लिये दोनों तरफ़ दीवारें हों और हर तरफ़ से रास्ता बन्द कर दिया गया हो वह किसी मंज़िले मक़सूद तक नहीं पहुंच सकता. यही हाल इन काफ़िरों का है कि उन पर हर तरफ़ से ईमान की राह बन्द है. सामने उनके सांसारिक घमण्ड की दीवारें हैं और उनके पीछे आख़िरत को झुटलाने की, और वो अज्ञानता के कै़दख़ाने में क़ैद हैं, दलीलों पर नज़र करना उन्हें मयस्सर नहीं.
और उन्हें एक सा है तुम उन्हे डराओ वो ईमान लाने के नहीं {10} तुम तो उसी को डर सुनाते हो (9)
(9) यानी आपके डर सुनाने से वहीं लाभ उठाता है.
जो नसीहत पर चले और रहमान से बेदेखे डरे, तो उसे बख़्शिश और इज़्ज़त के सवाब की बशारत दो (10){11}
(10) यानी जन्नत की.
बेशक हम मुर्दों को जिलाएंगे और हम लिख रहे हैं जो उन्होंने आगे भेजा(11)
(11) यानी दुनिया की ज़िन्दगी मे जो नेकी या बदी की, ताकि उसपर बदला दिया जाए.
और जो निशानियाँ पीछे छोड़ गए(12)
(12) यानी और हम उनकी वो निशानियाँ वो तरीक़े भी लिखते हैं जो वो अपने बाद छोड़ गए चाहे वो तरीक़े नेक हों या बुरे. जो नेक तरीक़े उम्मती निकालते हैं उनको बिदअते हसना कहते हैं और उस तरीक़े को निकालने वालों और अमल करने वालों दोनों को सवाब मिलता है. और जो बुरे तरीक़े निकालते हैं उनके बिदअते सैयिअह कहते हैं. इस तरीक़े के निकालने वाले और अमल करने वाले दोनों गुनाहगार होते हैं. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जिस शख़्स ने इस्लाम में नेक तरीक़ा निकाला उसको तरीक़ा निकालने का भी सवाब मिलेगा और उसपर अमल करने वालों का भी सवाब. बग़ैर इसके कि अमल करने वालों के सवाब में कुछ कमी की जाए. और जिसने इस्लाम में बुरा तरीक़ा निकाला तो उस पर वह तरीक़ा निकालने का भी गुनाह और उस तरीक़े पर अमल करने वालों के भी गुनाह बग़ैर इसके कि उन अमल करने वालों के गुनाहों में कुछ कमी की जाए. इससे मालूम हुआ कि सैंकड़ों भलाई के काम जैसे फ़ातिहा, ग्यारहवीं व तीजा व चालीसवाँ व उर्स व तोशा व ख़त्म व ज़िक्र की मेहफ़िलें, मीलाद व शहादत की मजलिसें जिनको बदमज़हब लोग बिदअत कहकर मना करते हैं और लोगों को इन नेकियों से रोकते हैं, ये सब दुरूस्त और अज्र और सवाब के कारण हैं और इनको बिदअते सैयिअह बताना ग़लत और बातिल है. ये ताआत और नेक अमल जो ज़िक्र व तिलावत और सदक़ा व ख़ैरात पर आधारित हैं बिदअते सैयिअह नहीं. बिदअते सैयिअह वो बुरे तरीक़े हैं जिन से दीन को नुक़सान पहुंचता है और जो सुन्नत के विरूद्ध हैं जैसा कि हदीस शरीफ़ में आया है कि जो क़ौम बिदअत निकालती है उससे एक सुन्नत उठ जाती है. तो बिदअत सैयिअह वही है जिससे सुन्नत उठती हो जैसे कि रिफ़्ज़ व ख़ारिजियत और वहाबियत, ये सब इन्तिहा दर्जे की ख़राब बिदअतें हैं. राफ़ज़ियत और ख़ारिजियत जो सहाबा और अहले बैते रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की दुशमनी पर आधारित हैं, उनसे सहाबा और एहले बैत के साथ महब्बत और नियाज़मन्दी रखने की सुन्नत उठ जाती है जिसके शरीअत में ताकीदी हुक्म हैं. वहाबियत की जड़ अल्लाह के मक़बूल बन्दों, नबियों, वलियों की शान में बेअदबी और गुस्ताख़ी और तमाम मुसलमानों को मुश्रिक ठहराना है. इससे बुज़ुर्गाने दीन की हुर्मत और इज़्ज़त और आदर सत्कार और मुसलमानों के साथ भाई चारे और महब्बत की सुन्नतें उठ जाती हैं जिनकी बहुत सख़्त ताकीदें हैं और जो दीन में बहुत ज़रूरी चीज़ें हैं. और इस आयत की तफ़सीर में यह भी कहा गया है कि आसार से मुराद वो क़दम हैं जा नमाज़ी मस्जिद की तरफ़ चलने में रखता है और इस मानी पर आयत के उतरने की परिस्थिति यह बयान की गई है कि बनी सलमा मदीनए तैय्यिबह के किनारे पर रहते थे. उन्होंने चाहा कि मस्जिद शरीफ़ के क़रीब आ बसें. इसपर यह आयत उतरी और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि तुम्हारे क़दम लिखे जाते हैं, तुम मकान न बदलो, यानी जितनी दूर आओगे उतने ही क़दम ज़्यादा पड़ेंगे और अज्र व सवाब ज़्यादा होगा.
और हर चीज़ हमने गिन रखी है एक बताने वाली किताब में (13){12}
(13) यानी लौहे मेहफ़ूज़ में.
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