24 सूरए नूर
بِسْمِ ٱللَّهِ ٱلرَّحْمَٰنِ ٱلرَّحِيمِ
سُورَةٌ أَنزَلْنَٰهَا وَفَرَضْنَٰهَا وَأَنزَلْنَا فِيهَآ ءَايَٰتٍۭ بَيِّنَٰتٍۢ لَّعَلَّكُمْ تَذَكَّرُونَ
ٱلزَّانِيَةُ وَٱلزَّانِى فَٱجْلِدُوا۟ كُلَّ وَٰحِدٍۢ مِّنْهُمَا مِا۟ئَةَ جَلْدَةٍۢ ۖ وَلَا تَأْخُذْكُم بِهِمَا رَأْفَةٌۭ فِى دِينِ ٱللَّهِ إِن كُنتُمْ تُؤْمِنُونَ بِٱللَّهِ وَٱلْيَوْمِ ٱلْءَاخِرِ ۖ وَلْيَشْهَدْ عَذَابَهُمَا طَآئِفَةٌۭ مِّنَ ٱلْمُؤْمِنِينَ
ٱلزَّانِى لَا يَنكِحُ إِلَّا زَانِيَةً أَوْ مُشْرِكَةًۭ وَٱلزَّانِيَةُ لَا يَنكِحُهَآ إِلَّا زَانٍ أَوْ مُشْرِكٌۭ ۚ وَحُرِّمَ ذَٰلِكَ عَلَى ٱلْمُؤْمِنِينَ
وَٱلَّذِينَ يَرْمُونَ ٱلْمُحْصَنَٰتِ ثُمَّ لَمْ يَأْتُوا۟ بِأَرْبَعَةِ شُهَدَآءَ فَٱجْلِدُوهُمْ ثَمَٰنِينَ جَلْدَةًۭ وَلَا تَقْبَلُوا۟ لَهُمْ شَهَٰدَةً أَبَدًۭا ۚ وَأُو۟لَٰٓئِكَ هُمُ ٱلْفَٰسِقُونَ
إِلَّا ٱلَّذِينَ تَابُوا۟ مِنۢ بَعْدِ ذَٰلِكَ وَأَصْلَحُوا۟ فَإِنَّ ٱللَّهَ غَفُورٌۭ رَّحِيمٌۭ
وَٱلَّذِينَ يَرْمُونَ أَزْوَٰجَهُمْ وَلَمْ يَكُن لَّهُمْ شُهَدَآءُ إِلَّآ أَنفُسُهُمْ فَشَهَٰدَةُ أَحَدِهِمْ أَرْبَعُ شَهَٰدَٰتٍۭ بِٱللَّهِ ۙ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ
وَٱلْخَٰمِسَةُ أَنَّ لَعْنَتَ ٱللَّهِ عَلَيْهِ إِن كَانَ مِنَ ٱلْكَٰذِبِينَ
وَيَدْرَؤُا۟ عَنْهَا ٱلْعَذَابَ أَن تَشْهَدَ أَرْبَعَ شَهَٰدَٰتٍۭ بِٱللَّهِ ۙ إِنَّهُۥ لَمِنَ ٱلْكَٰذِبِينَ
وَٱلْخَٰمِسَةَ أَنَّ غَضَبَ ٱللَّهِ عَلَيْهَآ إِن كَانَ مِنَ ٱلصَّٰدِقِينَ
وَلَوْلَا فَضْلُ ٱللَّهِ عَلَيْكُمْ وَرَحْمَتُهُۥ وَأَنَّ ٱللَّهَ تَوَّابٌ حَكِيمٌ
सूरए नूर मदीना में उतरी, इसमें 64 आयतें, 9 रूकू हैं.
पहला रूकू
अल्लाह के नाम शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए नूर मदीने में उतरी, इसमें नौ रूकू, चौंसठ आयतें हैं.
यह एक सूरत है कि हमने उतारी और हमने इसके एहकाम फ़र्ज़ किये(2)
(2) और उनपर अमल करना बन्दों पर अनिवार्य किया.
और हमने इसमें रौशन आयतें नाज़िल फ़रमाई कि तुम ध्यान करो{1} जो औरत बदकार हो और जो मर्द तो उनमें हर एक को सौ कोड़े लगाओ (3)
(3) यह सम्बोधन शासकों को है कि जिस मर्द या औरत से ज़िना सरज़द हो उसकी सज़ा यह है कि उसके सौ कोड़े लगाओ. शादी शुदा आदमी अगर ज़िना करे तो उसे रजम यानी संगसार किया जाए जैसा कि हदीस शरीफ़ में आया है कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के आदेश पर माइज़ रदियल्लाहो अन्हो को संगसार किया गया. अगर ज़िना करने वाला आज़ाद न हो, या मुसलमान न हो, या आक़िल बालिग़ न हो, या उसने कभी अपनी बीबी के साथ संभोग न किया हो, या जिसके साथ किया हो उसके साथ ग़लत तरीक़े से निकाह हुआ हो, तो इन सब के लिये कोड़े लगाने का हुक्म है. मर्द को कोड़े लगाने के वक़्त खड़ा किया जाए और उसके सारे कपड़े उतार दिये जाएं, सिवाय तहबंद के और उसके सारे शरीर पर कोड़े लगाए जाएं, सर और चेहरा और लिंग की जगह छोड़ कर. कोड़े इस तरह लगाए जाएं कि उनकी मार गोश्त तक न पहुंचे और कोड़ा औसत दर्ज़े का हो. औरत को कोड़े लगाने के समय खड़ा न किया जाए, न उसके कपड़े उतारे जाएं. अलबत्ता अगर पोस्तीन या रूईदार कपड़े पहने हो तो उतार दिये जाएं. यह हुक्म आज़ाद मर्द और औरत के लिये है. दासी और ग़ुलाम की सज़ा इसकी आधी यानी पचास कोड़े हैं जैसा कि सूरए निसा में बयान हो चुका. ज़िना का सुबूत या तो चार मर्दों की गवाहियों से होता है या ज़िना करने वाले के चार बार इक़रार कर लेने से. फिर भी इमाम या काज़ी बार बार दर्याफ़्त करेगा और पूछेगा कि ज़िना से क्या मुराद है, कहाँ किया किससे किया, कब किया. अगर इन सबको बयान कर दिया तो ज़िना साबित होगा, वरना नहीं. और गवाहों को साफ़ साफ़ अपना देखना बयान करना होगा, इसके बिना सुबूत न होगा. लिवातत याने लौंडेबाज़ी ज़िना में दाख़िल नहीं है इसलिये इस काम से हद वाजिब नहीं होती लेकिन गुनाह वाजिब होता है और इस गुनाह में सहाबा के चन्द क़ौल आए है: आग में जला देना, डुबो देना, ऊंचाई से गिराना और ऊपर से पत्थर बरसाना, बुरा काम करने वाले और जिसके साथ किया जाए, दोनों के लिये एक ही हुक्म है.(तफ़सीरे अहमदी)
और तुम्हें उनपर तरस न आए अल्लाह के दीन में(4)
(4) यानी सज़ाओ को पूरा करने में कमी न करो और दीन में मज़बूत और डटे रहो.
अगर तुम ईमान लाते हो अल्लाह और पिछले दिन पर, और चाहिये कि उनकी सज़ा के वक़्त मुसलमानों का एक गिरोह हाज़िर हो(5){2}
(5) ताकि सबक़ हासिल हो.
बदकार मर्द निकाह न करे मगर बदकार औरत या शिर्क वाली से और बदकार औरत से निकाह न करे मगर बदकार मर्द या मुश्रिक(6)
(6) क्योंकि बुरे की रूचि बुरे ही की तरफ़ होती है. नेकों को बुरे की तरफ़ रूचि नहीं होती. मुहाजिरों में कुछ बिल्कुल ग़रीब थे, न उनके पास कुछ माल था, न उनका कोई अज़ीज़ क़रीब था, और बदकार मुश्रिक औरतें दौलतमन्द और मालदार थीं. यह देखकर किसी मुहाजिर को ख़याल आया कि अगर उनसे निकाह कर लिया जाए तो उनकी दौलत काम में आएगी. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से उन्हों ने इसकी इज़ाज़त चाही इसपर यह आयत उतरी और उन्हें इससे रोक दिया गया.
और यह काम (7)
(7) यानी बदकारों से निकाह करना.
ईमान वालों पर हराम है(8){3}
(8) शुरू इस्लाम में ज़िना करने वाली औरत से निकाह हराम था. बाद में आयत “वनकिहुल अयामा मिन्कुम” से यह हुक्म मन्सूख़ यानी स्थगित हो गया.
और जो पारसा औरतों को ऐब (लांछन) लगाएं, फिर चार गवाह मुआयना के न लाएं तो उन्हें अस्सी कोड़े लगाओ और उनकी कोई गवाही कभी न मानो (9)
(9) इस आयत में कुछ बातें साबित हुई (1) जो व्यक्ति किसी नेक मर्द या औरत पर ज़िना का आरोप लगाए. उसपर चार आँखों देखे गवाह पेश न कर सके तो उसपर हद वाजिब हो जाती हैं यानी अस्सी कोड़े. आयत में शब्द “मोहसिनात” यानी पारसा नेक औरतों विशेष घटना के कारण आया था या इसलिये कि औरतों को आरोप लगाना आम हो गया हैं. (2) और ऐसे लोग जो ज़िना के आरोप में सज़ा पाएं और उनपर हद जारी हो चुकी हो, गवाही देने के योग्य नहीं रह जाते, कभी उनकी गवाही क़ुबूल नहीं की जाती, पारसा से मुराद वो हैं जो मुसलमान होशमन्द यानी आक़िल बालिग, आज़ाद और ज़िना से पाक हों. (3) ज़िना की शहादत के लिये कम से कम चार गवाह होने चाहिये. (4) जिस पर आरोप लगाया गया हो, अगर वह दावा न करें तो काज़ी पर हद क़ायम करना लाज़िम नहीं. (5) दावा करने का हक़ उसी को है जिसपर आरोप लगाया गया हो, अगर वह ज़िन्दा हो और अगर वह मर गया हो तो उसके बेटे पोते को भी है.(6) ग़ुलाम अपने मालिक पर और बेटा अपने बाप पर क़ज़फ़ यानी अपनी माँ पर ज़िना का आरोप लगाने का दावा नहीं कर सकता. (7) क़ज़फ़ के अलफ़ाज़ ये हैं कि वह खुल्लुमखुल्ला किसी को ज़ानी कहे या यह कहे कि तू अपने बाप से नहीं हैं या उसके बाप का नाम लेकर कहे कि तू उसका बेटा नहीं है या उसको ज़िना करने वाली औरत का बेटा कहकर पुकारे और हो उसकी माँ पारसा और नेक बीबी, तो ऐसा व्यक्ति क़ाज़िफ़ हो जाएगा और उसपर तोहमत यानी आरोप की हद आएगी. (8) अगर ग़ैर मोहसिन को ज़िना का आरोप लगाया, जैसे किसी ग़ुलाम को या काफ़िर को या ऐसे व्यक्ति को जिसका कभी ज़िना करना साबित हो तो उस पर क़ज़फ़ की हद क़ायम होगी बल्कि उसपर तअज़ीर (सज़ा) वाजिब होगी और यह तअज़ीर (सज़ा) शरई हाकिम के हुक्म के मुताबिक़ तीन से उन्तालीस तक कोड़े लगाना है. इसी तरह अगर किसी शख़्स ने ज़िना के सिवा और किसी बुरे काम की तोहमत लगाई और पारसा और नेक मुसलमान को ऐ फ़ासिक़ ऐ काफ़िर, ऐ ख़ब्बीस, ऐ चोर, ऐ बदकार, ऐ मुख़न्नस, ऐ बेईमान, ऐ लौंडेबाज़, ऐ ज़िन्दीक़, ऐ दय्यू, ऐ शराबी, ऐ सूदख़ोर, ऐ बदकार औरत के बच्चे, ऐ हरामज़ादे, इस क़िस्म के अल्फ़ाज़ कहे तो भी उसपर तअज़ीर वाजिब होगी. (9) इमाम यानी शरई हाकिम को और उस शख़्स को, जिसे तोहमत लगाई गई हो, सुबूत से पहले माफ़ करने का हक़ है. (10) अगर तोहमत लगाने वाला आज़ाद न हो बल्कि ग़ुलाम हो तो उसके चालीस कोड़े लगाए जाएंगे. (11) तोहमत लगाने के जुर्म में जिसको हद लगाई हो उसकी गवाही किसी मामले में भरोसे की नहीं चाहे वह तौबह करे. लेकिन रमज़ान का चांद देखने के बाद में तौबह करने और उसके आदिल होने की सूरत में उसका क़ौल क़ुबूल कर लिया जाएगा क्योंकि यह वास्तव में शहादत नहीं है इसीलीये इसमें शहादत शब्द और शहादत का निसाब भी शर्त नहीं.
और वही फ़सिक़ हैं{4} मगर जो इसके बाद तौबह कर लें और संवर जाएं(10)
(10) अपने अहवाल को दुरूस्त कर लें.
तो बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है{5} और वो जो अपनी औरतों को ऐब लगाएं (11)
(11) ज़िना का.
और उनके पास अपने बयान के सिवा गवाह न हो तो ऐसे किसी की गवाही यह है कि चार बार गवाही दे अल्लाह के नाम से कि वह सच्चा है(12){6}
(12) औरत पर ज़िना का आरोप लगाने में.
और पाँचवें यह कि अल्लाह कि लअनत हो उसपर अगर झूटा हो{7} और औरत से यूं सज़ा टल जाएगी कि वह अल्लाह का नाम लेकर चार बार गवाही दे कि मर्द झूटा है(13){8}
(13) उस पर ज़िना की तोहमत लगाने में.
और पाँचवीं यूं कि औरत पर ग़ज़ब अल्लाह का अगर मर्द सच्चा हो (14){9}
(14) उसको लिआन कहते हैं. जब मर्द अपनी बीबी पर ज़िना का आरोप लगाए और अगर मर्द व औरत दोनों शहादत यानी गवाही के योग्य हों और औरत उसपर दावा करे तो मर्द पर लिआन वाजिब हो जाता है. अगर वह लिआन से इनकार करदे तो उसको उस वक़्त तक क़ैद रखा जाएगा जब तक वह लिआन करे या अपने झुट का इकरारी हो. अगर झुट का इक़रार करे तो उसको हदे क़ज़फ़ लगाई जाएगी जिसका बयान ऊपर हो चुका है. और अगर लिआन करना चाहे तो उसको चार बार अल्लाह की क़सम खाकर कहना होगा कि वह उस औरत पर ज़िना का आरोप लगाने में सच्चा है और पांचवीं बार यह कहना होगा कि अल्लाह की लअनत मुझपर अगर में यह आरोप लगाने में झुटा हूँ . इतना करने के बाद मर्द पर ये क़ज़फ़ की हद साक़ित हो जाएगी और औरत पर लिआन वाजिब होगा. इनकार करेगी तो क़ैद की जाएगी यहाँ तक कि लिआन मन्जू़र करे या शौहर के इल्ज़ाम लगाने की पुष्टि करे. अगर पुष्टि की तो औरत पर ज़िना की हद लगाई जाएगी और अगर लिआन करना चाहे तो उसको चार बार अल्लाह की क़सम के साथ कहना होगा कि मर्द उसपर ज़िना की तोहमत लगाने में झूठा है और पांचवीं बार यह कहना होगा कि अगर मर्द उस इल्ज़ाम लगाने में सच्चा हो तो मुझ पर ख़ुदा का ग़ज़ब हो. इतना कहने के बाद औरत से ज़िना की हद उठ जाएगी और लिआन के बाद क़ाज़ी के तफ़रीक़ करने से अलाहदगी वाक़े होगी और यह अलहादगी तलाक़े वाइन होगी, और अगर मर्द एहले शहादत से न हो जैसे कि ग़ुलाम हो या काफ़िर हो या उसपर क़ज़फ़ की हद लग चुकी हो तो लिआन न होगा और तोहमत लगाने से मर्द पर क़ज़फ़ की हद लगाई जाएगी. और अगर मर्द एहले शहादत में से हो और औरत में यह योग्यता न हो इस तरह की वह बाँदी से हो या काफ़िर या उसपर क़ज़फ़ की हद लग चुकी हो या बच्ची हो या पागल हो या ज़िना करने वाली हो, उस सूरत में मर्द पर न हद होगी न लिआन. यह आयत एक सहाबी के हक़ में उतरी जिन्हों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से दरियाफ़्त किया था कि अगर आदमी अपनी औरत को ज़िना में जकड़ा देखे तो क्या करे, न उस वक़्त गवाहो के तलाश करने की फुर्सत है और न बग़ैर गवाही के वह यह बात कह सकता है क्योंकि उसे क़ज़फ़ की हद का अन्देशा है. इसपर यह आयत उतरी, और लिआन का हुक्म दिया गया.
और अगर अल्लाह का फ़ज़्ल (कृपा) उसकी रहमत तुम पर न होती और यह कि अल्लाह तौबह क़ुबूल फ़रमाता, हिकमत वाला है{10}
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