सूरए हिज्र
सूरए हिज्र मक्का में उतरी, इसमें 99 आयतें और 6 रूकू हैं.
पहला रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
अलिफ़-लाम-रा! ये आयतें हैं किताब और रौशन क़ुरआन की{1}
(1) सूरए हिज्र मक्की है, इसमें छ: रूकू निनानवे आयतें हैं छ: सौ चव्वन कलिमे और दो हज़ार सात सौ आठ अक्षर है.
चौदहवां पारा – रूबमा
(सूरए हिज्र -पहला रूकू जारी)
बहुत आरज़ूएं करेंगे काफ़िर(2)
(2) ये आरज़ूएँ, या मौत के वक़्त अजाब देखकर होगी जब काफ़िर को मालूम हो जाएगा कि वह गुमराही में था, या आख़िरत में क़यामत के दिन की सख़्तियों और हौल और अपना अन्त देखकर, ज़ुजाज का क़ौल है कि काफ़िर जब कभी अपने अजा़ब का हाल और मुसलमानों पर अल्लाह की रहमत देखेंगे, हर बार आरज़ूएं करेंगे कि.
काश मुसलमान होते उन्हें छोड़ दो(3){2}
(3) ऐ मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम).
कि खाएं और बरतें(4)
(4) दुनिया की लज़्ज़तें.
और उम्मीद(5)
(5) लम्बी ज़िन्दग़ी, नेअमतों और लज़्ज़तों की, जिसके कारण वो ईमान से मेहरूम हैं.
उन्हें खेल में डाले तो अब जाना चाहते हैं(6){3}
(6) अपना अन्त. इसमें चेतावनी है कि लम्बी उम्मीदों में गिरफ़्तार होना और दुनिया की लज़्ज़तों की तलब में डूब जाना ईमानदार की शान नहीं. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हु ने फ़रमाया, लम्बी उम्मीदे आख़िरत को भुलाती है और ख़्वाहिशों का अनुकरण सच्चाई से रोकता है.
और जो बस्ती हमने हलाक की उसका एक जाना हुआ नविश्ता (लेखा) था(7){4}
(7) लौहे मेहफ़ूज़ में, उसी निर्धारित समय पर वह हलाक हुई.
कोई गिरोह (जनसमूह) अपने वादे से आगे न बढ़े न पीछे हटे{5}और बोले(8)
(8) मक्का के काफ़िर, और रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से.
कि ऐ वो जिन पर क़ुरआन उतरा बेशक तुम मजनून हो (9){6}
(9) उनका यह क़ौल हंसी उड़ाने के तौर पर था जैसा कि फ़िरऔन ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की निस्बत कहा था “इन्नारूसूलकुमुल लज़ी उरसिला इलैकुम लमजनूनुन” (यानी बोला, तुम्हारे ये रसूल जो तुम्हारी तरफ़ भेजे गये है. जरूर अक़्ल नहीं रखते- सूरए शुअरा, आयत 27)
हमारे पास फ़रिश्ते क्यों नहीं लाते(10)
(10)जो तुम्हारे रसूल होने क़ुरआन शरीफ़ के अल्लाह की किताब होने की गवाही दें.
अगर तुम सच्चे हो (11){7}
(11)अल्लाह तआला इसके जवाब में फ़रमाता है.
हम फ़रिश्ते बेकार नहीं उतारते और वो उतरें तो उन्हें मुहलत न मिले(12){8}
(12) फ़िलहाल अज़ाब में गिरफ़्तार कर दिये जाएं
बेशक हमने उतारा है यह क़ुरआन और बेशक हम ख़ुद इसके निगहबान हैं(13){9}
(13) कि फेरबदल और कमी बेशी से इसकी हिफ़ाज़त फ़रमाते हैं. तमाम जिन्न और इन्सान और सारी सृष्टि के बस में नहीं हैं कि इसमें एक अक्षर की भी कमी बेशी करे या फेर बदल करें. चूंकि अल्लाह तआला ने क़ुरआने करीम की हिफ़ाज़त का वादा फ़रमाया है. इसलिये यह विशेषता सिर्फ क़ुरआन शरीफ़ की है, दूसरी किसी किताब को यह मयस्सर नहीं. यह हिफ़ाज़त कई तरह पर है. एक यह कि क़ुरआने करीम को चमत्कार बनाया कि बशर का कलाम इसमें मिल ही न सके, एक यह कि इसको ऐतिराज़ और मुक़ाबले से मेहफ़ूज़ किया कि कोई इस जैसा कलाम बनाने पर क़ादिर न हो, एक यह कि सारी सृष्टि को इसके नेस्त नाबूद और ख़त्म करने या मिटाने से आजिज़ कर दिया कि काफ़िर अपनी सारी सृष्टि दुश्मनी के बावुजूद इस पाक किताब को मिटाने से आजिज़ है.
और बेशक हमने तुमसे पहले अगली उम्मतों में रसूल भेजे{10}और उनके पास कोई रसूल नहीं आता मगर उससे हंसी करते हैं(14){11}
(14) इस आयत में बताया गया कि जिस तरह मक्का के काफ़िरों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से जिहालत की बातें की और बेअदबी से आपको मजनून या पागल कहा, पुराने ज़माने से काफ़िरों की यही आदत रही है और वो रसूलों के साथ ठट्ठा करते रहे है. इसमें नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तसल्ली है.
ऐसे ही हम उस हंसी को उन मुजरिमों (15)
(15) यानी मक्का के मुश्रिक
के दिलों में राह देते हैं{12} वो उसपर (16)
(16) यानी नबियों के सरदार सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म या क़ुरआन पर.
ईमान नहीं लाते और अगलों की राह पड़ चुकी है(17){13}
(17) कि वो नबियों को झुटलाकर अल्लाह के अज़ाब से हलाक होते रहे हैं, यही हाल उनका है, तो उन्हें अल्लाह के अज़ाब से डरते रहना चाहिये.
और अगर हम उनके लिये आसमान में कोई दरवाज़ा खोल दें कि दिन को उसमें चढ़ते{14} जब भी यही कहते कि हमारी निगाह बांध दी गई. बल्कि हमपर जादू हुआ(18){15}
(18) यानी इन काफ़िरों की दुश्मनी इस दर्ज़े पहुंच गई है कि अगर उनके लिये आसमान में दरवाज़ा खोल दिया जाए और उन्हें उसमें चढ़ना मिले और दिन में उससे गुज़रें और आँखों से देखें, जब भी न मानें और यह कह दें कि हमारी नज़रबन्दी की गई और हम पर जादू हुआ तो जब खुद अपने आँखों देखे से, उन्हें यक़ीन हासिल न हुआ, तो फ़रिश्तों के आने और गवाही देने से, जिसको ये तलब करते हैं, उन्हें क्या फ़ायदा होगा
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