सूरए तौबह – पहला रूकू

सूरए तौबह – पहला रूकू

(1) सूरए तौबह मदीना में उतरी, इसमें 129 आयतें और 16 रूकू हैं.
बेज़ारी का हुक्म सुनाना है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से उन मुश्रिकों को जिनसे तुम्हारा मुआहिदा था और वो क़ायम न रहे (2){1}
तो चार महीने ज़मीन पर चलो फिरो और जान रखो कि तुम अल्लाह को थका नहीं सकते(3)
और यह कि अल्लाह काफ़िरों को रूस्वा करने वाला है (4){2}
और मुनादी पुकार देना है अल्लाह और उसके रसूल की तरफ़ से सब लोगों में बड़े हज के दिन (5)
कि अल्लाह बेज़ार है मुश्रिकों से और उसका रसूल तो अगर तुम तौबह करो(6)
तो तुम्हारा भला है और अगर मुंह फेरो(7)
तो जान लो कि तुम अल्लाह को न थका सकोगे (8)
और काफ़िरों को ख़ुशख़बरी सुनाओ दर्दनाक अज़ाब की{3} मगर वो मुश्रिक जिनसे तुम्हारा मुआहिदा था फिर उन्होंने तुम्हारे एहद में कुछ कमी नहीं की(9)
और तुम्हारे मुक़ाबिल किसी को मदद न दी तो उनका एहद ठहरी हुई मुद्दत तक पूरा करो, बेशक अल्लाह परहेज़गारों को दोस्त रखता है {4} फिर जब हुरमत वाले महीने निकल जाएं तो मुश्रिकों को मारो (10)
जहाँ पाओ (11)
और उन्हें पकड़ो और क़ैद करो और हर जगह उनकी ताक में बैठो फिर अगर वो तौबह करें (12)
और नमाज़ क़ायम रखें और ज़कात दें तो उनकी राह छोड़ दो, (13)
बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {5} और ऐ मेहबूब अगर कोई मुश्रिक तुमसे पनाह मांगे(14)
तो उसे पनाह दो कि वह अल्लाह का कलाम सुने फिर उसे उसकी अम्न की जगह पहुंचा दो (15)
यह इसलिये कि वो नादान लोग हैं(16){6}

तफ़सीर
सूरए तौबह – पहला रूकू
(1) सूरए तौबह मदनी है मगर इसके आख़िर की आयतें “लक़द जाअकुम रसूलुन” से आख़िर तक, उनको कुछ उलमा मक्की कहते हैं. इस सूरत में सौलह रूकू, 129 आयतें, चार हज़ार अठहत्तर कलिमे और दस हज़ार चार सौ अठासी अक्षर हैं. इस सूरत के दस नाम हैं इनमें से तौबह और बराअत दो नाम ख़ास हैं. इस सूरत के अव्वल में बिस्मिल्लाह नहीं लिखी गई. इसकी अस्ल वजह यह है कि जिब्रील अलैहिस्सलाम इस सूरत के साथ बिस्मिल्लाह लेकर नाज़िल ही नहीं हुए थे और नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने बिस्मिल्लाह लिखने का हुक्म नहीं फ़रमाया. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि बिस्मिल्लाह अमान है और यह सूरत तलवार के साथ अम्न उठा देने के लिये उतरी.

(2) अरब के मुश्रिकों और मुसलमानों के बीच एहद था. उनमें से कुछ के सिवा सब ने एहद तोड़ा तो इन एहद तोड़ने वालों का एहद ख़त्म कर दिया गया और हुक्म दिया गया कि चार महीने वो अम्न के साथ जहाँ चाहें गुज़ारें, उनसे कोई रोक टोक न की जाएगी. इस अर्से में उन्हें मौक़ा है, ख़ूब सोच समझ लें कि उनके लिये क्या बेहतर है. और अपनी एहतियातें कर लें और जान लें कि इस मुद्दत के बाद इस्लाम कुबूल करना होगा या क़त्ल. यह सूरत सन नौ हिजरी में मक्का की विजय से एक साल बाद उतरी. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने इस सन में हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो को अमीरे हज मुक़र्रर फ़रमाया था और उनके बाद अली मुर्तज़ा को हाजियों की भीड़ में यह सूरत सुनाने के लिये भेजा. चुनांचे हज़रत अली ने दस ज़िलहज को बड़े शैतान के पास खड़े होकर निदा की, ऐ लोगो, मैं तुम्हारी तरफ़ अल्लाह के रसूल का भेजा हुआ आया हूँ. लोगों ने कहा, आप क्या पयाम लाए हैं ? तो आपने तीस या चालीस आयतें इस मुबारक सूरत की पढ़ीं. फिर फ़रमाया, मैं चार हुक्म लाया हूँ (1) इस साल के बाद कोई मुश्रिक काबे के पास न आए (2) कोई शख़्स नंगा होकर काबे का तवाफ़ न करें (3) जन्नत में ईमान वाले के अलावा कोई दाख़िल न होगा. (4) जिसका रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ एहद है वह एहद अपनी मुद्दत तक रहेगा और जिसकी मुद्दत निर्धारित नहीं है उसकी मीआद चार माह पर पूरी हो जाएगी. मुश्रिकों ने यह सुनकर कहा कि ऐ अली, अपने चचा के बेटे को ख़बर दो कि हमने एहद पीठ पीछे फैंक दिया हमारे उनके बीच कोई एहद नहीं है, सिवाय नेज़े बाज़ी और तलवार बाज़ी के. इस वाक़ए में हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ की ख़िलाफ़त की तरफ़ लतीफ़ इशारा है कि हुज़ूर ने हज़रत सिद्दीक़े अकबर को तो अमीरे हज बनाया और हज़रत अली को उनके पीछे सूरए बराअत पढ़ने के लिये भेजा, तो हज़रत अबू बक्र इमाम हुए और हज़रत अली मुक़तदी. इससे हज़रत अबू बक्र की हज़रत अली पर फ़ज़ीलत साबित हुई.

(3) और इस मोहलत के बावुज़ूद उसकी पकड़ से बच नहीं सकते.

(4) दुनिया में क़त्ल के साथ और आख़िरत में अज़ाब के साथ.

(5) हज को हज्जे अकबर फ़रमाया इसलिये कि उस ज़माने में उमरे को हज्जे असग़र कहा जाता था. एक क़ौल यह भी है कि इस हज को हज्जे अकबर इसलिये कहा गया कि उस साल रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज फ़रमाया था और चूंकि यह जुमए को वाक़े हुआ था इसलिये मुसलमान उस हज को, जो जुमए के दिन हो, हज्जे वदाअ जैसा जान कर हज्जे अकबर कहते हैं.

(6) कुफ़्र और उज्र से.

(7) ईमान लाने और तौबह करने से.

(8) यह बड़ी चुनौती है और इसमें यह ललकार है कि अल्लाह तआला अज़ाब उतारने पर क़ादिर और सक्षम है.

(9) और उसको उसकी शर्तों के साथ पूरा किया. ये लोग बनी ज़मरह थे जो कनाना का एक क़बीला है. उनकी मुद्दत के नौ माह बाक़ी रहे थे.

(10) जिन्हों ने एहद तोड़ा.

(11) हरम से बाहर या हरम में, किसी वक़्त या स्थान का निर्धारण नहीं है.

(12) शिर्क और कुफ़्र से, और ईमान क़ुबूल कर लें.

(13) और क़ैद से रिहा कर दो और उनके साथ सख़्ती न करो.

(14) मोहलत के महीने, गुज़रने के बाद, ताकि आप से तौहीद के मसअले और क़ुरआन शरीफ़ सुनें जिसकी आप दावत देते हैं.

(15) अगर ईमान न लाए. इस से साबित हुआ कि मोहलत दिये गए शख़्स को तकलीफ़ न दी जाए और मुद्दत गुज़रने के बाद उसको दारूल इस्लाम में ठहरने का हक़ नहीं.

(16) इस्लाम और उसकी हक़ीक़त को नहीं जानते, तो उन्हें अम्न देना ख़ास हिकमत है ताकि कलामुल्लाह सुनें और समझें.

सूरए तौबह – दूसरा रूकू

सूरए तौबह – दूसरा रूकू

मुश्रिकों के लिये अल्लाह और उसके रसूल के पास कोई एहद क्यों कर होगा (1)
मगर वो जिनसे तुम्हारा मुआहिदा मस्जिदे हराम के पास हुआ, (2)
तो जबतक वो तुम्हारे लिये एहद पर क़ायम रहें तुम उनके लिये क़ायम रहो बेशक परहेज़गार अल्लाह को ख़ुश आते हैं{7} भला किस तरह (3)
उनका हाल तो यह है कि तुमपर क़ाबू पाएं तो न क़राबत का लिहाज़ करें न एहद का, अपने मुंह से तुम्हें राज़ी करते हैं(4)
और उनके दिलों में इन्कार है और उनमें अक्सर बेहुक्म हैं (5){8}
अल्लाह की आयतों के बदले थोड़े दाम मोल लिये (6)
तो उसकी राह से रोका (7)
बेशक वो बहुत ही बुरे काम करते हैं {9} किसी मुसलमान में न क़राबत का लिहाज़ करें न एहद का (8)
और वही सरकश है{10} फिर अगर वो (9)
तौबह करें और नमाज़ क़ायम रखें और ज़कात दें तो वो तुम्हारे दीनी भाई हैं, (10)
और हम आयतें मुफ़स्सल बयान करते हैं जानने वालों के लिये (11){11}
और अगर एहद करके अपनी क़समें तोड़े और तुम्हारे दीन पर मुंह आएं तो कुफ़्र के सरग़नों से लड़ों (12)
बेशक उनकी क़समें कुछ नहीं इस उम्मीद पर कि शायद वो बाज़ आएं (13){12}
क्या उस क़ौम से न लड़ोगे जिन्होंने अपनी क़समें तोड़ीं (14)
और रसूल के निकालने का इरादा किया (15), 
हालांकि उन्हीं की तरफ़ से पहल हुई है, क्या उनसे डरते हो, तो अल्लाह इसका ज़्यादा मुस्तहक़ है कि उससे डरो अगर ईमान रखते हो {13} तो उनसे लड़ो अल्लाह उन्हें अज़ाब देगा तुम्हारे हाथों और उन्हें रूस्वा करेगा (16)
और तुम्हें उनपर मदद देगा (17)
और ईमान वालों का जी ठण्डा करेगा{14} और उनके दिलों की घुटन दूर फ़रमाएगा (18),
और अल्लाह जिसकी चाहे तौबह कुबूल फ़रमाएगा (19)
और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है {15} क्या इस गुमान में हो यूंही छोड़ दिये जाओगे, और अभी अल्लाह ने पहचान न कराई उनकी जो तुम में से जिहाद करेंगे(20)
और अल्लाह और उसके रसूल और मुसलमानों के सिवा किसी को अपना राज़दार न बनाएंगे(21)
और अल्लाह तुम्हारे कामों से ख़बरदार है {16}

तफ़सीर सूरए तौबह – दूसरा रूकू

(1) कि वो बहाना बाज़ी और एहद-शिकनी किया करते हैं.

(2) और उनसे कोई एहद-शिकनी ज़ाहिर न हुई जैसा कि बनी कनाना और बनी ज़मरह ने की थी.

(3) एहद पूरा करेंगे और कैसे क़ौल पर क़ायम रहेंगे.

(4) ईमान और एहद पूरा करने के वादे करके.

(5) एहद तोड़ने वाले कुफ़्र में सरकश, बे मुरव्वत, झूट से न शर्माने वाले. उन्होंने….

(6) और दुनिया के थोड़े से नफ़े के पीछे ईमान और क़ुरआन छोड़ बैठे, और जो रसूले करीम सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से एहद किया था वह अबू सुफ़ियान के थोड़े से लालच देने से तोड़ दिया.

(7) और लोगों को दीन इलाही में दाख़िल होने से तोड़ दिया.

(8) जब मौक़ा पाएं क़त्ल कर डालें, तो मुसलमानों को भी चाहिये कि जब मुश्रिकों पर पकड़ मिल जाए तो उनसे दरगुज़र न करें.

(9) कुफ़्र और एहद तोड़ने से बाज़ आएं और ईमान क़ुबूल करके.

(10) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि इस आयत से साबित हुआ कि क़िबला वालों के ख़ून हराम है.

(11) इससे साबित हुआ कि आयतों की तफ़सील पर जिसकी नज़र हो, वह आलिम है.

(12) इस आयत से साबित हुआ कि जो काफ़िर ज़िम्मी दीने इस्लाम पर ज़ाहिर तअन करे उसका एहद बाक़ी नहीं रहता और वह ज़िम्मे से ख़ारिज हो जाता है, उसको क़त्ल करना जायज़ है.

(13) इस आयत से साबित हुआ कि काफ़िरों के साथ जंग करने से मुसलमानों की ग़रज़ उन्हें कुफ़्र और बदआमाली से रोक देना है.

(14) और सुलह हुदैबिया का एहद तोड़ा और मुसलमानों के हलीफ़ क़ुज़ाआ के मुक़ाबिल बनी बक्र की मदद की.

(15) मक्कए मुकर्रमा से दारून नदवा में मशवरा करके.

(16) क़त्ल व क़ैद से.

(17) और उनपर ग़लबा अता फ़रमाएगा.

(18) यह तमाम वादे पूरे हुए, और नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़बरें सच्ची हुई और नबुव्वत का सुबूत साफ़ से साफ़तर हो गया.

(19) इसमें ख़बर है कि कुछ मक्का वाले कुफ़्र से बाज़ आकर तौबह कर लेंगे. यह ख़बर भी ऐसी ही वाक़े हुई. चुनांचे अबू सुफ़ियान और इकरिमा बिन अबू जहल और सुहैल बिन अम्र ईमान से मुशर्रफ़ हुए.

(20) इख़्लास के साथ अल्लाह की राह में.

(21) इससे मालूम हुआ कि मुख़लिस ग़ैर-मुख़लिस में इम्तियाज़ कर दिया जाएगा और तात्पर्य इससे मुसलमानों को मुश्रिकों के साथ उठने बैठने और उनके पास मुसलमानों के राज़ पहुंचाने से मना करना है.

सूरए तौबह – तीसरा रूकू

सूरए तौबह – तीसरा रूकू

मुश्रिकों को नहीं पहुंचता कि अल्लाह की मस्जिदें आबाद करें (1)
ख़ुद अपने कुफ़्र की गवाही देकर (2)
उनका तो सब किया-धरा अकारत है, और वो हमेशा आग में रहेंगे (3){17}
अल्लाह की मस्जिदें वही आबाद करते हैं जो अल्लाह और क़यामत पर ईमान लाते और नमाज़ क़ायम करते हैं और ज़कात देते हैं (4)
और अल्लाह के सिवा किसी से नहीं डरते,(5)
तो क़रीब है कि ये लोग हिदायत वालों में हों {18} तो क्या तुमने हाजियों की सबील (प्याऊ) और मस्जिदे हराम की ख़िदमत उसके बराबर ठहराली जो अल्लाह और क़यामत पर ईमान लाया और अल्लाह की राह में जिहाद किया, वो अल्लाह के नज़दीक बराबर नहीं, और अल्लाह ज़ालिमों को राह नहीं देता (6) {19}
वो जो ईमान लाए और हिजरत की और अपने माल जान से अल्लाह की राह में लड़े अल्लाह के यहाँ उनका दर्जा बड़ा है, (7)
और वही मुराद को पहुंचे (8){20}
उनका रब उन्हें ख़ुशी सुनाता है अपनी रहमत और अपनी रज़ा की (9)
और उन बाग़ों की जिनमें उन्हें सदा की नेअमत है {21} हमेशा हमेशा उनमें रहेंगे, बेशक अल्लाह के पास बड़ा सवाब है {22} ऐ ईमान वालो अपने बाप और अपने भाईयों को दोस्त न समझो अगर वो ईमान पर कुफ़्र पसन्द करें, और तुम में जो कोई उनसे दोस्ती करेगा तो वही ज़ालिम हैं (10){23}
तुम फ़रमाओ अगर तुम्हारे बाप और तुम्हारे बेटे और तुम्हारे भाई और तुम्हारी औरतें और तुम्हारा कुटुम्ब और तुम्हारी कमाई के माल और वह सूद जिसके नुक़सान का तुम्हें डर है और तुम्हारी पसन्द का मकान ये चीज़ें अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में लड़ने से ज़्यादा प्यारी हो तो रास्ता देखों यहाँ तक कि अल्लाह अपना हुक्म लाए (11)
और अल्लाह फ़ासिक़ों को राह नहीं देता {24}
तफ़सीर
सूरए तौबह – तीसरा रूकू

(1) मस्जिदों से मस्जिदे हराम काबए मुअज़्ज़मा मुराद है. इसको बहुवचन से इसलिये ज़िक्र फ़रमाया कि वह तमाम मस्जिदों का क़िबला और इमाम है. उसका आबाद करने वाला ऐसा है जैसे तमाम मस्जिदों का आबाद करने वाला. बहुवचन लाने की यह वजह भी हो सकती है कि मस्जिदे हराम का हर कोना मस्जिद है, और यह भी हो सकती है कि मस्जिदों से जिन्स मुराद हो और काबए मुअज़्ज़मा इसमें दाख़िल हो क्योंकि वह उस जिन्स का सदर है. क़ुरैश के काफ़िरों के सरदारों की एक जमाअत जो बद्र में गिरफ़्तार हुई और उनमें हुज़ूर के चचा हज़रत अब्बास भी थे, उनको सहाबा ने शिर्क पर शर्म दिलाई और अली मुर्तज़ा ने तो ख़ास हज़रत अब्बास को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मुक़ाबिल आने पर बहुत सख़्त सुस्त कहा. हज़रत अब्बास कहने लगे कि तुम हमारी बुराईयाँ तो बयान करते हो और हमारी खूबियाँ छुपाते हो. उनसे कहा गया, क्या आपकी कुछ ख़ूबियाँ भी हैं. उन्होंने कहा, हाँ हम तुम से अफ़ज़ल हैं, हम मस्जिदे हराम को आबाद करते हैं, काबे की खिदमत करते हैं, हाजियों को सैराब करते हैं, असीरों को रिहा कराते हैं. इसपर यह आयत उतरी कि मस्जिदों का आबाद करना काफ़िरों को नहीं पहुंचता क्योंकि मस्जिद आबाद की जाती है अल्लाह की इबादत के लिये, तो जो ख़ुदा ही का इन्कारी हो, उसके साथ कुफ़्र करे, वह क्या मस्जिद आबाद करेगा. आबाद करने के मानी में भी कई क़ौल हैं, एक तो यह कि आबाद करने से मस्जिद का बनाना, बलन्द करना, मरम्मत करना मुराद है. काफ़िर को इससे मना किया जाएगा. दूसरा क़ौल यह है कि मस्जिद आबाद करने से उसमें दाख़िल होना बैठना मुराद है.

(2) और बुत परस्ती का इक़रार करके, यानी ये दोनों बातें किस तरह जमा हो सकती हैं कि आदमी काफ़िर भी हो और ख़ास इस्लामी और तौहीद के इबादत ख़ाने को आबाद भी करे.

(3) क्योंकि कुफ़्र की हालत के कर्म मक़बूल नहीं, न मेहमानदारी न हाजियों की ख़िदमत, न क़ैदियों का रिहा कराना, इसलिये कि काफ़िर का कोई काम अल्लाह के लिये तो होता नहीं, लिहाज़ा उसका अमल सब अकारत है, और अगर वह उसी कुफ़्र पर मरजाए तो जहन्नम में उनके लिये हमेशा का अज़ाब है.

(4) इस आयत में यह बयान किया गया कि मस्जिदों के आबाद करने के मुस्तहिक़ ईमान वाले हैं. मस्जिदों के आबाद करने में ये काम भी दाख़िल हैं, झाडू देना, सफ़ाई करना, रौशनी करना और मस्जिदों को दुनिया की बातों से और ऐसी चीज़ों से मेहफ़ूज़ रखना जिनके लिये वो नहीं बनाई गई. मस्जिदे इबादत करने और ज़िक्र करने के लिये बनाई गई हैं और इल्म का पाठ भी ज़िक्र में दाख़िल है.

(5) यानी किसी की रज़ा को अल्लाह की रज़ा पर किसी अन्देशे से भी प्राथमिकता नहीं देते. यही मानी हैं अल्लाह से डरने और ग़ैर से न डरने के.

(6) मुराद यह है कि काफ़िरों को ईमान वालों से कुछ निस्बत नहीं, न उनके कर्मों को उनके कर्मों से, क्योंकि काफ़िर के कर्म व्यर्थ हैं चाहे वो हाजियों के लिये सबील लगाएं या मस्जिदे हराम की ख़िदमत करें, उनके आमाल को ईमान वालों के आमाल के बराबर क़रार देना ज़ुल्म है. बद्र के दिन जब हज़रत अब्बास गिरफ़्तार होकर आए तो उन्होंने रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सहाबा से कहा कि तुमको इस्लाम और हिजरत और जिहाद में सबक़त हासिल है. तो हमको भी मस्जिद हराम की ख़िदमत और हाजियों के लिये सबीलें लगाने का गौरव प्राप्त है. इस पर यह आयत उतरी और ख़बरदार किया गया कि जो अमल ईमान के साथ न हों वो बेकार हैं.

(7) दूसरों से.

(8) और उन्हीं को दुनिया और आख़िरत की ख़ुशनसीबी मिली.

(9) और यह सबसे बड़ी ख़ुशख़बरी है, क्योंकि मालिक की रहमत और ख़ुशनूदी बन्दे का सबसे बड़ा मक़सद और प्यारी मुराद है.

(10) जब मुसलमानों को मुश्रिकों के साथ मिलने जुलने, उठने बैठने और हर तरह के सम्बन्ध तोड़ने का हुक्म दिया गया तो कुछ लोगों ने कहा यह कैसे सम्भव है कि आदमी अपने बाप भाई वग़ैरह रिश्तेदारों से सम्बन्ध तोड़ दे. इस पर यह आयत उतरी और बताया गया कि काफ़िरों से सहयोग जायज़ नहीं चाहे उनसे कोई भी रिश्ता हो. चुनांचे आगे इरशाद फ़रमाया.

(11) और जल्दी आने वाले अज़ाब में जकड़े या देर में आने वाले में. इस आयत से साबित हुआ कि दीन के मेहफ़ूज़ रखने के लिये दुनिया की मशक़्क़त बरदाश्त करना मुसलमान पर लाज़िम है और अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी के मुक़ाबिले दुनिया के ताल्लुक़ात की कुछ हैसियत नहीं और ख़ुदा व रसूल की महब्बत ईमान की दलील है.

सूरए तौबह – चौथा रूकू

सूरए तौबह – चौथा रूकू

बेशक अल्लाह ने बहुत जगह तुम्हारी मदद की (1)
और हुनैन के दिन जब तुम अपनी कसरत (ज़्यादा नफ़री) पर इतरा गए थे तो वह तुम्हारे कुछ काम न आई(2)
और ज़मीन इतनी वसाऐ (विस्तृत) होकर तुम पर तंग हो गई(3)
फिर तुम पीठ देकर फिर गए {25} फिर अल्लाह ने अपनी तसकीन उतारी अपने रसूल पर (4)
और मुसलमानों पर (5)
और वो लश्कर उतारे जो तुम ने न देखे(6)
और काफ़िरों को अज़ाब दिया(7)
और इन्कार करने वालों की यही सज़ा है {26} फिर उसके बाद अल्लाह जिसे चाहेगा तौबह देगा(8)
और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {27},
ऐ ईमान वालो मुश्रिक निरे नापाक हैं (9)
तो इस सब के बाद वो मस्जिदे हराम के पास न आने पाएं (10)
और अगर तुम्हें मोहताजी (दरिद्रता) का डर है (11)
तो बहुत जल्द अल्लाह तुम्हें धनवान कर देगा अपने फ़ज़्ल से अगर चाहे(12)
बेशक अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है {28} लड़ो उनसे जो ईमान नहीं लाते अल्लाह पर और क़यामत पर (13)
और हराम नहीं मानते उस चीज़ को जिसको हराम किया अल्लाह और उसके रसूल ने(14)
और सच्चे दीन (15)
के ताबे (अधीन) नहीं देते यानी वो जो किताब दिये गए जब तक अपने हाथ से जिज़िया न दें ज़लील होकर(16){29}

तफ़सीर
सूरए तौबह – चौथा रूकू

(1) यानी रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ग़ज़वात यानी लड़ाईयों में मुसलमानों को काफ़िरों पर ग़लबा अता फ़रमाया, जैसा कि बद्र और क़ुरैज़ा और नुज़ैर और हुदैबिया और मक्का की विजय में.

(2) हुनैन एक घाटी है ताइफ़ के क़रीब, मक्कए मुकर्रमा से चन्द मील के फ़ासले पर, यहाँ मक्का की विजय से थोड़े ही रोज़ बाद क़बीलए हवाज़िन व सक़ीफ़ से जंग हुई. इस जंग में मुसलमानों की संख्या बहुत ज़्यादा, बारह हज़ार या इससे अधिक थी और मुश्रिक चार हज़ार थे. जब दोनों लश्कर आमने सामने हुए तो मुसलमानों में से किसी ने अपनी कसरत यानी बड़ी संख्या पर नज़र करके कहा कि अब हम हरगिज़ नहीं हारेंगे. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को बहुत बुरा लगा. क्योंकि हुज़ूर हर हाल में अल्लाह पर भरोसा फ़रमाते थे और तादाद के कम या ज़्यादा होने पर नज़र न रखते थे. जंग शुरू हुई और सख़्त लड़ाई हुई. मुश्रिक भागे और मुसलमान ग़नीमत का माल लेने में व्यस्थ हो गए तो भागे हुए लश्कर ने इस मौक़े का फ़ायदा उठाया और तीरों की बारिश शुरू कर दी. और तीर अन्दाज़ी में वो बहुत माहिर थे. नतीजा यह हुआ कि इस हंगामे में मुसलमानों के क़दम उखड़ गए, लश्कर भाग पड़ा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास सिवाय हुज़ूर के चचा हज़रत अब्बास और आपके चचाज़ाद अबू सुफ़ियान बिन हारिस के और कोई बाक़ी न रहा. हुज़ूर ने उस वक़्त अपनी सवारी को काफ़िरों की तरफ़ आगे बढ़ाया और हज़रत अब्बास को हुक्म दिया कि वह बलन्द आवाज़ में अपने साथियों को पुकारें. उनके पुकारने से वो लोग लब्बैक लब्बैक कहते हुए पलट आए और काफ़िरों से जंग शुरू हो गई. जब लड़ाई ख़ूब गर्म हुई. तब हुज़ूर ने अपने दस्ते मुबारक में कंकरियाँ लेकर काफ़िरों के मुंहों पर मारीं और फ़रमाया, मुहम्मद के रब की क़सम, भाग निकले. कंकरियों का मारना था कि काफ़िर भाग पड़े और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनकी ग़निमतें मुसलमानों को तक़सीम फ़रमा दीं. इन आयतों में इसी घटना का बयान है.

(3) और तुम वहाँ ठहर न सके.

(4)  कि इत्मीनान के साथ अपनी जगह क़ायम रहे.

(5) कि हज़रत अब्बास रदियल्लाहो अन्हो के पुकारने से नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में वापस आए.

(6) यानी फ़रिश्ते जिन्हें काफ़िरों ने चितकबरे घोड़ों पर सफ़ेद लिबास पहने अमामा बांधे देखा. ये फ़रिश्ते मुसलमानों की शौकत बढ़ाने के लिये आए थे. इस जंग में उन्होंने लड़ाई नहीं की. लड़ाई सिर्फ़ बद्र में की थी.

(7) कि पकड़े गए, मारे गए, उनके अयाल और अमवाल मुसलमानों के हाथ आए.

(8) और इस्लाम की तौफ़ीक़ अता फ़रमाएगा, चुनांचे हवाज़िन के बाक़ी लोगों को तौफ़ीक़ दी और वो मुसलमान होकर रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए और हुज़ूर ने उनके क़ैदियों को रिहा फ़रमा दिया.

(9) कि उनका बातिन ख़बीस है और वो न तहारत करते हैं न नापाकियों से बचते हैं.

(10) न हज के लिये, न उमरे के लिये. और इस साल से मुराद सन नौ हिजरी है. और मुश्रिकों के मना करने के मानी ये हैं कि मुसलमान उनको रोकें.

(11) कि मुश्रिकों को हज से रोक देने से व्यापार को नुक़सान पहुंचेगा और मक्का वालों को तंगी पेश आएगी.

(12) इकरिमा ने कहा, ऐसा ही हुआ. अल्लाह तआला ने उन्हें ग़नी कर दिया. बारिशें ख़ूब हुई. पैदावार कसरत से हुई. मक़ातिल ने कहा कि यमन प्रदेश के लोग मुसलमान हुए और उन्होंने मक्का वालों पर अपनी काफ़ी दौलत ख़र्च की. अगर चाहे फ़रमाने में तालीम है कि बन्दे को चाहिये कि अच्छाई और भलाई की तलब और आफ़तों के दूर होने के लिये हमेशा अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जह रहे और सारे कर्मो को उसी की मर्ज़ी से जुड़ा जाने.

(13) अल्लाह पर ईमान लाना यह है कि उसकी ज़ात और सारी सिफ़ात और विशेषताओं को माने और जो उसकी शान के लायक़ न हो, उसकी तरफ़ निस्बत न करे. कुछ मफ़स्सिरों ने रसूलों पर ईमान लाना भी अल्लाह पर ईमान लाने में दाख़िल क़रार दिया है. तो यहूदी  ईसाई अगरचे अल्लाह पर ईमान लाने का दावा करते हैं लेकिन उनका यह दावा बिल्कुल ग़लत है क्योंकि यहूदी अल्लाह के लिये जिस्म और तश्बीह के, और ईसाई अल्लाह के हज़रत ईसा के शरीर में प्रवेश कर जाने को मानते हैं. तो वो किस तरह अल्लाह पर ईमान लाने वाले हो सकते हैं. ऐसे ही यहूदियों में से जो हज़रत उज़ैर को और ईसाई हज़रत मसीह को ख़ुदा का बेटा कहते हैं, तो उनमें से कोई भी अल्लाह पर ईमान लाने वाला न हुआ. इसी तरह जो एक रसूल को झुटलाए, वह अल्लाह पर ईमान लाने वाला नहीं. यहूदी और ईसाई बहुत से नबियों को झुटलाते हैं लिहाज़ा वो अल्लाह पर ईमान लाने वालों में नहीं. मुजाहिद का क़ौल है कि यह आयत उस वक़्त उतरी जबकि नबिये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को रोम से जंग करने का हुक्म दिया गया, और इसीके नाज़िल होने के बाद ग़ज़वए तबूक हुआ. कल्बी का क़ौल है कि यह आयत यहूदियों के क़बीले क़ुरैज़ा और नुज़ैर के हक़ में उतरी. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनसे सुलह मंजूर फ़रमाई और यही पहला जिज़िया है जो मुसलमानों को मिला और पहली ज़िल्लत है जो काफ़िरों को मुसलमानों के हाथ से पहुंची.

(14) क़ुरआन और हदीस में, और कुछ मु़फ़स्सिरों का क़ौल है कि मानी ये हैं कि तौरात व इंजील के मुताबिक अमल नहीं करते, उनमें हेर फेर करते हैं, और अहकाम अपने दिल से घड़ते है.

(15) इस्लाम दीने इलाही.

(16) एहद में बन्धे किताब वालों से जो ख़िराज लिया जाता है उसका नाम जिज़िया है. यह जिज़िया नक़द लिया जाता है. इसमें उधार नहीं. जिज़िया देने वाले को ख़ुद हाज़िर होकर देना चाहिये. पैदल हाज़िर हो, खड़े होकर पेश करे. जिज़िया क़ुबूल करने में तुर्क व हिन्दू किताब वालों के साथ जुड़े हैं सिवा अरब के मुश्रिकों के, कि उनसे जिज़िया क़ुबूल नहीं. इस्लाम लाने से जिज़िया मुक़र्रर करने की हिकमत यह है कि काफ़िरों को मोहलत दी जाए ताकि वो इस्लाम की विशेषताओं और दलीलों की शक्ति देखें और पिछली किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़बर और हुज़ूर की तारीफ़ देखकर इस्लाम लाने का मौक़ा पाएं.

सूरए तौबह – पाँचवाँ रूकू

सूरए तौबह – पाँचवाँ रूकू

और यहूदी बोले उज़ैर अल्लाह का बेटा है(1)
और नसरानी (ईसाई) बोले मसीह अल्लाह का बेटा है, ये बातें वो अपने मुंह से बकते हैं(2)
अगले काफ़िरों की सी बात बनाते हैं अल्लाह उन्हें मारे, कहाँ औंधे जाते हैं (3){30}
उन्होंने अपने पादरियों और जोगियों को अल्लाह के सिवा ख़ुदा बना लिया(4)
और मरयम के बेटे मसीह को(5)
और उन्हें हुक्म न था(6)
मगर यह कि एक अल्लाह को पूजें उसके सिवा किसी की बन्दगी नहीं उसे पाकी है उनके शिर्क से{31}चाहते हैं कि अल्लाह का नूर (7)
अपने मुंह से बुझा दें और अल्लाह न मानेगा मगर अपने नूर का पूरा करना (8)
पड़े बुरा मानें काफ़िर{32} वही हैं जिसने अपना रसूल (9)
हिदायत और सच्चे दीन के साथ भेजा कि उसे सब दीनों पर ग़ालिब करे(10)
पड़े बुरा माने मुश्रिक {33} ऐ ईमान वालों बेशक बहुत पादरी और जोगी लोगों का माल नाहक़ खा जाते हैं (11)
और अल्लाह की राह से (12)
रोकते हैं और वो कि जोड़ कर रखते हैं सोना और चांदी और उसे अल्लाह की राह में ख़र्च नहीं करते (13)
उन्हें ख़ुशख़बरी सुनाओ दर्दनाक अज़ाब की {34} जिस दिन वह तपाया जाएगा जहन्नम की आग में(14)
फिर उससे दाग़ेंगे उनकी पेशानियाँ और कर्वटें और पीठें (15)
यह है वह जो तुमने अपने लिये जोड़ कर रखा था तो अब चखो मज़ा उस जोड़ने का{35} बेशक महीनों की गिनती अल्लाह के नज़दीक बारह महीने हैं (16)
अल्लाह की किताब (17)
जब से उसने आसमान और ज़मीन बनाए उनमें से चार हुरमत (धर्मनिषेध) वाले हैं, (18)
यह सीधा दीन है तो इन महीनों में (19)
अपनी जान पर ज़ुल्म न करो और मुश्रिकों से हर वक़्त लड़ो जैसा वो तुम से हर वक़्त लड़ते हैं, और जान लो कि अल्लाह परहेज़गारों के साथ है (20) {36}
उनका महीने पीछे हटाना नहीं मगर और कुफ़्र में बढ़ना (21)
इससे काफ़िर बहकाये जाते हैं एक बरस उसे (22)
हलाल ठहराते हैं और दूसरे बरस उसे हराम मानते हैं कि उस गिनती के बराबर हो जाएं जो अल्लाह ने हराम फ़रमाई(23)
और अल्लाह के हराम किये हुए हलाल कर लें उनके बुरे काम उनकी आँखों में भले लगते हैं, और अल्लाह काफ़िरों को राह नहीं देता {37}

तफ़सीर
सूरए तौबह – पाँचवाँ रूकू

(1) किताब वालों की बेदीनी का जो ऊपर ज़िक्र फ़रमाया गया यह उसकी तफ़सील है कि वो अल्लाह की जनाब में ऐसे ग़लत अक़ीदे रखते हैं और मख़लूक़ को अल्लाह का बेटा बनाकर पूजते हैं. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में यहूदियों की एक जमाअत आई. वो लोग कहने लगे कि हम आपका अनुकरण कैसे करें, आपने हमारा क़िबला छोड़ दिया और आप उज़ैर को ख़ुदा का बेटा नहीं समझते. इस पर यह आयत उतरी.

(2) जिन पर न कोई दलील न प्रमाण, फिर अपनी जिहालत से इस खुले झुट को मानते भी हैं.

(3) और अल्लाह तआला के एक होने पर, तर्क क़ायम होने और खुले प्रमाण मिलने के बावुजूद, इस कुफ़्र में पड़ते हैं.

(4) अल्लाह के हुक्म को छोड़कर उनके हुक्म के पाबन्द हुए.

(5) कि उन्हें भी ख़ुदा बनाया और उनकी निस्बत यह ग़लत अक़ीदा रखा कि वो ख़ुदा या ख़ुदा के बेटे हैं या ख़ुदा ने उनके अन्दर प्रवेश किया है.

(6) उनकी किताबों में, न उनके नबियों की तरफ़ से.

(7) यानी इस्लाम या सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत की दलीलें.

(8) और अपने दीन को ग़लबा देना.

(9) मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(10) और उसकी हुज्जत मज़बूत करे और दूसरे दीनों को उससे स्थगित करे. चुनांचे ऐसा ही हुआ. ज़ुहाक का क़ौल है कि यह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने नुज़ूल के वक़्त ज़ाहिर होगा जबकि कोई दीन वाला ऐसा न होगा जो इस्लाम में दाख़िल न हो जाए. हज़रत अबू हुरैरा की हदीस में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के ज़माने में इस्लाम के सिवा हर मिल्लत हलाक हो जाएगी.

(11) इस तरह कि दीन के आदेश बदल कर लोगों से रिश्वतें लेते हैं और अपनी किताबों में, सोने के लालच में, हेर फेर करते हैं और पिछली किताबों की जिन आयतों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ और विशेषताएं दर्ज हैं, माल हासिल करने के लिये उनमें ग़लत व्याख्याएं और फेर बदल करते हैं.

(12) इस्लाम से, और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने से.

(13) कंजूसी करते हैं और माल के हुक़ूक़ अदा नहीं करते. ज़कात नहीं देते. सदी का क़ौल है कि यह आयत ज़कात का इन्कार करने वालों के बारे में उतरी जबकि अल्लाह तआला ने पादरियों और राहिबों के लालच का बयान फ़रमाया, तो मुसलमानों को माल जमा करने और उसके हुक़ूक़ अदा न करने से डराया. हज़रत इब्ने उमर रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि जिस माल की ज़कात दी गई वह ख़ज़ाना नहीं, चाहे दफ़ीना ही हो. और जिसकी ज़कात न दी गई, वह ख़ज़ाना है जिसका ज़िक्र क़ुरआन में हुआ कि उसके मालिक को उससे दाग़ दिया जाएगा. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से सहाबा ने अर्ज़ किया कि सोने चांदी का तो यह हाल मालूम हुआ फिर कौन सा माल बेहतर है जिसको जमा किया जाए. फ़रमाया, ज़िक्र करने वाली ज़बान और शुक्र करने वाला दिल, और नेक बीबी जो ईमानदार की उसके ईमान पर मदद करें यानी परहेज़गार हो कि उसकी सोहबत से ताअत व इबादत का शौक़ बढ़े. (तिरमिज़ी). माल का जमा करना मुबाह है, मज़मूम नहीं जब कि उसके हुक़ूक़ अदा किये जाएं. हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ़ और हज़रत तलहा वग़ैरह सहाबा मालदार थे और जो सहाबा कि माल जमा करने से नफ़रत रखते थे वो उन पर ऐतिराज़ न करते थे.

(14) और गर्मी की सख़्ती से सफ़ेद हो जाएगा.

(15) जिस्म के चारों तरफ़, और कहा जाएगा.

(16) यहाँ यह बयान फ़रमाया गया कि शरीअत के एहकाम चाँद के महीनों पर हैं.

(17) यहाँ अल्लाह की किताब से, यह लौहे मेहफ़ूज़ मुराद है या क़ुरआन, यह वह हुक्म जो उसने अपने बन्दों पर लाज़िम किया.

(18) तीन जुड़े ज़ुलक़ादा, ज़िलहज व मुहर्रम और एक अलग रजब. अरब लोग जिहालत के दौर में भी इन महीनों का आदर करते थे और इनमें लड़ाई क़त्ल और ख़ून हराम जानते थे. इस्लाम में इन महीनों की हुरमत और अज़मत और ज़्यादा की गई.

(19) गुनाह और नाफ़रमानी से.

(20) उनकी मदद फ़रमाएगा.

(21) नसी शब्दकोष में समय के पीछे करने को कहते हैं और यहाँ शहरे हराम (वर्जित महीने) की हुरमत का दूसरे महीने की तरफ़ हटा देना मुराद है. जिहालत के दौर में अरब, वर्जित महीनों यानी ज़ुलक़अदा व ज़िलहज व मुहर्रम व रजब की पाकी और महानता के मानने वाले थे. तो जब कभी लड़ाई के ज़माने में ये वर्जित महीने आजाते तो उनको बहुत भारी गुज़रते. इसलिये उन्होंने यह किया कि एक महीने की पाकी दूसरे की तरफ़ हटाने लगे. मुहर्रम की हुरमत सफ़र की तरफ़ हटा कर मुहर्रम में जंग जारी रखते और बजाय इसके सफ़र को माहे हराम बना लेते और जब इससे भी हुरमत हटाने की ज़रूरत समझते तो उसमें भी जंग हलाल कर लेते और रबीउल अव्वल को माहे हराम क़रार देते इस तरह हुरमत साल के सारे महीनों में घूमती और उनके इस तरीक़े से वर्जित महीनों की विशेषता ही बाक़ी न रही. इसी तरह हज को मुख्तलिफ़ महीनों में घुमाते फिरते थे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज्जतुल वदाअ में ऐलान फ़रमाया कि नसी के महीने गए गुज़रे हो गए, अब महीनों के औक़ात जो अल्लाह की तरफ़ से मुक़र्रर किये गए हैं, उनकी हिफ़ाजत की जाए और कोई महीना अपनी जगह से न हटाया जाए. इस आयत में नसी को वर्जित क़रार दिया गया और कुफ़्र पर कुफ़्र की ज़ियादती बताया गया, क्योंकि इसमें वर्जित महीनों में जंग की हुरमत को हलाल जानना और ख़ुदा के हराम किये हुए को हलाल कर लेना पाया जाता है.

(22) यानी वर्जित महीने को या इस हटाने को.

(23) यानी वर्जित महीने चार ही रहें, इसकी तो पाबन्दी करते है, और उनकी निश्चितता तोड़ कर अल्लाह के हुक्म की मुख़ालिफ़त. जो महीना हराम था उसे हलाल कर लिया, उसकी जगह दूसरे को हराम क़रार दे दिया.