सूरए अनआम

सूरए अनआम मक्के में उतरी, इसमें 165 आयतें और बीस रूकू हैं.
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला (1)

सूरए अनआम पहला रूकू

सब ख़ूबियां अल्लाह को जिसने आसमान और ज़मीन बनाए (2)
और अंधेरियां और रोशनी पैदा की (3)
उसपर (4)
काफ़िर लोग अपने रब के बराबर ठहराते हैं (5) {1}
वही है जिसने तुम्हें (6)
मिट्टी से पैदा किया फिर एक मीआद (मुद्दत) का हुक्म रखा (7)
और एक निश्चित वादा उसके यहां है (8)
फिर तुम लोग शक करते हो {2} और वही अल्लाह है आसमानों और ज़मीन का (9)
उसे तुम्हारा छुपा और ज़ाहिर सब मालूम है और तुम्हारे काम जानता है {3} और उनके पास कोई भी निशानी अपने रब की निशानियों से नहीं आती मगर उससे मुंह फेर लेते हैं  {4} तो बेशक उन्होंने सत्य को झुटलाया  (10)
जब उनके पास आया तो अब उन्हें ख़बर हुआ चाहती है उस चीज़ की जिसपर हंस रहे थे (11) {5}
क्या उन्होंने न देखा कि हमने उनसे पहले (12)
कितनी संगते खपा दीं उन्हें हमने ज़मीन में वह जमाव दिया (13)
जो तुमको न दिया और उनपर मूसलाधार पानी भेजा  (14)
और उनके नीचे नेहरें बहाईं (15)
तो उन्हें हमने उनके गुनाहों के सबब हलाक किया (16)
और उनके बाद और संगत उठाई (17){6}
और अगर हम तुमपर कागज़ में कुछ लिखा हुआ उतारते (18)
कि वो उसे अपने हाथों से छूते जब भी काफ़िर कहते कि यह नहीं मगर खुला जादू {7}  और बोले (19)
उनपर (20)
कोई फ़रिश्ता क्यों न उतारा गया और अगर हम फ़रिश्ता उतारते (21)
तो काम तमाम हो गया होता (22)
फिर उन्हें मोहलत (अवकाश) न दी जाती (23) {8}
और अगर हम नबी को फ़रिश्ता करते (24)
जब भी उसे मर्द ही बनाते  (25)
और उनपर वही शुबह रखते जिसमें अब पड़े हैं {9}  और ज़रूर ऐ मेहबूब तुमसे पहले रसूलों के साथ भी ठट्ठा किया गया तो वो जो उनसे हंसते ये उनकी हंसी उनको ले बैठी (26) {10}

6 – सूरए अनआम – पहला रूकू

(1) सूरए अनआम मक्के में उतरी. इसमें बीस रूकू और 165 आयतें, तीन हज़ार एक सौ कलिमे और बारह हज़ार नौसो पैंतीस अक्षर हैं. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कुल सूरत एक ही रात में मक्कए मुकर्रमा में उतरी और इसके साथ सत्तर हज़ार फ़रिश्ते आए जिन से आसमानों के किनारे भर गए. यह भी एक रिवायत में है कि वो फ़रिश्ते तस्बीह करते और अल्लाह की पाकी बोलते आए और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम “सुब्हाना रब्बियल अज़ीम” फ़रमाते हुए सिजदे में चले गए.

(2) हज़रत कअब अहबार रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया, तौरात में सब से पहली यही आयत है. इस आयत में बन्दों को इस्तग़ना की शान के साथ अल्लाह की तारीफ़ बयान करने की तालीम फ़रमाई गई है और आसमान व ज़मीन की उत्पत्ति का ज़िक्र इसलिये है कि उनमें देखने वालों के लिये क़ुदरत के बहुत से चमत्कार, हिकमते और सबक़ लेने वाली और फ़ायदे वाली बातें हैं.

(3) यानी हर एक अन्धेरी और रौशनी, चाहे वह अन्धेरी रात की हो या कुफ़्र की या जिहालत की या जहन्नम की. और रौशनी चाहे दिन की हो या ईमान और हिदायत व इल्म व जन्नत की. अन्धेरी को बहुवचन और रौशनी को एक वचन से बयान करने में इस तरफ़ इशारा है कि बातिल की राहें बहुत सी हैं और सच्चाई का रास्ता सिर्फ़ एक, दीने इस्लाम.

(4) यानी ऐसे प्रमाणों पर सूचित होने और क़ुदरत की ऐसी निशानियाँ  देखने के बावुजूद.

(5) दूसरों को, यहाँ तक कि पत्थरों को पूजते हैं जबकि इस बात का इक़रार करते हैं कि आसमानों और ज़मीन का पैदा करने वाला अल्लाह है.

(6) यानी तुम्हारी अस्ल हज़रत आदम को, जिनकी नस्ल से तुम पैदा हुए. इसमें मुश्रिकों का रद है जो कहते थे कि जब हम गल कर मिट्टी हो जाएंगे फिर कैसे ज़िन्दा किये जाएंगे. उन्हें बताया गया कि तुम्हारी अस्ल मिट्टी ही से है तो फिर दोबारा पैदा किये जाने पर क्या आश्चर्य. जिस क़ुदरत वाले ने पहले पैदा किया उसकी क़ुदरत से मरने के बाद ज़िन्दा किये जाने को असंभव समझना नादानी है.

(7) जिसके पूरा हो जाने पर तुम मर जाओगे.

(8) मरने के बाद उठाने का.

(9) उसका कोई शरीक नहीं.

(10) यहाँ सत्य से या क़ुरआन शरीफ़ की आयतें मुराद हैं या सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके चमत्कार.

(11) कि वह कैसी महानता वाली है और उसकी हंसी बनाने का अंजाम कैसा वबाल और अज़ाब.

(12) पिछली उम्मतों में से.

(13) ताक़त व माल और दुनिया के बहुत से सामान देकर.

(14) जिससे खेतियाँ हरी भरी हों.

(15) जिससे बाग़ फले फूले और दुनिया की ज़िन्दगानी के लिये ऐश व राहत के साधन उपलब्ध हों.

(16) कि उन्होंने नबियों को झुटलाया और उनका यह सामान उन्हें हलाक से न बचा सका.

(17) और दूसरे ज़माने वालों को उनका उत्तराधिकारी किया. मतलब यह है कि गुज़री हुई उम्मतों के हाल से सबक़ और नसीहत हासिल करनी चाहिये कि वो लोग ताक़त, दौलत और माल की कसरत और औलाद की बहुतात के बावजूद कुफ़्र और बग़ावत की वजह से हलाक कर दिये गए तो चाहिये कि उनके हाल से सबक़ हासिल करके ग़फ़लत की नींद से जागे.

(18) यह आयत नज़र बिन हारिस और अब्दुल्लाह बिन उमैया और नोफ़ल बिन ख़ूलद के बारे में उतरी जिन्होंने कहा था कि मुहम्मद पर हम हरगिज़ ईमान न लाएंगे जब तक तुम हमारे पास अल्लाह की तरफ़ से किताब न लाओ जिसके साथ चार फ़रिश्ते हों, वो गवाही दें कि यह अल्लाह की किताब है और तुम उसके रसूल हो. इस पर यह आयत उतरी और बताया गया कि ये सब हीले बहाने हैं अगर काग़ज पर लिखी हुई किताब उतार दी जाती और वो उसे अपने हाथों से छूकर और टटोल कर देख भी लेते और यह कहने का मौक़ा भी न होता कि नज़रबन्दी कर दी गई थी. किताब उतरती नज़र आई, था कुछ भी नहीं, तो भी ये बदनसीब ईमान लाने वाले न थे, उसको जादू बताते और जिस तरह चाँद चिर जाने को जादू बताया था और उस चमत्कार को देखकर ईमान न लाए थे उसी तरह इस पर भी ईमान न लाते क्योंकि जो लोग दुश्मनी के कारण इन्कार करते हैं वो आयतों और चमत्कारों से फ़ायदा नहीं उठा पातें.

(19) मुश्रिक लोग.

(20) यानी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर.

(21) और फिर भी ये ईमान न लाते.

(22) यानी अज़ाब वाजिब हो जाता और यह अल्लाह की सुन्नत है कि जब काफ़िर कोई निशानी तलब करें और उसके बाद भी ईमान न लाएं तो अज़ाब वाजिब हो जाता है और वो हलाक कर दिये जाते हैं.

(23) एक क्षण की भी, और अज़ाब में देरी न की जाती तो फ़रिश्ते का उतारना जिसको वो तलब करते हैं, उन्हें क्या नफ़ा देता.

(24) यह उन काफ़िरों का जवाब है जो नबी अलैहिस्सलाम को कहा करते थे कि यह हमारी तरह आदमी हैं और इसी पागलपन में वो ईमान से मेहरूम रहते थे. इन्हीं इन्सानों में से रसूल भेजने की हिकमत बताई जाती है कि उनके फ़ायदा उठाने और नबी की तालीम से फैज़ उठाने की यही सूरत है कि नबी आदमी की सूरत में आए क्योंकि फ़रिश्ते को उसकी अस्ली सूरत में देखने की तो ये लोग हिम्मत न कर सकते, देखते ही दहशत से बेहोश हो जाते या मर जाते, इसलिये अगर मान लो रसूल फ़रिश्ता ही बनाया जाता.

(25) और इन्सान की सूरत ही में भेजते ताकि ये लोग उसको देख सकें, उसका कलाम सुन सकें, उससे दीन के अहकाम मालूम कर सकें. लेकिन अगर फ़रिश्ता आदमी की सूरत में आता तो उन्हें फिर वही कहने का मौक़ा रहता कि यह आदमी है. तो फ़रिश्ते को नबी बनाने का क्या फ़ायदा होता.

(26) वो अज़ाब में जकड़े गए. इसमें नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तसल्ली है कि आप दुखी न हों, काफ़िरों का पहले नबियों के साथ भी यही तरीक़ा रहा है और इसका वबाल उन काफ़िरों को उठाना पड़ा है. इसके अलावा मुश्रिकों को चेतावनी है कि पिछली उम्मतों के हाल से सबक़ लें और नबियों के साथ अदब से पेश आएं ताकि पहलों की तरह अज़ाब में न जकड़े जाएं.

सूरए अनआम – दूसरा रूकू

सूरए अनआम – दूसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला


तुम फ़रमा दो (1)
ज़मीन में सैर करो फिर देखो कि झुटलाने वालों का कैसा अंजाम हुआ (2) (11)
तुम फ़रमाओ किस का है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है (3)
तुम फ़रमाओ अल्लाह का है (4)
उसने अपने करम (दया) के ज़िम्मे पर रहमत लिख ली है (5)
बेशक ज़रूर तुम्हें क़यामत के दिन जमा करेगा (6)
इसमें कुछ शक नहीं वो जिन्हों ने अपनी जान नुक़सान में डाली (7)
ईमान नहीं लाते (12) और उसी का है जो कुछ बसता है रात और दिन में (8)
और वही है सुनता जानता (9) (13)
तुम फ़रमाओ क्या अल्लाह के सिवा किसी और को वाली बनाऊं (10)
वह अल्लाह जिसने आसमान और ज़मीन पैदा किये और वह खिलाता है और खाने से पाक है (11)
तुम फ़रमाओ मुझे हुक्म हुआ है कि सबसे पहले गर्दन रखूं (12)
और हरगिज़ शिर्क वालों में से न होना (14) तुम फ़रमाओ अगर मैं अपने रब की नाफ़रमानी करूं तो मुझे बड़े दिन (13)
के अज़ाब का डर है (15) उस दिन जिससे अज़ाब फेर दिया जाए(14)
ज़रूर उसपर अल्लाह की मेहर (कृपा) हुई और यही खुली कामयाबी है (16) और अगर तुझे अल्लाह कोई बुराई (15)
पहुंचाए तो उसके सिवा उसका कोई दूर करने वाला नहीं और अगर तुझे भलाई पहुंचाए (16)
तो वह सबकुछ कर सकता है (17) (17)
और वही ग़ालिब है अपने बन्दो पर और वही है हिकमत वाला ख़बरदार (18)तुम फ़रमाओ सबसे बड़ी गवाही किसकी(18)
तुम फ़रमाओ कि अल्लाह गवाह है मुझमें और तुममें (19)
और मेरी तरफ़ इस क़ुरआन की वही (देववाणी) हुई है कि मैं इससे तुम्हें डराऊ (20)
और जिन जिनको पहुंचे (21)
तो क्या तुम (22)
यह गवाही देते हो कि अल्लाह के साथ और ख़ुदा है तुम फ़रमाओ (23)
कि मैं यह गवाही नहीं देता (24)
तुम फ़रमाओ कि वह तो एक ही मअबूद (आराध्य) है (25)
और मैं बेज़ार हूँ उनसे जिनको तुम शरीक ठहराते हो (26) (19)
जिनको हमने किताब दी (27)
उस नबी को पहचानते हैं (28)
जैसा अपने बेटों को पहचानते हैं (29)
जिन्हों ने अपनी जान नुक़सान में डाली वो ईमान नहीं लाते (20)

तफ़सीर सूरए अनआम – दूसरा रूकू

(1) ऐ हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम, इन हंसी बनाने वालों से कि तुम.

(2) और उन्होंने कुफ़्र और झुटलाने का क्या फल पाया.

(3) अगर वो इसका जवाब न दें तो…….

(4) क्योंकि इसके सिवा और कोई जवाब ही नहीं और वो इसके खिलाफ़ नहीं कर सकते क्योंकि बुत, जिनको मुश्रिक पूजते हैं, वो बेजान हैं, किसी चीज़ के मालिक होने की सलाहियत नहीं रखते. ख़ुद दूसरे की मिलकियत में हैं. आसमान व ज़मीन का वहीं मालिक हो सकता है जो आप ज़िन्दा रखने की क़ुदरत रखने वाला, अनादि व अनन्त, हर चीज़ पर सक्षम, और सब का हाकिम हो, तमाम चीज़ें उसके पैदा करने से अस्तित्व में आई हों, ऐसा सिवाय अल्लाह के कोई नहीं. इसलिये तमाम सृष्टि का मालिक उसके सिवा कोई नहीं हो सकता.

(5) यानी उसने रहमत का वादा किया और उसका वादा तोड़े जाने और झूट से दूर है और रहमत आम है. दीनी हो या दुनियावी. अपनी पहचान और तौहीद और इल्म की तरफ़ हिदायत फ़रमाना भी रहमत में दाख़िल है और काफ़िरों को मोहल्लत देना और अज़ाब में जल्दी न करना भी, कि इससे उन्हें तौबह और सिफ़ारिश का मौक़ा मिलता है. (जुमल वग़ैरह)

(6) और कर्मों का बदला देगा.

(7) कुफ़्र इख़्तियार करके.

(8) यानी सारी सृष्टि उसी की मिल्क है, और वह सबका पैदा करने वाला मालिक और रब है.

(9) उससे कोई चीज़ छुपी नहीं.

(10) जब काफ़िरों ने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को अपने बाप दादा के दीन की तरफ़ बुलाया तो यह आयत उतरी.

(11) यानी सृष्टि सब उसकी मोहताज है, वह सब से बेनियाज़, बे पर्वाह.

(12) क्योंकि नबी अपनी उम्मत से दीन में पहले होते हैं.

(13) यानी क़यामत के दिन.

(14) और निजात दी जाए.

(15) बीमारी या तंगदस्ती या और कोई बला.

(16) सेहत व दौलत वग़ैरह की तरह.

(17) क़ादिरें मुतलक़ है यानी सर्वशक्तिमान. हर चीज़ पर ज़ाती क़ुदरत रखता है. कोई उसकी मर्ज़ी के खिलाफ़ कुछ नहीं कर सकता तो कोई उसके सिवा पूजनीय हो सकता है. यह शिर्क का रद करने वाली एक असरदार दलील है.

(18) मक्का वाले रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहने लगे कि ऐ मुहम्मद, हमें कोई ऐसा दिखाइये जो आपके नबी होने की गवाही देता हो. इस पर यह आयत उतरी.

(19) और इतनी बड़ी और क़ुबूल करने के क़ाबिल गवाही और किसकी हो सकती है.

(20) यानी अल्लाह तआला मेरी नबुव्वत की गवाही देता है ऐसा इसलिये कि उसने मेरी तरफ़ इस क़ुरआन की वही फ़रमाई और यह ऐसा चमत्कार है कि तुम ज़बान वाले होने के बावुजूद इसके मुक़ाबले से आजिज़ रहे तो इस किताब का मुझ पर उतरना अल्लाह की तरफ़ से मेरे रसूल होने की गवाही है. जब यह क़ुरआन अल्लाह तआला की तरफ़ से यक़ीनी गवाही है और मेरी तरफ़ वही फ़रमाया गया ताकि मैं तुम्हें डराऊं कि तुम अल्लाह के हुक्म की मुख़ालिफ़त न करो.

(21) यानी मेरे बाद क़यामत तक आने वाले जिन्हें क़ुरआने पाक पहुंचे चाहे वो इन्सान हों या जिन्न, उन सबको मैं अल्लाह के हुक्म के विरोध से डराऊ. हदीस शरीफ़ में है कि जिस शख़्स को क़ुरआने पाक पहुंचा, मानो कि उसने नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को देखा और आपका मुबारक कलाम सुना. हज़रत अनस बिन मालिक रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि जब यह आयत उतरी तो हुज़ूर ने किसरा और क़ैसर वग़ैरह बादशाहों को इस्लाम की दावत के पत्र रवाना किये. (मदारिक व ख़ाज़िन) इसकी तफ़सीर में एक क़ौल यह भी है कि “मन बलग़ा” (जिन जिनको पहुंचे) के मानी ये हैं कि इस क़ुरआन से मैं तुमको डराउंगा और वो डराएं जिनको यह क़ुरआन पहुंचे. तिरमिज़ी की हदीस में है कि अल्लाह तरोताज़ा करे उसको जिसने हमारा कलाम सुना और जैसा सुना, वैसा पहंचाया. बहुत से पहुंचाए हुए, सुनने वाले से ज़्यादा एहल होते हैं और एक रिवायत में है, सुनने वाले से ज़्यादा अफ़क़ह यानी समझने बूझने वाले होते हैं. इससे फ़िक़ह के जानकारों की महानता मालूम होती है.

(22) ऐ मुश्रिक लोगों.

(23) ऐ हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(24) जो गवाही तुम देते हो और अल्लाह के साथ दूसरे मअबूद ठहराते हो.

(25) उसका तो कोई शरीक नहीं.

(26) इस आयत से साबित हुआ कि जो शख़्स इस्लाम लाए उसको चाहिये कि तौहीद और रिसालत की गवाही के साथ इस्लाम के हर मुख़ालिफ़ अक़ीदे और दीन से विरोध ज़ाहिर करे.

(27) यानी यहूदियों और ईसाइयों के उलमा जिन्हों ने तौरात व इंजील पाई.

(28) आपके हुलियए शरीफ़ यानी नखशिख और आपके गुण और विशेषताओ से, जो इन किताबों में दर्ज हैं.

(29) किसी शक व संदेह के बिना.

सूरए अनआम – तीसरा रूकू

सूरए अनआम – तीसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
और उससे बढ़कर ज़ालिम कौन जो अल्लाह पर झूठ बांधे(1)
या उसकी आयतें झुटलाए बेशक ज़ालिम फ़लाह न पाएंगे {21} और जिस दिन हम सब को उठाएंगे फिर मुश्रिकों से फ़रमाएंगे कहां हैं तुम्हारे वो शरीक जिन का तुम दावा करते थे{22} फिर उनकी कुछ बनावट न रही (2)
मगर यह कि बोले हमें अपने रब अल्लाह की क़सम कि हम मुश्रिक न थे {23} देखो कैसा झूठ बांधा ख़ुद अपने ऊपर (3)
और गुम गई उन से जो बातें बनाते थे {24} और उनमें कोई वह है जो तुम्हारी तरफ़ कान लगाता है (4)
और हमने इनके दिलों पर ग़लाफ़ कर दिये हैं कि उसे न समझें और उनके कान में टैंट (रूई) और अगर सारी निशानियां देखें तो उनपर ईमान न लांएगे यहां तक कि जब तुम्हारे हुज़ूर तुमसे झगड़ते हाज़िर हों तो काफ़िर कहें ये तो नहीं मगर अगलों की दास्तानें (5) {25}
और वो इससे रोकते (6)
और इससे दूर भागते हैं और हलाक नहीं करते मगर अपनी जानें (7)
और उन्हें शऊर (आभास) नहीं {26} और कभी तुम देखो जब वो आग पर खड़े किये जाएंगे तो कहेंगे काश किसी तरह हम वापस भेजे जाएं (8)
और  अपने रब की आयतें न झुटलाएं और मुसलमान हो जाएं {27} बल्कि उनपर खुल गया जो पहले छुपाते थे (9)
और अगर वापस भेजे जाएं तो फिर वही करें जिससे मना किये गए थे और बेशक वो ज़रूर झूठे हैं {28} और बोले (10)
वह तो यही हमारी दुनिया की ज़िन्दगी है और हमें उठना नहीं (11) {29}
और कभी तुम देखो जब अपने रब के हुज़ूर खड़े किये जाएंगे फ़रमाएगा क्या यह हक़ (सत्य) नहीं (12)
कहेंगे क्यों नहीं हमें अपने रब की क़सम, फ़रमाएगा तो अब अज़ाब चखो बदला अपने कुफ़्र का {30}

तफ़सीर सूरए अनआम – तीसरा रूकू

(1) उसका शरीक ठहराए या जो बात उसकी शान के लायक़ न हो, उसकी तरफ़ जोड़े.

(2) यानी कुछ माज़िरत न मिली, कोई बहाना न पा सके.

(3) कि उम्र भर के शिर्क ही से इन्कार कर बैठे.

(4) अबू सुफ़ियान, वलीद, नज़र और अबू जहल वग़ैरह जमा होकर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की क़ुरआने पाक की तिलावत सुनने लगे तो नज़र से उसके साथियों ने कहा कि मुहम्मद क्या कहते हैं. कहने लगा, मैं नहीं जानता, ज़बान को हरकत देते हैं और पहलों के क़िस्से कहते हैं जैसे मैं तुम्हें सुनाया करता हूँ अबू सुफ़ियान ने कहा कि इसका इक़रार करने से मर जाना बेहतर है. इस पर यह आयत उतरी.

(5) इससे उनका मतलब कलामे पाक के अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल होने का इन्कार करना है.

(6) यानी मुश्रिक लोगों को क़ुरआन शरीफ़ से या रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से और आप पर ईमान लाने और आपका अनुकरण करने से रोकते हैं. यह आयत मक्के के काफ़िरों के बारे में उतरी जो लोगों को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान लाने और आपकी मजलिस में हाज़िर होने और क़ुरआन सुनने से रोकते थे और ख़ुद भी दूर रहते थे कि कहीं मुबारक कलाम उनके दिलों पर असर न कर जाए. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि यह आयत हुज़ूर के चचा अबू तालिब के बारे में उतरी जो मुश्रिकों को तो हुज़ूर के तकलीफ़ पहुंचाने से रोकते थे और ख़ुद ईमान लाने से बचते थे.

(7) यानी इसका नुक़सान ख़ुद उन्हीं को पहुंचता है.

(8) दुनिया में.

(9) जैसा कि ऊपर इसी रूकू में बयान हो चुका कि मुश्रिकों से जब फ़रमाया जाएगा कि तुम्हारे शरीक कहाँ हैं तो वो अपने कुफ़्र को छुपा जाएंगे और अल्लाह की क़सम खाकर कहेंगे कि हम मुश्रिक न थे. इस आयत में बताया गया कि फिर जब उन्हें ज़ाहिर हो जाएगा जो वो छुपाते थे, यानी उनका कुफ़्र इस तरह ज़ाहिर होगा कि उनके शरीर के अंग उनके कुफ़्र और शिर्क की गवाहीयाँ देंगे, तब वो दुनिया में वापस जाने की तमन्ना करेंगे.

(10) यानी काफ़िर जो रसूल भेजे जाने और आख़िरत के इन्कारी हैं. इसका वाक़िआ यह था कि जब नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने काफ़िरों को क़यामत के एहवाल और आख़िरत की ज़िन्दगानी, ईमानदारी और फ़रमाँबरदारी के सवाब, काफ़िरों और नाफ़रमानों पर अज़ाब का ज़िक्र फ़रमाया तो काफ़िर कहने लगे कि ज़िन्दगी तो बस दुनिया ही की है.

(11) यानी मरने के बाद.

(12) क्या तुम मरने के बाद ज़िन्दा नहीं किये गए.

सूरए अनआम – चौथा रूकू

सूरए अनआम – चौथा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

बेशक हार में रहे वो जिन्होंने अपने रब से मिलने से इन्कार किया यहां तक कि जब उनपर क़यामत अचानक आ गई बोले हाय अफ़सोस हमारा इसपर कि इसके मानने में हमने चूक की और वो अपने (1)
बोझ अपनी पीठ पर लादे हुए हैं और कितना बुरा बोझ उठाए हुए हैं (2) {31}
और दुनिया की ज़िन्दगी नहीं मगर खेल कूद (3)
और बेशक पिछला घर भला उनके लिये जो डरते हैं (4)
तो क्या तुम्हें समझ नहीं {32} हमें मालूम है कि तुम्हें रंज देती है वह बात जो ये कह रहे हैं (5)
तो वो तुम्हें नहीं झुटलाते बल्कि ज़ालिम अल्लाह की आयतों से इन्कार करते हैं {33} और तुम से पहले झुटलाए गए तो उन्होंने सब्र किया इस झुटलाने  और ईज़ाएं (पीड़ाएं) पाने पर यहां तक कि उन्हें हमारी मदद आई (6)
और अल्लाह की बातें बदलने वाला कोई नहीं (7)
और तुम्हारे पास रसूलों की ख़बरें आही चुकी हैं (8) {34}
और अगर उनका मुंह फेरना तुमको बुरा लगा है (10)
तो अगर तुम से हो सके तो ज़मीन में कोई सुरंग तलाश करलो या आसमान में कोई ज़ीना फिर उन के लिये निशानी ले आओ (11)
और अल्लाह चाहता तो उन्हें हिदायत पर इकट्ठा कर देता तो ऐ सुनने वाले तू हरग़िज़ नादान न बन {35} मानते तो वही हैं जो सुनते हैं (12)
और उन मुर्दा दिलों (13)
को अल्लाह उठाएगा (14)
फिर उसकी तरफ़ हांके जाएंगे (15) {36}
और बोले (16)
उनपर कोई निशानी क्यों न उतरी उनके रब की तरफ़ से (17)
तुम फ़रमाओ कि अल्लाह क़ादिर है कि कोई निशानी उतारे लेकिन उनमें बहुत निरे जाहिल हैं (18) {37}
और नहीं कोई ज़मीन में चलने वाला और न कोई परिन्दा कि अपने परों पर उड़ता है मगर तुम जैसी उम्मतें (19)
हमने इस किताब में कुछ उठा न रखा (20)
फिर अपने रब की तरफ़ उठाए जाएंगे (22) {38}
और जिन्हों ने हमारी आयतें झुटलाईं बेहरे और गूंगे हैं (23)
अंधेरों में (24)
अल्लाह जिसे चाहे गुमराह करे और जिसे चाहे सीधे रास्ते डाल दे (25) {39}
तुम फ़रमाओ भला बताओ तो अगर तुमपर अल्लाह का अज़ाब आए या क़यामत क़ायम हो क्या अल्लाह के सिवा किसी और को पुकारोगे(26)
अगर सच्चे हो (27) {40}
बल्कि उसी को पुकारोगे तो वह अगर चाहे (28)
जिस पर उसे पुकारते हो उसे उठाले और शरीकों को भूल जाओगे (29) {41}

तफ़सीर सूरए – अनआम – चौथा रूकू

(1) गुनाहों के.

(2) हदीस शरीफ़ में है कि काफ़िर जब अपनी क़ब्र से निकलेगा तो उसके सामने बहुत भयानक डरावनी और बहुत बदबूदार सूरत आएगी. वह काफ़िर से कहेगी तू मुझे पहचानता है. काफ़िर कहेगा, नहीं. तो वह काफ़िर से कहेगी, मैं तेरा ख़बीस अमल यानी कुकर्म हूँ. दुनिया में तू मुझपर सवार रहा, आज मैं तुझ पर सवार हूं और तुझे तमाम सृष्टि में रूस्वा करूंगा. फिर वह उसपर सवार हो जाता है.

(3) जिसे बक़ा अर्थात ठहराव नहीं, जल्द गुज़र जाती है, और नेकियाँ और फ़रमाँबरदारियाँ अगरचे मूमिन से दुनिया ही में हुई हों, लेकिन वो आख़िरत के कामों में से हैं.

(4) इससे साबित हुआ कि पाकबाज़ों और नेक लोगों के कर्मों के सिवा दुनिया में जो कुछ है, सब बुराई ही बुराई है.

(5) अख़नस बिन शरीक़ और अबू जहल की आपसी मुलाक़ात हुई तो अख़नस ने अबू जहल से कहा, ऐ अबुल हिकम (काफ़िर अबू जहल को यही पुकारते थे) यह एकान्त की जगह है और यहाँ कोई ऐसा नहीं जो मेरी तेरी बात पर सूचित हो सके. अबू तू मुझे ठीक ठीक बता कि मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) सच्चे हैं या नहीं. अबू जहल ने कहा कि अल्लाह की क़सम, मुहम्मद बेशक सच्चे हैं, कभी कोई झूटी बात उनकी ज़बान पर न आई, मगर बात यह है कि ये क़ुसई की औलाद हैं और लिवा (झंडा), सिक़ायत (पानी पिलाना), हिजाबत, नदवा वग़ैरह, तो सारे सत्कार उन्हें हासिल ही हैं, नबुव्वत भी उन्हीं में हो जाए तो बाक़ी क़ुरैशियों के लिये सम्मान क्या रह गया. तिरमिज़ी ने हज़रत अली रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत की कि अबू जहल ने हज़रत सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा, हम आपको नहीं झुटलाते, हम तो उस किताब को झुटलाते हैं जो आप लाए. इस पर यह आयत उतरी.

(6) इसमें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तसल्ली है कि क़ौम हुज़ूर की सच्चाई का विश्वास रखती है लेकिन उनके ज़ाहिरी झुटलाने का कारण उनका हसद और दुश्मनी है.

(7) आयत के ये मानी भी होते हैं कि ऐ हबीब, आपका झुटलाया जाना अल्लाह की आयतों का झुटलाया जाना है और झुटलाने वाले ज़ालिम.

(8) और झुटलाने वाले हलाक कर दिये गए.

(9) उसके हुक्म को कोई पलट नहीं सकता. रसूलों की मदद और उनके झुटलाने वालों की हलाकत, उसने जिस समय लिख दी है, ज़रूर होगी.

(10) और आप जानते हैं कि उन्हें काफ़िरों से कैसी तकलीफ़ें पहुंची, ये नज़र के सामने रखकर आप दिल को इत्मीनान में रखें,.

(11) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को बहुत इच्छा थी कि सब लोग इस्लाम ले आएं. जो इस्लाम से मेहरूम रहते, उनकी मेहरूमी आपको बहुत अखरती.

(12) मक़सद उनके ईमान की तरफ़ से रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की उम्मीद तोड़ना है, ताकि आपको उनके इन्कार करने और ईमान न लाने से दुख और तकलीफ़ न हो.

(13) दिल लगाकर समझने के लिये वही नसीहत क़ुबूल करते हैं और सच्चे दीन की दावत तसलीम करते हैं.

(14) याने काफ़िर लोग.

(15) क़यामत के दिन.

(16) और अपने कर्मों का बदला पाएंगे.

(17) मक्के के काफ़िर.

(18) काफ़िरों की गुमराही और सरकशी इस हद तक पहुंच गई कि वो कई निशानियों और चमत्कार, जो उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से देखे थे, उन पर भरोसा न किया और सबका इन्कार कर दिया और ऐसी आयत तलब करने लगे जिसके साथ अल्लाह का अज़ाब हो जैसा कि उन्होंने कहा था “अल्लाहुम्मा इन काना हाज़ा हुवल हक्क़ा मिन इन्दिका फ़-अमतिर अलैना हिजारतम मिनस समाए” यानी यारब अगर यह सत्य है तेरे पास से तो हम पर आसमान से पत्थर बरसा. (तफ़सीरे अबुसऊद),

(19) नहीं जानते कि इसका उतरना उनके लिये बला है कि इन्कार करते ही हलाक कर दिये जाएंगे.

(20) यानी तमाम जानदार चाहे वो मवेशी हों या जंगली जानवर या चिड़ियाँ, तुम्हारी तरह उम्मतें हैं. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि ये पशु पक्षी तुम्हारी तरह अल्लाह को पहचानते, एक मानते, उसकी तस्बीह पढ़ते, इबादत करते हैं. कुछ का कहना है कि वो मख़लूक़ होने में तुम्हारी तरह हैं. कुछ ने कहा कि वो इन्सान की तरह आपसी प्रेम रखते हैं और एक दूसरे की बात समझते हैं. कुछ का क़ौल है कि रोज़ी तलब करने, हलाकत से बचने, नर मादा की पहचान रखने में तुम्हारी तरह हैं. कुछ ने कहा पैदा होने, मरने, मरने के बाद हिसाब के लिये उठने में तुम्हारी तरह हैं.

(21) यानी सारे उलूम और तमाम “माकाना व मायकून” (यानी जो हुआ और जो होने वाला है) का इसमें बयान है और सारी चीज़ों की जानकारी इसमें है. इस किताब से या क़ुरआन शरीफ़ मुराद है या लौहे मेहफ़ूज़. (जुमल वग़ैरह)

(22) और तमाम जानदारों, पशु पक्षियों का हिसाब होगा. इसके बाद वो ख़ाक कर दिये जाएंगे.

(23) कि हक़ मानना और हक़ बोलना उन्हें हासिल नहीं.

(24) जिहालत और आशचर्य और कुफ़्र के.

(25) इस्लाम की तौफ़ीक़ अता फ़रमाए.

(26) और जिनको दुनिया में मअबूद मनते थे, उनसे हाजत रवाई चाहोगे.

(27) अपने इस दावे में कि मआज़ल्लाह बुत मअबूद हैं, तो इस वक़्त उन्हें पुकारो मगर ऐसा न करोगे.

(28) तो इस मुसीबत को.

(29) जिन्हें अपने झूठे अक़ीदे में मअबूद जानते थे और उनकी तरफ़ नज़र भी न करोगे क्योंकि तुम्हें मालूम है कि वो तुम्हारे काम नहीं आ सकते.

सूरए अनआम – पाँचवा रूकू

सूरए अनआम – पाँचवा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला
और बेशक हमने तुमसे पहली उम्मतों की तरफ़ रसूल भेजे तो उन्हें सख़्ती और तकलीफ़ से पकड़ा(1)
कि वो किसी तरह गिड़गिड़ाएं(2)(42)
तो क्यों न हुआ कि जब उनपर अज़ाब आया तो गिड़गिड़ाए होते लेकिन दिल तो सख़्त हो गए (3)
और शैतान ने उनके काम निगाह में भले कर दिखाए (43) फिर जब उन्होंने भुला दिया जो नसीहतें उनको की गईं थीं (4)
हमने उनपर हर चीज़ के दर्वाज़े खोल दिये (5)
यहाँ तक कि जब ख़ुश हुए उसपर जो उन्हें मिला (6)
तो हमने अचानक उन्हें पकड़ लिया (7)
अब वो आस टूटे रह गए (44) तो जड़ काट दी गई ज़ालिमों की (8)
और सब ख़ूबियों सराहा अल्लाह रब सारे संसार का (9) (45)
तुम फ़रमाओ भला बताओ तो अगर अल्लाह तुम्हारे कान और आँख ले ले और तुम्हारे दिलों पर मोहर कर दे (10)
तो अल्लाह के सिवा कौन ख़ुदा है कि तुम्हें यह चीज़ ला दे (11)
देखो हम किस किस रंग से आयतें बयान करते हैं फिर वो मुंह फेर लेते हैं (46) तुम फ़रमाओ भला बताओ तो अगर तुम पर अल्लाह का अज़ाब आए अचानक (12)
या खुल्लमखुल्ला (13)
तो कौन तबाह होगा सिवा ज़ालिमों के (14) (47)
और हम नहीं भेजते रसूलों को मगर ख़ुशी और डर सुनाते (15)
तो जो ईमान लाए और संवरे (16)
उनको न कुछ डर न कुछ ग़म (48) और जिन्होंने हमारी आयतें झुटलाई उन्हें अज़ाब पहुंचेगा बदला उनकी बेहुक्मी का (49) तुम फ़रमा दो मैं तुमसे नहीं कहता कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं और न यह कहूं कि मैं आप ग़ैब जान लेता हूँ और न तुमसे यह कहूं कि मैं फ़रिश्ता हूँ (17)
मैं तो उसीका ताबे (अधीन) हूँ जो मुझे वही आती है (18)
तुम फ़रमाओ क्या बराबर हो जाएंगे अंधे और अंखियारे (19)
तो क्या तुम ग़ौर नहीं करते (50)

तफ़सीर अनआम – पाँचवा रूकू

(1) दरिद्रता, ग़रीबी और बीमारी वग़ैरह में जकड़ा.

(2) अल्लाह की तरफ़ रूजू करें, अपने गुनाहों से बाज़ आएं.

(3) वो अल्लाह की बारगाह में तौबा करने, माफ़ी मांगने के बजाय कुफ़्र और झुटलाने पर अड़े रहे.

(4) और वो किसी तरह नसीहत लेने को तैयार न हुए, न पेश आई मुसीबतों से, न नबियों के उपदेशों से.

(5) सेहत व सलामती और रिज़्क़ में बढ़ौतरी और आराम वग़ैरह के.

(6) और अपने आपको उसका हक़दार समझने और क़ारून की तरह घमण्ड करने लगे.

(7) और अज़ाब में जकड़ा.

(8) और सब के सब हलाक कर दिये गए, कोई बाक़ी न छोड़ा गया.

(9) इससे मालूम हुआ कि गुमराहों, बेदीनों और ज़ालिमों की हलाकत अल्लाह तआला की नेअमत है, इस पर शुक्र करना चाहिये.

(10) और इल्म व मअरिफ़त का निज़ाम दरहम बरहम हो जाए.

(11) इसका जवाब यही है कि कोई नहीं. तो अब तौहीद यानी अल्लाह के एक होने पर दलील क़ायम हो गई कि जब अल्लाह के सिवा कोई इतनी क़ुदरत और अधिकार वाला नहीं तो इबादत का हक़दार सिर्फ़ वही है और शिर्क बहुत बुरा ज़ुल्म और जुर्म है.

(12) जिसके नशान और चिन्ह पहले से मालूम न हों.

(13) आँखों देखते.

(14) यानी काफ़िरों के, कि उन्होंने अपनी जानों पर ज़ुल्म किया और यह हलाकत उनके हक़ में अज़ाब है.

(15) ईमानदारों को जन्नत व सवाब की बशारतें देते और काफ़िरों को जहन्नम व अज़ाब से डराते.

(16) नेक अमल करें.

(17) काफ़िरों का तरीक़ा था कि वो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से तरह तरह के सवाल किया करते थे. कभी कहते कि आप रसूल हें तो हमें बहुत सी दौलत और माल दीजिये कि हम कभी मोहताज न हों. हमारे लिये पहाड़ों को सोना कर दीजियें. कभी कहते कि पिछली और आगे की ख़बरें सुनाइये और हमें हमारे भविष्य की ख़बर दीजिये, क्या क्या होगा ताकि हम मुनाफ़ा हासिल करें और नुक़सान से बचने के लिये पहले से प्रबन्ध कर लें. कभी कहते, हमें क़यामत का वक़्त बताइये कब आएगी. कभी कहते आप कैसे रसूल हैं जो खाते पीते भी हैं, निकाह भी करते हैं. उनकी इन तमाम बातों का इस आयत में जवाब दिया गया कि यह कलाम निहायत बेमहल और जिहालत का है. क्योंकि जो व्यक्ति किसी बात का दावा करे उससे वही बातें पूछी जा सकती हैं जो उसके दावे से सम्बन्धित हों. ग़ैर ज़रूरी बातों का पूछना और उनको उस दावे के खिलाफ़ तर्क बनाना अत्यन्त दर्जें की जिहालत और अज्ञानता है. इसलिये इरशाद हुआ कि आप फ़रमा दीजिये कि मेरा दावा यह तो नहीं कि मेरे पास अल्लाह के ख़ज़ाने हैं जो तुम मुझ से माल दौलत का सवाल करो और उसकी तरफ़ तवज्जह न करूं तो नबुव्वत का इनकार करदा. न मेरा दावा ज़ाती ग़ैब दानी का है कि अगर मैं तुम्हें पिछली या आयन्दा की ख़बरें न बताऊं तो मेरी रिसालत मानने में उज़्र कर सको. न मैंने फ़रिश्ता होने का दावा किया है कि खाना पीना निकाह करना ऐतिराज़ की बात हो. तो जिन चीज़ों का दावा ही नहीं किया उनका सवाल बेमहल और उसका जवाब देना मुझपर लाज़िम नहीं. मेरा दावा नबुव्वत और रिसालत का है और जब उस पर ज़बरदस्त दलीलें और मज़बूत प्रमाण क़ायम हो चुके तो ग़ैर मुतअल्लिक़ बातें पेश करना क्या मानी रखता है. इस से साफ़ स्पष्ट हो गया कि इस आयत को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ग़ैब पर सूचित किये जाने की नफ़ी के लिये तर्क बनाना ऐसा ही बेमहल है जैसा काफ़िरों का इन सवालों को नबुव्वत के इन्कार की दस्तावेज़ बनाना बेमहल था. इसके अलावा इस आयत से हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को अता किये गए इल्म का इन्कार किसी तरह मुराद ही नहीं हो सकता क्योंकि उस सूरत में आयतों के बीच टकराव और परस्पर विरोध का क़ायल होना पड़ेगा जो ग़लत है. मुफ़स्सिरों का यह भी कहना है कि हुज़ूर का “ला अक़ूलो लकुम.” फ़रमाना विनम्रता के रूप में है. (ख़ाज़िन, मदारिक व जुमल वग़ैरह)

(18) और यही नही का काम है. तो मैं तुम्हें वही दूंगा जिसकी मुझे इजाज़त होगी, वही करूंगा जिसका मुझे हुक्म मिला हो.

(19) मूमिन व काफ़िर, आलिम व जाहिल.