सूरए बक़रह – छत्तीसवाँ रूकू

उनकी कहावत जो अपने माल अल्लाह की राह मे ख़र्च करते हैं(1)
उस दिन की तरह जिसने उगाई सात बालें (2)
हर बाल में सौ दाने (3)
और अल्लाह इस से भी ज़्यादा बढ़ाए जिस के लिये चाहे और अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है वो जो अपने माल अल्लाह की राह में ख़र्च करते है (4)
फिर दिये पीछे न एहसान रखें न तकलीफ़ दें (5)
उनका नेग उनके रब के पास है और उन्हें न कुछ डर हो न कुछ ग़म अच्छी बात कहना और दरगुज़र  (क्षमा) करना (6)
उस ख़ैरात से बेहतर है जिसके बाद सताना हो  (7)
और अल्लाह बे-परवाह हिल्म  (सहिष्णुता) वाला है ऐ ईमान वालो अपने सदक़े  (दान) बातिल न करदो एहसान रखकर और ईजा (दुख:) देकर (8)
उसकी तरह जो अपना माल लोगों के दिखावे के लिए ख़र्च करे और अल्लाह क़यामत पर ईमान न लाए तो उसकी कहावत ऐसी है जैसे एक चट्टान कि उसपर मिट्टी है अब उसपर ज़ोर का पानी पड़ा जिसने उसे निरा पत्थर कर छोड़ा (9)
अपनी कमाई से किसी चीज़ पर क़ाबू न पाएंगे और अल्लाह काफ़िरों को राह नहीं देता और उनकी कहावत, जो अपने माल अल्लाह की रज़ा चाहने में ख़र्च करते हैं और अपने दिल जमाने को ,(10)
उस बाग़ की सी है जो भोड़  (रेतीली ज़मीन) पर हो उस पर ज़ोर का पानी पड़ा तो दो ने मेवा लाया फिर अगर ज़ोर का मेंह उसे न पहुंचे तो ओस काफ़ी है  (11)
और अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है (12)
क्या तुम में कोई इसे पसन्द रखेगा (13)
कि उसके पास एक बाग़ हो खजूरों और अंगूरों का (14)
जिसके नीचे नदियां बहतीं उसके लिये उसमें हर क़िस्म के फलों से है (15)
और उसे बुढ़ापा आया (16)
और उसके नातवाँ (कमज़ोर) बच्चे हैं (17)
तो आया उसपर एक बगोला जिसमें आग थी तो जल गया (18)
ऐसा ही बयान करता है  अल्लाह तुमसे अपनी आयतें कि कहीं तुम ध्यान लगाओ  (19)  (266)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – छत्तीसवाँ  रूकू

(1) चाहे ख़र्च करना वाजिब हो या नफ़्ल, भलाई के कामों से जुड़ा होना आम है. चाहे किसी विद्यार्थी को किताब ख़रीद कर दी जाए या कोई शिफ़ाख़ाना बना दिया जाए या मरने वालों के ईसाले सवाब के लिये सोयम, दसवें, बीसवें, चालीसवें के तरीक़े पर मिस्कीनों को खाना खिलाया जाए.

(2) उगाने वाला हक़ीक़त में अल्लाह ही है. दाने की तरफ़ उसकी निस्बत मजाज़ी है. इससे मालूम हुआ कि मजाज़ी सनद जायज़ है जबकि सनद करने वाला ग़ैर ख़ुदा के तसर्रूफ़ में मुस्तक़िल एतिक़ाद न करना हो. इसी लिये यह कहना भी जायज़ है कि ये दवा फ़ायदा पहुंचाने वाली है, यह नुक़सान देने वाली है, यह दर्द मिटाने वाली है, माँ बाप ने पाला, आलिम ने गुमराही से बचाया, बुज़ुर्गों ने हाजत पूरी की, वग़ैरह. सबमें मजाज़ी सनदें हैं और मुसलमान के अक़ीदे में करने वाला हक़ीक़त में अल्लाह ही है. बाक़ी सब साधन है.

(3) तो एक दाने के सात सौ दाने हो गए, इसी तरह ख़ुदा की राह में ख़र्च करने से सात सौ गुना अज्र हो जाता है.

(4) यह आयत हज़रत उस्माने ग़नी और हज़रत अब्दुर रहमान बिन औफ़ रदियल्लाहो अन्हुमा के बारे में उतरी. हज़रत उस्मान रदियल्लाहो अन्हो ने ग़ज़वए तबूक के मौक़े पर इस्लामी लश्कर के लिये एक हज़ार ऊंट सामान के साथ पेश किये और अब्दुर्रहमान बिन औफ़ रदियल्लाहो अन्हो ने चार हज़ार दरहम सदक़े के रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर किये और अर्ज़ किया कि मेरे पास कुल आठ हज़ार दरहम थे, आधे मैंने अपने और अपने बच्चों के लिये रख लिये और आधे ख़ुदा की राह में हाज़िर हैं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, जो तुमने दिये और जो तुमने रखे, अल्लाह तआला दोनों में बरकत अता फ़रमाए.

(5) एहसान रखना तो यह कि देने के बाद दूसरों के सामने ज़ाहिर करें कि हमने तेरे साथ ऐसे सुलूक किये और उसको परेशान कर दें. और तकलीफ़ देना यह कि उसको शर्म दिलाएं कि तू नादार था, मुफ़्लिस था, मजबूर था, निकम्मा था, हमने तेरी देखभाल की, या और तरह दबाव दें, यह मना फ़रमाया गया.

(6) यानी अगर सवाल करने वाले को कुछ न दिया जाए तो उससे अच्छी बात कहना और सदव्यवहार के साथ जवाब देना, जो उसको नाग़वार न गुज़रे और अगर वह सवाल किये ही जाए या ज़बान चलाए, बुरा भला कहने लगे, तो उससे मुंह फेर लेना.

(7) शर्म दिला कर या एहसान जताकर या और कोई तकलीफ़ पहुंचा कर.

(8) यानी जिस तरह मुनाफ़िक़ को अल्लाह की रज़ा नहीं चाहिये, वह अपना माल रियाकारी यानी दिखावे के लिये ख़र्च करके बर्बाद कर देता है, इसी तरह तुम एहसान जताकर और तकलीफ़ देकर अपने सदक़ात और दान का पुण्य तबाह न करो.

(9) ये मुनाफ़िक़ रियाकर के काम की मिसाल है कि जिस तरह पत्थर पर मिट्टी नज़र आती है लेकिन बारिश से वह सब दूर हो जाती है, ख़ाली पत्थर रह जाता है, यही हाल मुनाफ़िक़ के कर्म का है और क़यामत के दिन वह तमाम कर्म झूटे ठहरेंगे, क्योंकि अल्लाह की रज़ा और ख़ुशी के लिये न थे.

(10) ख़ुदा की राह में ख़र्च करने पर.

(11) यह ख़ूलूस वाले मूमिन के कर्मों की एक मिसाल है कि जिस तरह ऊंचे इलाक़े की बेहतर ज़मीन का बाग़ हर हाल में ख़ूब फलता है, चाहे बारिश कम हो या ज़्यादा, ऐसे ही इख़लास वाले मूमिन का दान और सदक़ा ख़ैरात चाहे कम हो या ज़्यादा, अल्लाह तआला उसको बढ़ाता है.

(12) और तुम्हारी नियत और इख़लास को जानता है.

(13) यानी कोई पसन्द न करेगा क्योंकि यह बात किसी समझ वाले के गवारा करने के क़ाबिल नहीं है.

(14) अगरचे उस बाग़ में भी क़िस्म क़िस्म के पेड़ हों मगर खजूर और अंगूर का ज़िक्र इसलिये किया कि ये ऊमदा मेवे हैं.

(15) यानी वह बाग़ आरामदायक और दिल को लुभाने वाला भी है, और नफ़ा देने वाली ऊमदा जायदाद भी.

(16)  जो हाजत या आवश्यकता का समय होता है और आदमी कोशिश और परिश्रम के क़ाबिल नहीं रहता.

(17) जो कमाने के क़ाबिल नहीं और उनके पालन पोषण की ज़रूरत है, और आधार केवल बाग़ पर, और बाग़ भी बहुत ऊमदा है.

(18) वह बाग़, तो इस वक़्त उसके रंजो ग़म और हसरतो यास की क्या इन्तिहा है. यही हाल उसका है जिसने अच्छे कर्म तो किये हों मगर अल्लाह की ख़ुशी के लिये नहीं, बल्कि दिखावे के लिये, और वह इस गुमान में हो कि मेरे पास नेकियों का भण्डार है. मगर जब सख़्त ज़रूरत का वक़्त यानी क़यामत का दिन आए, तो अल्लाह तआला उन कर्मों को अप्रिय करदे. उस वक़्त उसको कितना दुख और कितनी मायूसी होगी. एक रोज़ हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने सहाबए किराम से फ़रमाया कि आप की जानकारी में यह आयत किस बारे में उतरी है. हज़रत अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि ये उदाहरण है कि एक दौलतमंद व्यक्ति के लिये जो नेक कर्म करता हो, फिर शैतान के बहकावे से गुमराह होकर अपनी तमाम नेकियों को ज़ाया या नष्ट कर दे. (मदारिक व ख़ाज़िन)

(19) और समझो कि दुनिया फ़ानी, मिटजाने वाली और आक़िबत आनी है.

सूरए बक़रह – सैंतीसवाँ रूकू

ऐ ईमान वालो अपनी पाक कमाइयों में से कुछ दो (1)
और उसमें से जो हमने तुम्हारे लिये ज़मीन से निकाला(2)
और ख़ास नाक़िस (दूषित) का इरादा न करो कि दो तो उसमें से (3)
और तुम्हें मिले तो न लोगे जब तक उसमें चश्मपोशी न करो  और जान रखो कि अल्लाह बे-परवाह सराहा गया है शैतान तुम्हें अन्देशा (आशंका) दिलाता(4)
मोहताजी का और हुक्म देता है बेहयाई का (5)
और अल्लाह तुमसे वादा फ़रमाता है बख़्शिस  (इनाम) और फ़ज़्ल  (कृपा) का  (6)
और अल्लाह वुसअत (विस्तार) वाला इल्म वाला है अल्लाह हिकमत  (बोध) देता है (7)
जिसे चाहे और जिसे हिकमत मिली उसे बहुत भलाई मिली और नसीहत नहीं मानते मगर अक़्ल वाले और तुम जो खर्च करो (8)
या मन्नत मानो(9)
अल्लाह  को उसकी ख़बर है(10)
और जालिमों का कोई मददगार नहीं अगर खैरात खुलेबन्दों दो तो वह क्या ही अच्छी बात है और अगर छुपा कर फक़ीरों को दो ये तुम्हारे लिये सबसे बेहतर है.  (11)
और उसमें तुम्हारे कुछ गुनाह घटेंगे और अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है उन्हें राह देना तुम्हारे ज़िम्मे अनिवार्य नहीं  (12)
हाँ अल्लाह राह देता है जिसे चाहता है. और तुम जो अच्छी चीज़ दो तो तुम्हारा ही भला हे (13)
और तुम्हें ख़र्च करना मुनासिब नहीं मगर अल्लाह की मर्ज़ी चाहने के लिये और जो माल दो तुम्हें पूरा मिलेगा और नुक़सान न दिये जाओगे उन फ़क़ीरों के लिये जो ख़ुदा की राह में रोके गए(14)
ज़मीन में चल नहीं सकते (15)
नादान उन्हें तवन्गर (मालदार) समझे बचने के सबब  (16)
तू उन्हें उनकी सूरत से पहचान लेगा, (17)
लोगों से सवाल नहीं करते कि गिड़गिड़ाना पड़े और तुम जो ख़ैरात करो अल्लाह उसे जानता है(273)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – सैंतीसवाँ रूकू

(1) इससे रोज़ी के लिये कोशिश करने की अच्छाई और तिजारत के माल में ज़कात साबित होती है (ख़ाज़िन व मदारिक). यह भी हो सकता है कि आयत नफ़्ल सदक़े और फ़र्ज़ सदक़े दोनों को लागू हो.  (तफ़सीरे अहमदी)

(2) चाहे वो अनाज हों या फल या खानों से निकली चीज़ें.

(3) कुछ लोग ख़राब माल सदक़े में देते थे, उनके बारे में यह आयत उतरी. सदक़ा वुसूल करने वाले को चाहिये कि वह बीच का माल ले, न बिल्कुल ख़राब न सब से बढ़िया.

(4) कि अगर ख़र्च करोगे, सदक़ा दोगे तो नादार या दरिद्र हो जाओगे.

(5) यानी कंजूसी का, और ज़कात या सदक़ा न देने का, इस आयत में यह बात है कि शैतान किसी तरह कंजूसी की ख़ूबी दिमाग़ में नहीं बिठा सकता. इसलिये वह यही करता है कि ख़र्च करने से नादारी और दरिद्रता का डर दिलाकर रोके. आजकल जो लोग ख़ैरात को रोकने पर उतारू हैं, वो भी इसी एक बहाने से काम लेते हैं.

(6) सदक़ा देने पर और ख़र्च करने पर.
(7) हिकमत से या क़ुरआन व हदीस व फ़िक़्ह का इल्म मुराद है, या तक़वा या नबुव्वत.  (मदारिक व ख़ाज़िन)

(8) नेकी में, चाहे बदी में.

(9) फ़रमाँबरदारी की या गुनाह की, नज़्र आम तौर से तोहफ़ा और भेंट को बोलते हैं और शरीअत में नज़्र इबादत और रब की क़ुर्बत की चाहे है. इसीलिये अगर किसी ने गुनाह करने की नज़्र की तो वह सही नहीं हुई. नज़्र ख़ास अल्लाह तआला के लिये होती है और किसी वली के आस्ताने के फ़क़ीरों को नज़्र पूरा करने का साधन ख़याल करे, जैसे किसी ने यह कहा, ऐ अल्लाह मैं ने नज़्र मानी कि अगर तू मेरा ये काम पूरा करा दे तो मैं उसे वली के आस्ताने के फ़क़ीरों को खाना खिलाऊंगा या वहाँ के ख़ादिमों को रूपया पैसा दूँगा या उनकी मस्जिद के लिये तेल या चटाई वग़ैरह हाज़िर करूंगा, तो यह नज़्र जायज़ है. (रद्दुल मोहतार)

(10) वह तुम्हें इसका बदला देगा.

(11) सदक़ा चाहे फ़र्ज़ हो या नफ़्ल, जब सच्चे दिल से अल्लाह के लिये दिया जाए और दिखावे से पाक हो तो चाहे ज़ाहिर कर के दें या छुपाकर, दोनों बेहतर हैं. लेकिन फ़र्ज़ सदक़े का ज़ाहिर करके देना अफ़ज़ल है, और नफ़्ल का छुपाकर. और अगर नफ़्ल सदक़ा देने वाला दूसरों को ख़ैरात की तरग़ीब देने के लिये ज़ाहिर करके दे तो यह ज़ाहिर करना भी अफ़ज़ल है. (मदारिक)

(12) आप ख़ुशख़बरी देने वाले और डर सुनाने वाले और दावत देने वाले बनाकर भेजे गए हैं आपका फ़र्ज़ लोगों को अल्लाह की तरफ़ बुलाने पर पूरा हो जाता है. इस से ज़्यादा कोशिश और मेहनत आप पर लाज़िम नहीं. इस्लाम से पहले मुसलमानों की यहूदियों से रिश्तेदारियाँ थीं. इस वजह से वो उनके साथ व्यवहार किया करते थे. मुसलमान होने के बाद उन्हें यहूदियों के साथ व्यवहार करना नागवार होने लगा और उन्होंने इसलिये हाथ रोकना चाहा कि उनके ऐसा करने से यहूदी इस्लाम की तरफ़ आएं. इस पर ये आयत उतरी.

(13) तो दूसरों पर इसका एहसान न जताओ.
(14) यानी वो सदक़ात जो आयत “वमा तुनफ़िक़ू मिन ख़ैरिन” (और तुम जो अच्छी चीज़ दो) में ज़िक्र हुए, उनका बेहतरीन मसरफ़ वह फ़क़ीर है जिन्हों ने अपने नफ़्सों को जिहाद और अल्लाह की फ़रमाँबरदारी पर रोका. यह आयत एहले सुफ़्फ़ा के बारे में नाज़िल हुई. उन लोगों की तादाद चार सौ के क़रीब थी. ये लोग हिजरत करके मदीनए तैय्यिबह हाज़िर हुए थे, न यहाँ उनका मकान था, न परिवार, न क़बीला, न उन हज़रात ने शादी की थी. उनका सारा वक़्त इबादत में जाता था, रात में क़ुरआने करीम सीखना, दिन में जिहाद के काम में रहना. आयत में उनकी कुछ विशेषताओं का बयान है.

(15) क्योंकि उन्हें दीनी कामों से इतनी फ़ुर्सत नहीं कि वो चल फिर कर रोज़ी रोटी की भाग दौड़ कर सकें.

(16) यानी चूंकि वो किसी से सवाल नहीं करते इसलिये न जानने वाले लोग उन्हें मालदार ख़याल करते हैं.

(17) कि मिज़ाज में तवाज़ो और इन्किसार है, चेहरों पर कमज़ोरी के आसार हैं, भूख से रंगत पीली पड़ गई है.

सूरए बक़रह – अड़तीसवाँ रूकू

वो जो अपने माल ख़ैरात करते हैं रात में और दिन में छुपे और ज़ाहिर (1)
उनके लिए उनका नेग है उनके रब के पास उनको न कुछ अन्देशा हो न कुछ ग़म वो जो

सूद खाते हैं (2)
क़यामत के दिन न खड़े होंगे मगर जैसे खड़ा होता है वह जिसे आसेब  (प्रेतबाधा) ने छू कर मख़बूत (पागल) बना दिया हो (3)
यह इसलिये कि उन्होंने कहा बेअ  (विक्रय) भी तो सूद ही के समान है, और अल्लाह ने हलाल किया बेअ को और हराम किया सूद तो जिसे उसके रब के पास से नसीहत आई और वह बाज़ (रूका) रहा तो उसे हलाल है जो पहले ले चुका (4)
और उस का काम ख़ुदा के सुपुर्द है (5)
और जो अब ऐसी हरकत करेगा तो वह दोज़ख़ी है, वो इस में मुद्दतों रहेंगे (6)
अल्लाह हलाक करता है सूद को (7)
और बढ़ाता है ख़ैरात को (8)
और अल्लाह को पसन्द नहीं आता कोई नाशुक्रा बड़ा गुनहगार बेशक वो जो ईमान लाए और  अच्छे काम किये और  नमाज़ क़ायम की और ज़कात दी उनका नेग उनके रब के पास है और  न उन्हें कुछ अन्देशा (डर) हो न कुछ ग़म ऐ ईमान वालो, अल्लाह से डरो और छोड़ दो जो बाक़ी  रह गया है सूद,  अगर मुसलमान हो (9)
फिर अगर ऐसा न करो तो यक़ीन कर लो अल्लाह और अल्लाह के रसूल से लड़ाई का (10)
और अगर तुम तौबह करो तो अपना अस्ल माल लेलो न तुम किसी को नुक़सान पहुंचाओ (11)
न तुम्हें नुक़सान हो   (12)
और अगर क़र्जदार तंगी वाला है तो उसे मोहलत दो आसानी तक और कर्ज़ उस पर बिल्कुल छोड़ देना तुम्हारे लिये और भला है अगर जानो (13)
और डरो उस दिन से जिसमें अल्लाह की तरफ़ फिरोगे और हर जान को उसकी कमाई पूरी भर दी जाएगी और उन पर जुल्म न होगा (14)(281)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – अड़तीसवाँ रूकू

(1) यानी ख़ुदा की राह में ख़र्च करने का बहुत शौक़ रखते हैं और हर हाल में ख़र्च करते रहते है. यह आयत हज़रत अबूबक्र सिद्दीक रदियल्लाहो अन्हो के हक़ में नाज़िल हुई, जबकि आपने ख़ुदा की राह में चालीस हज़ार दीनार ख़र्च किये थे, दस हज़ार रात में और दस हज़ार दिन में, और दस हज़ार छुपाकर और दस हज़ार ज़ाहिर में. एक क़ौल यह है कि यह आयत हज़रत मौला अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो के बारे में नाज़िल हुई, जबकि आपके पास फ़क़त चार दरहम थे और कुछ न था. आपने इन चारों को ख़ैरात कर दिया. एक रात में, एक दिन में, एक छुपा कर, एक ज़ाहिर में. आयत में रात की ख़ैरात को दिन की ख़ैरात पर, और छुपवाँ ख़ैरात को ज़ाहिर ख़ैरात पर प्राथमिकता दी गई है. इसमें इशारा है कि छुपाकर देना ज़ाहिर करके देने से अफ़ज़ल है.

(2) इस आयत में सूद के हराम होने और सूद खाने वालों के बुरे परिणाम का बयान है. सूद को हराम फ़रमाने में बहुत सी हिकमतें हैं. उनमें से कुछ ये है कि सूद में जो ज़ियादती ली जाती है वह माली मुआवज़े में माल की एक मात्रा का बिना बदल और एवज़ के लेना है. यह खुली हुई नाइन्साफ़ी है. दूसरे, सूद का रिवाज तिजारतों को ख़राब करता है कि सूद खाने वाले को बे मेहनत माल का हासिल होना तिजारत की मशक़्कतों और ख़तरों से कहीं ज़्यादा आसान मालूम होता है और तिजारतों में कमी इन्सानी समाज को हानि पहुंचाती है. तीसरे, सूद के रिवाज से आपसी व्यवहार को नुक़सान पहुंचता है कि जब आदमी सूद का आदी हो जाता है तो वह किसी को क़र्ज़े हसन से मदद करना पसन्द नहीं करता. चौथे, सूद से आदमी की तबीयत में जानवरों की सी बेरहमी और कठोरता पैदा हो जाती है और सूद ख़ोर अपने क़र्ज़दार की तबाही और बर्बादी की इच्छा करता रहता है. इसके अलावा भी सूद में और बड़े बड़े नुक़सान हैं और शरीअत ने इससे जिस तरह हमें रोका है, वह अल्लाह की ख़ास हिकमत से है. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने सूद खाने वाले और उसके काम करने वाले और सूद का काग़ज़ लिखने वाले और उसके गवाहों पर लानत की और फ़रमाया, वो सब गुनाह में बराबर हैं.

(3) मानी ये हैं कि जिस तरह आसेब अर्थात भूत प्रेत का शिकार सीधा खड़ा नहीं हो सकता, गिरता पड़ता चलता है, क़यामत के दिन सूद खाने वाले का ऐसा ही हाल होगा कि सूद से उसका पेट बहुत भारी और बोझल हो जाएगा और वह उसके बोझ से गिर पड़ेगा. सईद बिन जुबैर रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि यह निशानी उस सूदख़ोर की है जो सूद को हलाल जाने.

(4) यानी सूद हराम होने से पहले जो लिया, उस पर कोई पकड़ नहीं.

(5) जो चाहे हुक्म फ़रमाए, जो चाहे हराम और मना करे. बन्दे पर उसकी आज्ञा का पालन लाज़िम है.

(6) जो सूद को हलाल जाने वह काफ़िर है. हमेशा जहन्नम में रहेगा, क्योंकि हर एक हरामें क़तई का हलाल जानने वाला क़ाफ़िर है.

(7) और उसको बरकत से मेहरूम करता है. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि अल्लाह तआला उससे न सदक़ा क़ुबूल करे, न हज, न जिहाद, न और भलाई के काम.

(8) उसको ज़्यादा करता है और उसमें बरकत फ़रमाता है. दुनिया में और आख़िरत में उसका बदला और सवाब बढ़ाता है.

(9) यह आयत उन लोगों के बारे में नाज़िल हुई जो सूद के हराम होने के आदेश उतरने से पहले सूद का लैन दैन करते थे, और उनकी भारी रक़में दूसरों के ज़िम्मे बाक़ी थीं. इसमें हुक्म दिया गया कि सूद के हराम हो जाने के बाद पिछली सारी माँगे और सारे उधार छोड़ दिये जाएं और पहला मूक़र्रर किया हुआ सूद भी अब लेना जायज़ नहीं.

(10) किसकी मजाल कि अल्लाह और उसके रसूल से लड़ाई की कल्पना भी करे. चुनान्चे उन लोगों ने अपनी सूदी मुतालिबे और माँगे और उधार छोड़ दिये और यह अर्ज़ किया कि अल्लाह तआला और उसके रसूल से लड़ाई की हम में क्या ताक़त. और सब ने तौबह की.

(11) ज़्यादा लेकर.

(12) मूल धन घटा कर.

(13) क़र्जदार अगर तंगदस्त या नादार हो तो उसको मोहलत देना या क़र्ज़ का कुछ भाग या कुल माफ़ कर देना बड़े इनाम का कारण है. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जिसने तंगदस्त को मोहलत दी या उसका क़र्ज़ा माफ़ किया, अल्लाह तआला उसको अपनी रहमत का साया अता फ़रमाएगा, जिस रोज़ उसके साए के सिवा कोई साया न होगा.

(14) यानी न उसकी नेकियाँ घटाई जाएं न बुराईयाँ बढ़ाई जाएं. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि यह सबसे आख़िरी आयत है जो हुज़ूर पर नाज़िल हुई इसके बाद हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इक्कीस रोज़ दुनिया में तशरीफ़ फ़रमा रहे और एक क़ौल के अनुसार नौ रातें, और एक में सात. लेकिन शअबी ने हज़रत इब्ने अब्बास से यह रिवायत की, कि सब से आख़िर में आयतें “रिबा” नाज़िल हुई.

सूरए बक़रह – उन्तालीसवाँ रूकू

ऐ ईमान वालों जब तुम एक निश्चित मुद्दत तक किसी दैन का लेन देन करो (1)
तो उसे लिख लो (2)
और चाहिये कि तुम्हारे दरमियान कोई लिखने वाला ठीक ठीक लिखे (3)

और लिखने वाला लिखने से इन्कार न करे जैसा कि उसे अल्लाह ने सिखाया है (4)
तो उसे लिख देना चाहिये और जिस पर हक़ आता है वह लिखता जाए और अल्लाह से डरो जो उसका रब है और हक़ में से कुछ रख न छोड़े फिर जिस पर हक़ आता है अगर बे – अक़्ल या कमज़ोर हो या लिखा न सके (5)
तो उसका वली  (सरपरस्त) इन्साफ़ से लिखाए और दो गवाह कर लो अपने मर्दों में से (6)
फिर अगर दो मर्द न हों (7)
तो एक मर्द और दो औरतें, ऐसे गवाह जिनको पसन्द करो (8)
कि कहीं उनमें एक औरत भूले तो उस एक को दूसरी याद दिला दे और गवाह जब बुलाए जाए तो आने से इन्कार न करें (9)
और इसे भारी न जानो कि दैन छोटा है या बड़ा उसकी मीआद तक लिखित कर लो यह अल्लाह के नज़दीक ज़्यादा इन्साफ़ की बात है, इस में गवाही ख़ूब ठीक रहेगी और यह उससे क़रीब है कि तुम्हें शुबह न पड़े मगर यह कि कोई सरेदस्त  (तात्कालिक) का सौदा हाथों हाथ हो तो उसके न लिखने का तुम पर गुनाह नहीं (10)
और जब क्रय विक्रय करो तो गवाह को (या न लिखने वाला ज़रर दे न गवाह) (12)
और जो तुम ऐसा करो तो यह तुम्हारा फ़िस्क़ (दुराचार) होगा और अल्लाह से डरो और अल्लाह तुम्हें सिखाता है और अल्लाह सब कुछ जानता है और अगर तुम सफ़र में हो (13)
और लिखने वाला न पाओ (14)
तो गिरौ हो क़ब्ज़े में दिया हुआ (15)
और अगर तुम में एक को दूसरे पर इत्मीनान हो तो वह जिसे उसने अमीन (विश्वस्त) समझा था (16)
अपनी अमानत अदा करदे  (17)
और अल्लाह से डरो जो उसका रब है और गवाही न छुपाओ (18)
और जो गवाही छुपाएगा तो अन्दर से उसका दिल गुनाहगार है (19)
और अल्लाह तुम्हारे कामों को जानता है (283)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – उन्तालीसवाँ रूकू

(1) चाहे वह दैन मबीअ हो या समन. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि इससे बेअए सलम मुराद है. बैअए सलम यह है कि किसी चीज़ को पेशगी क़ीमत लेकर बेचा जाए और मबीअ मुश्तरी को सुपुर्द करने के लिए एक मुद्दत तय कर ली जाए. इस बैअए के जवाज़ के लिये जिन्स, नौअ, सिफ़त, मिक़दार, मुद्दत औ मकाने अदा और मूल धन की मात्रा, इन चीज़ों का मालूम होना शर्त है.

(2) यह लिखना मुस्तहब है, फ़ायदा इसका यह है कि भूल चूक और क़र्ज़दार के इन्कार का डर नहीं रहता.

(3) अपनी तरफ़ से कोई कमी बेशी न करे, न पक्षों में से किसी का पक्षपात या रिआयत.

(4) मतलब यह है कि कोई लिखने वाला लिखने से मना न करे जैसे कि अल्लाह तआला ने उसको वसीक़ा लिखने का इल्म दिया. उसके साथ पूरी ईमानदारी बरतते हुए, बिना कुछ रद्दो बदल किये दस्तावेज़ लिखे. यह लिखना एक क़ौल के मुताबिक़ फ़र्ज़े किफ़ाया है और एक क़ौल पर ऐन फर्ज़, उस सूरत में जब उसके सिवा कोई लिखने वाला न पाया जाए. और एक क़ौल के अनुसार मुस्तहब है, क्योंकि इसमें मुसलमान की ज़रूरत पूरी होने और इल्म की नेअमत का शुक्र है. और एक क़ौल यह है कि पहले यह लिखना फ़र्ज़ था, फ़िर “ला युदार्रो कातिबुन” से स्थगित हुआ.

(5) यानी अगर क़र्ज़ लेने वाला पागल और मंदबुद्धि वाला हो या बच्चा या बहुत ज़्यादा बूढ़ा हो या गूंगा होने या ज़बान न जानने की वजह से अपने मतलब का बायान न कर सकता हो.

(6) गवाह के लिये आज़ाद होना, बालिग़ होना और मुसलमान होना शर्त है. काफ़िरों की गवाही सिर्फ काफ़िरों पर मानी जाएगी.

(7) अकेली औरतों की गवाही जायज़ नहीं, चाहे वो चार क्यों न हों, मगर जिन कामों पर मर्द सूचित नहीं हो सकते जैसे कि बच्चा जनना, ऐसी जवान लड़की या औरत होना जिसका कौंवार्य भंग न हुआ हो और औरतों के ऐब, इसमें एक औरत की गवाही भी मानी जाती है. बड़े जुर्मो की सज़ा या क़त्ल वग़ैरह के क़िसास में औरतों की गवाही बिल्कुल नहीं मानी जाएगी. सिर्फ़ मर्दो की गवाही मानी जाएगी. इसके अलावा और मामलों में एक मर्द और दो औरतों की गवाही भी मानी जाएगी. (तफ़सीरे अहमदी).

(8) जिनका सच्चा होना तुम्हें मालूम हो और जिनके नेक और शरीफ़ होने पर तुम विश्वास रखते हो.

(9) इस आयत से मालूम हुआ कि गवाही देना फ़र्ज़ है. जब मुद्दई गवाहों को तलब करे तो उन्हें गवाही का छुपाना जायज़ नहीं. यह हुक्म बड़े गुनाहों की सज़ा के अलावा और बातों में है. लेकिन हुदूद में गवाह को ज़ाहिर करने या छुपाने का इख़्तियार है, बल्कि छुपाना अच्छा है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जो मुसलमान की पर्दा पोशी करे, अल्लाह तआला दुनिया और आख़िरत में उसके ऐबों और बुराईयों पर पर्दा डालेगा. लेकिन चोरी में माल लेने की गवाही देना वाजिब है, ताकि जिसका माल चोरी गया है उसका हक़ नष्ट न हो. गवाह इतनी ऐहतियात कर सकता है कि चोरी का शब्द न कहे. गवाही में केवल इतना ही कह दे कि यह माल अमुक व्यक्ति ने लिया.

(10) चूंकि इस सूरत में लेन देन होकर मामला ख़त्म हो गया और कोई डर बाक़ी न रहा, साथ ही ऐसी तिजारत और क्रय विक्रय अधिकतर जारी रहती है. इसमें किताब यानी लिखने और गवाही की पाबन्दी भी पड़ेगी.

(11) यह मुस्तहब है, क्योंकि इसमें एहतियात है.

(12) “युदार्रो” में हज़रत इब्ने अब्बास के मुताबिक़ मानी ये हैं कि दोनों पक्ष कातिबों और गवाहों को हानि नहीं पहुंचाएं, इस तरह कि वो अगर अपनी ज़रूरतों में मशगूल हों तो उन्हें मजबूर करें और उनके काम छुड़ाएं या लिखाई का वेतन न दें या गवाह को सफ़र ख़र्च न दें, अगर वह दूसरे शहर से आया है. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो का क़ौल “युदार्रो” में यह है कि लिखने वाले और गवाह क़र्ज़ लेने वाले और क़र्ज़ देने वाले, दोनों पक्षों को हानि न पहुंचाएं. इस तरह कि फ़ुरसत और फ़राग़त होने के बावुजूद बुलाने पर न आएं, या लिखने में अपनी तरफ़ से कुछ घटा बढ़ा दें.

(13) और क़र्ज़ की ज़रूरत पेश आए.

(14) और वसीक़ा व दस्तावेज की लिखाई का अवसर न मिले तो इत्मीनान के लिये.

(15) यानी कोई चीज़ क़र्ज़ देने वाले के क़ब्जे़ में गिरवी के तौर पर दे दो. यह मुस्तहब है और सफ़र की हालत में रहन या गिरवी इस आयत से साबित हुआ. और सफ़र के अलावा की हालत में हदीस से साबित है. चुनांचे रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मदीनए तैय्यिबह में अपनी ज़िरह मुबारक यहूदी के पास गिरवी रखकर बीस साअ जौ लिये. इस आयत से रहन या गिरवी रखने की वैधता और क़ब्ज़े का शर्त होना साबित होता है.

(16) यानी क़र्ज़दार, जिसको क़र्ज़ देने वाले ने अमानत वाला समझा.

(17) इस अमानत से दैन मुराद है.

(18) क्योंकि इसमें हक़ रखने वाले के हक़ का नुक़सान है. यह सम्वोघन गवाहों को है कि वो जब गवाही के लिये तलब किये जाएं तो सच्चाई न छुपाएं और एक क़ौल यह भी है कि सम्वोधन क़र्ज़दारों को है कि वो अपने अन्त:करण पर गवाही देने में हिचकिचाएं नहीं.

(19) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से एक हदीस है कि बड़े गुनाहों में सबसे बड़ा गुनाह अल्लाह के साथ शरीक करना और झूठी गवाही देना और गवाही को छुपाना है.

सूरए बक़रह – चालीसवाँ रूकू

अल्लाह ही का है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और अगर तुम ज़ाहिर करो जो कुछ(1)
तुम्हारे जी में है या छुपाओ, अल्लाह तुम से उसका हिसाब लेगा (2)
तो जिसे चाहे बख्श़ेगा (3)
और जिसे चाहे सज़ा देगा (4)
और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर  (सर्व – सक्षम) है रसूल ईमान लाया उसपर जो उसके रब के पास से उस पर उतरा और ईमान वाले सब ने माना (5)
अल्लाह और उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों और उसके रसूलों को (6)
यह कहते हुए कि हम उसके किसी रसूल पर ईमान लाने में फ़र्क़ नहीं करते (7)
और अर्ज़ की कि हमने सुना और माना (8)
तेरी माफ़ी हो ऐ रब हमारे और तेरी ही तरफ़ फिरना है अल्लाह किसी जान पर बोझ नहीं डालता मगर उसकी ताक़त भर, उसका फ़ायदा है जो अच्छा कमाया और उसका नुक़सान है जो बुराई कमाई.  (9)
ऐ रब हमारे हमें न पकड़ अगर हम भूले और (10)
या चूकें, ऐ रब हमारे और हम पर भारी बोझ न रख जैसा तूने हम से अगलों पर रखा था, ऐ रब हमारे और हम पर वह बोझ न डाल जिसकी हमें सहार न हो और हमें माफ़ फ़रमादे और बख़्श दे और हम पर मेहर कर, तू हमारा मौला है तू काफ़िरों पर हमें मदद दे (286)

तफ़सीर : सूरए बक़रह – चालीसवाँ रूकू
(1) बुराई.

(2) इन्सान के दिल में दो तरह के ख़्याल आते हैं, एक वसवसे के तौर पर. उनसे दिल का ख़ाली करना इन्सान की ताक़त में नहीं. लेकिन वह उनको बुरा जानता है और अमल में लाने का इरादा नहीं करता. उनको हदीसे नफ़्स और वसवसा कहते है. इस पर कोई पकड़ नहीं. बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ की हदीस है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि मेरी उम्मत के दिलों में जो वसवसे गुज़रते हैं, अल्लाह तआला उस वक़्त तक उन पर पकड़ नहीं करता जब तक वो अमल में न लाए जाएं या उनके साथ कलाम न करें. ये वसवसे इस आयत में दाख़िल नहीं. दूसरे वो ख़्यालात जिनको मनुष्य अपने दिल में जगह देता है और उनको अमल में लाने का इरादा करता है. कुफ़्र का इरादा करना कुफ़्र है और गुनाह का इरादा करके अगर आदमी उस पर साबित रहे और उसका इरादा रखे लेकिन उस गुनाह को अमल में लाने के साधन उसको उपलब्ध न हों और वह मजबूरन उसको न कर सके तो उससे हिसाब लिया जाएगा. शेख़ अबू मन्सूर मातुरीदी और शम्सुल अइम्मा हलवाई इसी तरफ़ गए हैं. और उनकी दलील आयत ” इन्नल लज़ीना युहिब्बूना अन तशीउल फ़ाहिशतो ” और हज़रत आयशा की हदीस, जिसका मज़मून यह है कि बन्दा जिस गुनाह का इरादा करता है, अगर वह अमल में न आए, जब भी उसपर पकड़ की जाती है. अगर बन्दे ने किसी गुनाह का इरादा किया फिर उसपर शर्मिन्दा हुआ और तौबह की तो अल्लाह उसे माफ़ फ़रमाएगा.

(3) अपने फ़ज़्ल से ईमान वालों को.

(4) अपने इन्साफ़ से.

(5) ज़ुजाज ने कहा कि जब अल्लाह तआला ने इस सूरत में नमाज़, ज़कात, रोज़े, हज की फ़र्ज़ियत और तलाक़, ईला, हैज़ और जिहाद के अहकाम और नबियों के क़िस्से बयान फ़रमाए, तो सूरत के आख़िर में यह ज़िक्र फ़रमाया कि नबिये करीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और ईमान वालों ने इस तमाम की तस्दीक़ फ़रमाई और क़ुरआन और उसके सारे क़ानून और अहकाम अल्लाह की तरफ़ से उतरने की तस्दीक़ की.

(6) ये उसूल और ईमान की ज़रूरतों के चार दर्जे हैं (1) अल्लाह पर ईमान लाना, यह इस तरह कि अक़ीदा रखे, और तस्दीक़ करे कि अल्लाह एक और केवल एक है, उसका कोई शरीक और बराबर नहीं. उसके सारे नामों और सिफ़ात पर ईमान लाए और यक़ीन करे और माने कि वह जानने वाला और हर चीज़ पर क़ुदरत रखने वाला है और उसके इल्म और क़ुदरत से कोई चीज़ बाहर नहीं है. (2) फ़रिश्तों पर ईमान लाना. यह इस तरह है कि यक़ीन करे और माने कि वो मौजूद हैं, मासूम हैं, पाक हैं, अल्लाह और उसके रसूलों के बीच अहकाम और पैग़ाम लाने वाले हैं. (3) अल्लाह की किताबों पर ईमान लाना, इस तरह कि जो किताबें अल्लाह तआला ने उतारीं और अपने रसूलों पर वहीं के ज़रिये भेजीं, बेशक बेशुबह सब सच्ची और अल्लाह की तरफ़ से हैं और क़ुरआने करीम तबदील, काट छाँट, रद्दो बदल से मेहफ़ूज़ है, और अल्लाह के आदेशों और उसके रहस्यों पर आधारित है. (4) रसूलों पर ईमान लाना, इस तरह कि ईमान लाए कि वो अल्लाह के भेजे हुए हैं जिन्हें उसने अपने बन्दों की तरफ़ भेजा. उसकी वही के अमीन है, गुनाहों से पाक, मासूम हैं, सारी सृष्टि से अफ़ज़ल हैं. उनमें कुछ नबी कुछ नबियों से अफ़ज़ल हैं.

(7) जैसा कि यहूदियों और ईसाइयों ने किया कि कुछ पर ईमान लाए और कुछ का इन्कार किया.

(8) तेरे हुक्म और इरशाद को.

(9) यानी हर जान को नेक कर्म का इनाम और सवाब मिलेगा और बुरे कर्मों का अज़ाब होगा. इसके बाद अल्लाह तआला ने अपने मूमिन बन्दों को दुआ मांगने का तरीक़ा बताया कि वो इस तरह अपने परवर्दिगार से अर्ज़ करें.

(10) और ग़लती या भूल चूक से तेरे किसी आदेश के पालन से मेहरूम रहें.