60-Surah Al-Mumtahinah

60 सूरए मुम्तहिनह
सूरए मुम्तहिनह मदीने में उतरी, इसमें 13 आयतें, दो रूकू हैं.
-पहला रूकू

60|1|بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَّخِذُوا عَدُوِّي وَعَدُوَّكُمْ أَوْلِيَاءَ تُلْقُونَ إِلَيْهِم بِالْمَوَدَّةِ وَقَدْ كَفَرُوا بِمَا جَاءَكُم مِّنَ الْحَقِّ يُخْرِجُونَ الرَّسُولَ وَإِيَّاكُمْ ۙ أَن تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ رَبِّكُمْ إِن كُنتُمْ خَرَجْتُمْ جِهَادًا فِي سَبِيلِي وَابْتِغَاءَ مَرْضَاتِي ۚ تُسِرُّونَ إِلَيْهِم بِالْمَوَدَّةِ وَأَنَا أَعْلَمُ بِمَا أَخْفَيْتُمْ وَمَا أَعْلَنتُمْ ۚ وَمَن يَفْعَلْهُ مِنكُمْ فَقَدْ ضَلَّ سَوَاءَ السَّبِيلِ
60|2|إِن يَثْقَفُوكُمْ يَكُونُوا لَكُمْ أَعْدَاءً وَيَبْسُطُوا إِلَيْكُمْ أَيْدِيَهُمْ وَأَلْسِنَتَهُم بِالسُّوءِ وَوَدُّوا لَوْ تَكْفُرُونَ
60|3|لَن تَنفَعَكُمْ أَرْحَامُكُمْ وَلَا أَوْلَادُكُمْ ۚ يَوْمَ الْقِيَامَةِ يَفْصِلُ بَيْنَكُمْ ۚ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ
60|4|قَدْ كَانَتْ لَكُمْ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ فِي إِبْرَاهِيمَ وَالَّذِينَ مَعَهُ إِذْ قَالُوا لِقَوْمِهِمْ إِنَّا بُرَآءُ مِنكُمْ وَمِمَّا تَعْبُدُونَ مِن دُونِ اللَّهِ كَفَرْنَا بِكُمْ وَبَدَا بَيْنَنَا وَبَيْنَكُمُ الْعَدَاوَةُ وَالْبَغْضَاءُ أَبَدًا حَتَّىٰ تُؤْمِنُوا بِاللَّهِ وَحْدَهُ إِلَّا قَوْلَ إِبْرَاهِيمَ لِأَبِيهِ لَأَسْتَغْفِرَنَّ لَكَ وَمَا أَمْلِكُ لَكَ مِنَ اللَّهِ مِن شَيْءٍ ۖ رَّبَّنَا عَلَيْكَ تَوَكَّلْنَا وَإِلَيْكَ أَنَبْنَا وَإِلَيْكَ الْمَصِيرُ
60|5|رَبَّنَا لَا تَجْعَلْنَا فِتْنَةً لِّلَّذِينَ كَفَرُوا وَاغْفِرْ لَنَا رَبَّنَا ۖ إِنَّكَ أَنتَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ
60|6|لَقَدْ كَانَ لَكُمْ فِيهِمْ أُسْوَةٌ حَسَنَةٌ لِّمَن كَانَ يَرْجُو اللَّهَ وَالْيَوْمَ الْآخِرَ ۚ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ اللَّهَ هُوَ الْغَنِيُّ الْحَمِيدُ

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए मुम्तहिनह मदनी है इसमें दो रूकू, तेरह आयतें, तीन सौ अड़तालीस कलिमें, एक हज़ार पाँच सौ दस अक्षर हैं.

ऐ ईमान वालो! मेरे और अपने दुशमनों को दोस्त न बनाओ (2)
(2) यानी काफ़िरों को. बनी हाशिम के ख़ानदान की एक बाँदी सारह मदीनए तैय्यिबह में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में हाज़िर हुई जबकि हुज़ूर मक्के की फ़त्ह का सामान फ़रमा रहे थे. हुज़ूर ने उससे फ़रमाया क्या तू मुसलमान होकर आई हैं? उसने कहा, नहीं फ़रमाया, क्या हिजरत करके आई? अर्ज़ किया, नहीं. फ़रमाया, फिर क्यों आई? उसने कहा, मोहताजी से तंग होकर. बनी अब्दुल मुत्तलिब ने उसकी इमदाद की. कपड़े बनाए, सामान दिया. हातिब बिन अबी बलतह रदियल्लाहो अन्हो उससे मिले. उन्होंने उसको दस दीनार दिये, एक चादर दी और एक ख़त मक्के वालों के पास उसकी मअरिफ़त भेजा जिसका मज़मून यह था कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तुम पर हमले का इरादा रखते हैं, तुम से अपने बचाव की जो तदबीर हो सके करो. सारह यह ख़त लेकर रवाना हो गई. अल्लाह तआला ने अपने हबीब को इसकी ख़बर दी. हुज़ूर ने अपने कुछ सहाबा को, जिनमें हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो भी थे, घोड़ों पर रवाना किया और फ़रमाया मक़ामे रौज़ा ख़ाख़ पर तुम्हें एक मुसाफ़िर औरत मिलेगी, उसके पास हातिब बिन अबी बलतअह का ख़त है जो मक्के वालों के नाम लिखा गया है. वह ख़त उससे ले लो और उसको छोड़ दो. अगर इन्कार करे तो उसकी गर्दन मार दो. ये हज़रात रवाना हुए और औरत को ठीक उसी जगह पर पाया जहाँ हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया था. उससे ख़त माँगा. वह इन्कार कर गई और क़सम खा गई. सहाबा ने वापसी का इरादा किया. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो ने क़सम खाकर फ़रमाया कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़बर ग़लत हो ही नहीं सकती और तलवार खींच कर औरत से फ़रमाया या ख़त निकाल या गर्दन रख. जब उसने देखा कि हज़रत बिल्कुल क़त्ल करने को तैयार हैं तो अपने जुड़े में से ख़त निकाला. हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हज़रत हातिब को बुलाकर फ़रमाया कि ऐ हातिब इसका क्या कारण. उन्होंने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मैं जब से इस्लाम लाया कभी मैंने कुफ़्र न किया और जब से हुज़ूर की नियाज़मन्दी मयस्सर आई कभी हुज़ूर की ख़यानत न की और जब से मक्के वालों को छोड़ा कभी उनकी महब्बन न आई लेकिन वाक़िआ यह है कि मैं क़ुरैश में रहता था और उनकी क़ौम से न था मेरे सिवा और जो मुहाजिर हैं उनके मक्कए मुकर्रमा में रिश्तेदार हैं जो उनके घरबार की निगरानी करते हैं. मुझे अपने घरवालों का अन्देशा था इसलिये मैंने यह चाहा कि मैं मक्के वालों पर कुछ एहसान रखूँ ताकि वो मेरे घरवालों को न सताएं और मैं यक़ीन से जानता हूँ कि अल्लाह तआला मक्के वालों पर अज़ाब उतारने वाला है मेरा ख़त उन्हें बचा न सकेगा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनका यह उज़्र क़ुबूल फ़रमाया और उनकी तस्दीक़ की. हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम मुझे इजाज़त दीजिये इस मुनाफ़िक़ की गर्दन मार दूँ. हुज़ूर ने फ़रमाया ऐ उमर अल्लाह तआला ख़बरदार है जब ही उसने बद्र वालों के हक़ में फ़रमाया कि जो चाहो करो मैंने तुम्हें बख़्श दिया. यह सुनकर हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो के आँसू जारी हो गए और ये आयतें उतरीं.
तुम उन्हें ख़बरें पहुंचाते हो दोस्ती से हालांकि वो मुन्किर हैं उस हक़ के जो तुम्हारे पास आया(3)
(3) यानी इस्लाम और क़ुरआन.

घर से अलग करते हैं (4)
(4) यानी मक्कए मुकर्रमा से.

रसूल को और तुम्हें इस पर कि तुम अपने रब अल्लाह पर ईमान लाए अगर तुम निकले हो मेरी राह में जिहाद करने और मेरी रज़ा चाहने को, तो उनसे दोस्ती न करो तुम उन्हें ख़ुफ़िया संदेश महब्बत का भेजते हो और मैं ख़ूब जानता हूँ जो तुम छुपाओ और जो ज़ाहिर करो, और तुम में जो ऐसा करे बेशक वह सीधी राह से बहका{1} अगर तुम्हें पाएं (5)
(5) यानी अगर काफ़िर तुम पर मौक़ा पा जाएं.

तो तुम्हारे दुश्मन होंगे और तुम्हारी तरफ़ अपने हाथ (6)
(6) ज़र्ब (हमला) और क़त्ल के साथ.

और अपनी ज़बानें(7)
(7) ज़ुल्म अत्याचार और—

बुराई के साथ दराज़ करेंगे और उनकी तमन्ना है कि किसी तरह तुम काफ़िर हो जाओ (8){2}
(8) तो ऐसे लोगों को दोस्त बनाया और उनसे भलाई की उम्मीद रखना और उनकी दुश्मनी से ग़ाफ़िल रहना हरगिज़ न चाहिये.

हरगिज़ काम न आएंगे तुम्हें तुम्हारे रिश्ते और न तुम्हारी औलाद(9)
(9) जिनकी वजह से तुम काफ़िरों से दोस्ती और मेलजोल करते हो.

क़यामत के दिन तुम्हें उनसे अलग कर देगा(10)
(10) कि फ़रमाँबरदार जन्नत में होंगे और काफ़िर नाफ़रमान जहन्नम में.

और अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है{3} बेशक तुम्हारे लिये अच्छी पैरवी थी(11)
(11) हज़रत हातिब रदियल्लाहो अन्हो और दूसरे मूमिनों को ख़िताब है और सब को हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का अनुकरण करने का हुक्म है कि दीन के मामले रिश्तेदारों के साथ उनका तरीक़ा इख़्तियार करें.

इब्राहीम और उसके साथ वालों में (12)
(12) साथ वालों से ईमान वाले मुराद हैं.

जब उन्होंने अपनी क़ौम से कहा(13)
(13) जो मुश्रिक थी.

बेशक हम बेज़ार हैं तुम से और उनसे जिन्हें अल्लाह के सिवा पूजते हो, हम तुम्हारे इन्कारी हुए(14)
(14) और हमने तुम्हारे दीन की मुख़ालिफ़त इख़्तियार की.

और हम में और तुम में दुश्मनी और अदावत ज़ाहिर हो गई हमेशा के लिये जब तक तुम एक अल्लाह पर ईमान न लाओ मगर इब्राहीम का अपने बाप से कहना कि मैं ज़रूर तेरी मग़फ़िरत चाहूंगा (15)
(15) यह अनुकरण के क़ाबिल नहीं है क्योंकि वह एक वादे की बिना पर था और जब हज़रत इब्राहीम को ज़ाहिर हो गया कि वो कुफ़्र पर अटल है तो आपने उससे बेज़ारी की लिहाज़ा यह किसी के लिये जायज़ नहीं कि अपने बेईमान रिश्तेदार के लिये माफ़ी की दुआ करे.

और मैं अल्लाह के सामने तेरे किसी नफ़े का मालिक नहीं(16)
(16) अगर तू उसकी नाफ़रमानी करे और शिर्क पर क़ायम रहे.{ख़ाज़िन}

ऐ हमारे रब ! हमने तुझी पर भरोसा किया और तेरी ही तरफ़ रूजू लाए और तेरी ही तरफ़ फिरना है(17){4}
(17) यह भी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की और उन मूमिनों की दुआ है जो आपके साथ थे और माक़व्ल इस्तस्ना के साथ जुड़ा हुआ है लिहाज़ा मूमिनों को इस दुआ में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम का अनुकरण करना चाहिये.

ऐ हमारे रब ! हमें काफ़िरों की आज़माइश में न डाल (18)
(18) उन्हें हम पर ग़लबा न दे कि वो अपने आपको सच्चाई पर गुमान करने लगें.

और हमें बख़्श दे ऐ हमारे रब, बेशक तू ही इज़्ज़त व हिकमत वाला है {5} बेशक तुम्हारे लिये (19)
(19) ऐ हबीबे ख़ुदा मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की उम्मत.

उनमें अच्छी पैरवी थी(20)
(20) यानी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम और उनके साथ वालों में.

उसे जो अल्लाह और पिछले दिन का उम्मीदवार हो(21)
(21) अल्लाह तआला की रहमत और सवाब और आख़िरत की राहत का तालिब हो और अल्लाह के अज़ाब से डरे.

और जो मुंह फेरे (22) तो बेशक अल्लाह ही बेनियाज़ है सब ख़ूबियों सराहा{6}
(22) ईमान से और काफ़िरों से दोस्ती करे.

58-Surah Al-Mujadalah

58 सूरए मुजादलह -दूसरा रूकू

58|7|أَلَمْ تَرَ أَنَّ اللَّهَ يَعْلَمُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۖ مَا يَكُونُ مِن نَّجْوَىٰ ثَلَاثَةٍ إِلَّا هُوَ رَابِعُهُمْ وَلَا خَمْسَةٍ إِلَّا هُوَ سَادِسُهُمْ وَلَا أَدْنَىٰ مِن ذَٰلِكَ وَلَا أَكْثَرَ إِلَّا هُوَ مَعَهُمْ أَيْنَ مَا كَانُوا ۖ ثُمَّ يُنَبِّئُهُم بِمَا عَمِلُوا يَوْمَ الْقِيَامَةِ ۚ إِنَّ اللَّهَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ
58|8|أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ نُهُوا عَنِ النَّجْوَىٰ ثُمَّ يَعُودُونَ لِمَا نُهُوا عَنْهُ وَيَتَنَاجَوْنَ بِالْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَمَعْصِيَتِ الرَّسُولِ وَإِذَا جَاءُوكَ حَيَّوْكَ بِمَا لَمْ يُحَيِّكَ بِهِ اللَّهُ وَيَقُولُونَ فِي أَنفُسِهِمْ لَوْلَا يُعَذِّبُنَا اللَّهُ بِمَا نَقُولُ ۚ حَسْبُهُمْ جَهَنَّمُ يَصْلَوْنَهَا ۖ فَبِئْسَ الْمَصِيرُ
58|9|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا تَنَاجَيْتُمْ فَلَا تَتَنَاجَوْا بِالْإِثْمِ وَالْعُدْوَانِ وَمَعْصِيَتِ الرَّسُولِ وَتَنَاجَوْا بِالْبِرِّ وَالتَّقْوَىٰ ۖ وَاتَّقُوا اللَّهَ الَّذِي إِلَيْهِ تُحْشَرُونَ
58|10|إِنَّمَا النَّجْوَىٰ مِنَ الشَّيْطَانِ لِيَحْزُنَ الَّذِينَ آمَنُوا وَلَيْسَ بِضَارِّهِمْ شَيْئًا إِلَّا بِإِذْنِ اللَّهِ ۚ وَعَلَى اللَّهِ فَلْيَتَوَكَّلِ الْمُؤْمِنُونَ
58|11|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا قِيلَ لَكُمْ تَفَسَّحُوا فِي الْمَجَالِسِ فَافْسَحُوا يَفْسَحِ اللَّهُ لَكُمْ ۖ وَإِذَا قِيلَ انشُزُوا فَانشُزُوا يَرْفَعِ اللَّهُ الَّذِينَ آمَنُوا مِنكُمْ وَالَّذِينَ أُوتُوا الْعِلْمَ دَرَجَاتٍ ۚ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ
58|12|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا نَاجَيْتُمُ الرَّسُولَ فَقَدِّمُوا بَيْنَ يَدَيْ نَجْوَاكُمْ صَدَقَةً ۚ ذَٰلِكَ خَيْرٌ لَّكُمْ وَأَطْهَرُ ۚ فَإِن لَّمْ تَجِدُوا فَإِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
58|13|أَأَشْفَقْتُمْ أَن تُقَدِّمُوا بَيْنَ يَدَيْ نَجْوَاكُمْ صَدَقَاتٍ ۚ فَإِذْ لَمْ تَفْعَلُوا وَتَابَ اللَّهُ عَلَيْكُمْ فَأَقِيمُوا الصَّلَاةَ وَآتُوا الزَّكَاةَ وَأَطِيعُوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ وَاللَّهُ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ

ऐ सुनने वाले क्या तूने न देखा कि अल्लाह जानता है जो कुछ आसमानों में हैं और जो कुछ ज़मीन में है और जो कुछ ज़मीन में(1)
(1) उससे कुछ छुपा नहीं.

जहाँ कहीं तीन लोगों की कानाफूसी हो(2)
(2) और अपने राज़ आपस में कानों में कहें और अपनी बात चीत पर किसी को सूचित न होने दें.

तो चौथा वह मौजूद है (3)
(3) यानी अल्लाह तआला उन्हें देखता है, उनके राज़ जानता है.

और पाँच की(4)
(4) कानाफूसी हो.

तो छटा वह (5)
(5) यानी अल्लाह तआला.

और न उससे कम(6)
(6) यानी पाँच और तीन से.

और न उससे ज़्यादा की मगर यह कि वह उनके साथ है(7)
(7) अपने इल्म और क़ुदरत से.

जहाँ कहीं हों, फिर उन्हें क़यामत के दिन बता देगा जो कुछ उन्होंने किया, बेशक अल्लाह सब कुछ जानता है {7} क्या तुम ने उन्हें न देखा जिन्हें बुरी मशविरत से मना फ़रमाया गया था फिर वही करते हैं (8)
(8) यह अल्लाह यहूदियों और दोहरी प्रवृत्ति वाले मुनाफ़ि क़ों के बारे में उतरी. वो आपस में काना फूसी करते और मुसलमानों की तरफ़ देखते जाते और आँखों से उनकी तरफ़ इशारे करते जाते ताकि मुसलमान समझें कि उनके ख़िलाफ़ कोई छुपी बात है और इससे उन्हें दुख हो. उनकी इस हरकत से मुसलमानों को दुख होता था और वो कहते थे कि शायद इन लोगों को हमारे उन भाइयों की निस्बत क़त्ल या हार की कोई ख़बर पहुंची जो जिहाद में गए हैं और ये उसी के बारे में बाते बनाते और इशारे करते हैं. जब मुनाफ़ि क़ों की ये हरकतें ज़्यादा हो गई और मुसलमानों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुज़ूर में इसकी शि कायतें कीं तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने कानाफ़ूसी करने वालों को मना फ़रमाया लेकिन वो नहीं माने और यह हरकत करते ही रहे इसपर यह आयत उतरी.

जिसकी मुमानियत हुई थी और आपस में गुनाह और हद से बढ़ने (9)
(9)गुनाह और हद से बढ़ना यह कि मक्कारी के साथ कानाफूसी करके मुसलमानों को दुख में डालते हैं.

और रसूल की नाफ़रमानी के मशविरे करते हैं (10)
(10) और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नाफ़रमानरी यह कि मना करने के बाद भी बाज़ नहीं आते और यह भी कहा गया कि उनमें एक दूसरे को राय देते थे कि रसूल की नाफ़रमानी करो.

और जब तुम्हारे हुज़ूर हाज़िर होते हैं तो उन लफ़्ज़ों से तुम्हें मुजरा करते हैं जो लफ़्ज़ अल्लाह ने तुम्हारे एज़ाज़ में न कहे(11)
(11) यहूदी नबीये अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास आते तो अस्सामो अलैका (तुमपर मौत हो) कहते साम मौत को कहते हैं. नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उनके जवाब में अलैकुम(और तुम पर भी) फ़रमा देते.

और अपने दिलों में कहते हैं हमें अल्लाह अज़ाब क्यों नहीं करता हमारे इस कहने पर(12)
(12) इससे उनकी मुराद यह थी कि अगर हुज़ूर नबी होते तो हमारी इस गुस्ताख़ी पर अल्लाह तआला हमें अज़ाब करता, अल्लाह तआला फ़रमाता है.

उन्हें जहन्नम बस है, उसमें धंसेंगे तो क्या ही बुरा अंजाम {8} ऐ ईमान वालों तुम जब आपस में मशविरत (परामर्श) करो तो गुनाह और हद से बढ़ने और रसूल की नाफ़रमानी की मशविरत न करो(13)
(13) और जो तरीक़ा यहूदियों और मुनाफ़ि क़ों का है उससे बचो.

और नेकी और परहेज़गारी की मशविरत करो, और अल्लाह से डरो जिसकी तरफ़ उठाए जाओगे {9} वह मशविरत तो शैतान ही की तरफ़ से है(14)
(14) जिसमें गुनाह और हद से बढ़ना और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नाफ़रमानी हो और शैतान अपने दोस्तों को उस पर उभारता है.

इसलिये कि ईमान वालों को रंज दे और वह उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता ख़ुदा के हुक्म के बिना और मुसलमानों को अल्लाह ही पर भरोसा चाहिये(15) {10}
(15) कि अल्लाह पर भरोसा करने वाला टोटे में नहीं रहता.

ऐ ईमान वालों! जब तुमसे कहा जाए मजलिसों में जगह दो तो जगह दो, अल्लाह तुम्हें जगह देगा(16)
(16) नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम बद्र में हाज़िर होने वाले सहाबा की इज़्ज़त करते थे. एक रोज़ चन्द बद्री सहाबा ऐसे वक़्त पहुंचे जबकि मजलिस शरीफ़ भर चुकी थी, उन्होंने हुज़ूर के सामने खड़े होकर सलाम अर्ज़ किया हुज़ूर ने जवाब दिया. फिर उन्होंने हाज़िरीन को सलाम किया उन्होंने जवाब दिया फिर वो इस इन्तिज़ार में खड़े रहे कि उनके लिये मजलिस शरीफ़ में जगह की जाए मगर किसी ने जगह न दी. यह सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे को बुरा लगा तो हुज़ूर ने अपने क़रीब बैठने वालों को उठाकर उनके लिये जगह की. उठने वालों को उठना अच्छा नहीं लगा इसपर यह आयत उतरी.

और जब कहा जाए उठ खड़े हो तो उठ खड़े हो(17)
(17) नमाज़ के या जिहाद के या और किसी नेक काम के लिये और इसी में ज़ि क्रे रसूल की ताज़ीम के लिये खड़ा होना.

अल्लाह तुम्हारे ईमान वालों के और उनके जिनको इल्म दिया गया (18)
(18) अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी के कारण.

दर्जे बलन्द फ़रमाएगा, और अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है{11} ऐ ईमान वालो! जब तुम रसूल से कोई बात आहिस्ता अर्ज़ करना चाहो तो अपने अर्ज़ से पहले कुछ सदक़ा दे लो(19)
(19) कि उसमें रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बारगाह में हाज़िरी की ताज़ीम और फ़क़ीरों का नफ़ा है. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बारगाह में जब मालदारों ने अर्ज़ मअरूज़ का सिलसिला दराज़ किया और नौबत यहाँ तक पहुंची कि फ़क़ीरों को अपनी अर्ज़ पेश करने का मौक़ा कम मिलने लगा, तो अर्ज़ पेश करने वालों को अर्ज़ पेश करने से पहले सदक़ा देने का हुक्म दिया गया और इस हुक्म पर हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो ने अमल किया और एक दीनार सदक़ा करके दस मसअले दरियाफ़्त किये अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम वफ़ा क्या है? फ़रमाया, तौहीद और तौहीद की शहादत देना, अर्ज़ किया, फ़साद क्या है? फ़रमाया, कुफ़्र और शिर्क. अर्ज़ किया, हक क्या है? फ़रमाया, इस्लाम और क़ुरआन और विलायत, जब तुझे मिले. अर्ज़ किया, हीला क्या है? यानी तदबीर? फ़रमाया, तर्के हीला. अर्ज़ किया, मुझ पर क्या लाज़िम है? फ़रमाया, अल्लाह तआला और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी. अर्ज़ किया, अल्लाह तआला से दुआ कैसे माँगू? फ़रमाया, सच्चाई और यक़ीन के साथ, अर्ज़ किया, क्या माँगू? फ़रमाया, आक़िबत. अर्ज़ किया, अपनी निजात के लिये क्या करूं? फ़रमाया, हलाल खा और सच बोल. अर्ज़ किया, सुरूर क्या है? फ़रमाया, जन्नत, अर्ज़ किया, राहत क्या है? फ़रमाया, अल्लाह का दीदार. जब अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो इन सवालों के जवाब से फ़ारिग़ हो गए तो यह हुक्म मन्सूख़ हो गया और रूख़सत नाज़िल हुई और हज़रत अली के सिवा और किसी को इसपर अमल करने का वक़्त नहीं मिला. (मदारिक व ख़ाज़िन) हज़रत इमाम अहमद रज़ा ने फ़रमाया, यह इसकी अस्ल है जो औलिया की मज़ारात पर तस्दीक़ के लिये शीरीनी ले जाते हैं.

यह तुम्हारे लिये बहुत बेहतर और बहुत सुथरा है, फिर अगर तुम्हें मक़दूर न हो तो अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {12} क्या तुम इससे डरे कि तुम अपनी अर्ज़ से पहले कुछ सदक़ा दो(20)
(20) अपनी ग़रीबी और नादारी के कारण.

फिर जब तुमने यह न किया और अल्लाह ने अपनी कृपा से तुम पर तवज्जुह फ़रमाई(21)
(21) और सदक़े की पहल छोड़ने की पकड़ तुम पर से उठाली और तुमको इख़्तियार दे दिया.

तो नमाज़ क़ायम रखो और ज़कात दो और अल्लाह और उसके रसूल के फ़रमाँबरदार रहो, और अल्लाह तुम्हारे कामों को जानता है {13}

57-Surah Al-Hadeed

57 सूरए हदीद
सूरए हदीद मदीने में उतरी, इसमें 29 आयतें, चार रूकू हैं.
-पहला रूकू

 

57|1|بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ
57|2|لَهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ يُحْيِي وَيُمِيتُ ۖ وَهُوَ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
57|3|هُوَ الْأَوَّلُ وَالْآخِرُ وَالظَّاهِرُ وَالْبَاطِنُ ۖ وَهُوَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمٌ
57|4|هُوَ الَّذِي خَلَقَ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضَ فِي سِتَّةِ أَيَّامٍ ثُمَّ اسْتَوَىٰ عَلَى الْعَرْشِ ۚ يَعْلَمُ مَا يَلِجُ فِي الْأَرْضِ وَمَا يَخْرُجُ مِنْهَا وَمَا يَنزِلُ مِنَ السَّمَاءِ وَمَا يَعْرُجُ فِيهَا ۖ وَهُوَ مَعَكُمْ أَيْنَ مَا كُنتُمْ ۚ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ بَصِيرٌ
57|5|لَّهُ مُلْكُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۚ وَإِلَى اللَّهِ تُرْجَعُ الْأُمُورُ
57|6|يُولِجُ اللَّيْلَ فِي النَّهَارِ وَيُولِجُ النَّهَارَ فِي اللَّيْلِ ۚ وَهُوَ عَلِيمٌ بِذَاتِ الصُّدُورِ
57|7|آمِنُوا بِاللَّهِ وَرَسُولِهِ وَأَنفِقُوا مِمَّا جَعَلَكُم مُّسْتَخْلَفِينَ فِيهِ ۖ فَالَّذِينَ آمَنُوا مِنكُمْ وَأَنفَقُوا لَهُمْ أَجْرٌ كَبِيرٌ
57|8|وَمَا لَكُمْ لَا تُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ ۙ وَالرَّسُولُ يَدْعُوكُمْ لِتُؤْمِنُوا بِرَبِّكُمْ وَقَدْ أَخَذَ مِيثَاقَكُمْ إِن كُنتُم مُّؤْمِنِينَ
57|9|هُوَ الَّذِي يُنَزِّلُ عَلَىٰ عَبْدِهِ آيَاتٍ بَيِّنَاتٍ لِّيُخْرِجَكُم مِّنَ الظُّلُمَاتِ إِلَى النُّورِ ۚ وَإِنَّ اللَّهَ بِكُمْ لَرَءُوفٌ رَّحِيمٌ
57|10|وَمَا لَكُمْ أَلَّا تُنفِقُوا فِي سَبِيلِ اللَّهِ وَلِلَّهِ مِيرَاثُ السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۚ لَا يَسْتَوِي مِنكُم مَّنْ أَنفَقَ مِن قَبْلِ الْفَتْحِ وَقَاتَلَ ۚ أُولَٰئِكَ أَعْظَمُ دَرَجَةً مِّنَ الَّذِينَ أَنفَقُوا مِن بَعْدُ وَقَاتَلُوا ۚ وَكُلًّا وَعَدَ اللَّهُ الْحُسْنَىٰ ۚ وَاللَّهُ بِمَا تَعْمَلُونَ خَبِيرٌ

 

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए हदीद मक्की है या मदनी, इस में चार रूकू, उन्तीस आयतें, पांच सौ चवालीस कलिमे, दो हज़ार चार सौ छिहत्तर अक्षर हैं.

अल्लाह की पाकी बोलता है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है(2)
(2) जानदार हो या बेजान.

और वही इज़्ज़त व हिकमत (बोध) वाला है{1}उसी के लिये है आसमानों और ज़मीन की सल्तनत, जिलाता है(3)
(3) मख़लूक़ को पैदा करके या ये मानी हैं कि मुर्दां को ज़िन्दा करता है.

और मारता(4)
(4) यानी मौत देता है ज़िन्दों को.

और वह सब कुछ कर सकता है {2} वही अव्वल (आदि) (5)
(5) क़दीम, हर चीज़ को पहल से पहले, यानी आदि, बेइब्तिदा, कि वह था और कुछ न था.

वही आख़िर (अनन्त) (6)
(6) हर चीज़ की हलाकत और नाश होने के बाद रहने वाला यानी अनंत, सब फ़ना हो जाएंगे और वह हमेशा रहेगा उसके लिये अंत नहीं.

वही ज़ाहिर(7)
(7) दलीलों और निशानियों से, या ये मानी कि ग़ालिब हर चीज़ पर.

वही बातिन(8)
(8) हवास उसे समझने से मजबूर या ये मानी कि हर चीज़ का जानने वाला.

और वही सब कुछ जानता है {3} वही है जिसने आसमान और ज़मीन छ दिन में पैदा किये(9)
(9) दुनिया के दिनों से कि पहला उनका यकशम्बा और पिछला जुमआ है. हसन रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि वह अगर चाहता तो आनन फ़ानन पैदा कर देता लेकिन उसकी हिकमत यही थी कि छ को अस्ल बनाए और उनपर मदार रखे.

फिर अर्श पर इस्तिवा फ़रमाया जैसा कि उसकी शान के लायक़ है जानता है जो ज़मीन के अन्दर जाता है (10)
(10) चाहे वह दाना हो या क़तरा या ख़ज़ाना हो या मुर्दा.

और जो उससे बाहर निकलता है(11)
(11) चाहे वह नबात हो या धात या और कोई चीज़.

और जो आसमान से उतरता है (12)
(12) रहमत व अज़ाब और फ़रिश्ते और बारिश.

और जो उसमें चढ़ता है(13)
(13) आमाल और दुआएं.

और वह तुम्हारे साथ है(14)
(14) अपने इल्म और क़ुदरत के साथ आम तौर से, और फ़ज़्ल व रहमत के साथ ख़ास तौर पर.

तुम कहीं हो, और अल्लाह तुम्हार काम देख रहा है(15) {4}
(15) तो तुम्हें कर्मो के अनुसार बदला देगा.

उसी की है आसमानों और ज़मीन की सल्तनत और अल्लाह ही की तरफ़ सब कामों की रूजू{5} रात को दिन के हिस्से में लाता है(16)
(16) इस तरह कि रात को घटाता है और दिन की मिक़दार बढ़ाता है.

और दिन को रात के हिस्से में लाता है(17)
(17) दिन घटाकर और रात की मिक़दार बढ़ा कर.

और वह दिलों की बात जानता है (18){6}
(18) दिल के अक़ीदे और राज़ सबको जानता है.

अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाओ और उसकी राह में कुछ वह ख़र्च करो जिसमें तुम्हें औरों का जानशीन किया (19)
(19) जो तुमसे पहले थे और तुम्हारा जानशीन करेगा तुम्हारे बाद वालों को. मानी ये हैं कि जो माल तुम्हारे क़ब्ज़े में हैं सब अल्लाह तआला के हैं उसने तुम्हें नफ़ा उठाने के लिये दिये हैं. तुम अस्ल में इन के मालिक नहीं हो बल्कि नायब और वकील की तरह हो. इन्हें ख़ुदा की राह में खर्च करो और जिस तरह नायब और वकील को मालिक के हुक्म से ख़र्च करने में कोई हिचकिचाहट नहीं होती, तुम्हें भी कोई हिचकिचाहट न हो.

तो जो तुम में ईमान लाए और उसकी राह में ख़र्च किया उनके लिये बड़ा सवाब है {7} और तुम्हें क्या है कि अल्लाह पर ईमान न लाओ, हालांकि ये रसूल तुम्हें बुला रहे हैं कि अपने रब पर ईमान लाओ(20)
(20) और निशानियाँ और हुज्जतें पेश करते हैं और अल्लाह की किताब सुनाते हैं तो अब तुम्हें क्या उज्र हो सकता है.

और बेशक वह
(21)
(21) यानी अल्लाह तआला.

तुमसे पहले ही एहद ले चुका है(22)
(22) जब उसने तुम्हें आदम अलैहिस्सलाम की पुश्त से निकाला था. कि अल्लाह तआला तुम्हारा रब है उसके सिवा कोई मअबूद नहीं.

अगर तुम्हें यक़ीन हो {8} वही है कि अपने बन्दे पर(23)
(23) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर.

रौशन आयतें उतारता है ताकि तुम्हें अंधेरियों से(24)
(24) कुफ़्र और शिर्क की.

उजाले की तरफ़ ले जाए (25)
(25) यानी ईमान के नूर की तरफ़.

और बेशक अल्लाह तुम पर ज़रूर मेहरबान रहम वाला {9} और तुम्हें क्या है कि अल्लाह की राह में ख़र्च न करो हालांकि आसमानों और ज़मीन में सब का वारिस अल्लाह ही है(26)
(26) तुम हलाक हो जाओगे और माल उसी की मिल्क रह जाएंगे और तुम्हें ख़र्च करने का सवाब भी न मिलेगा और अगर तुम ख़ुदा की राह में ख़र्च करो तो सवाब भी पाओ.

तुम में बराबर नहीं वो जिन्हों ने मक्के की विजय से पहले ख़र्च और जिहाद किया(27)
(27) जबकि मुसलमान कम और कमज़ोर थे, उस वक़्त जिन्होंने ख़र्च किया और जिहाद किया वो मुहाजिरीन व अन्सार में से साबिक़ीने अव्वलीन हैं. उनके हक़ में नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि अगर तुममें से कोई उहद पहाड़ के बराबर सोना ख़र्च कर दे तो भी उनके एक मुद की बराबर न हो न आधे मुद की. मुद एक पैमाना है जिससे जौ नापे जाते हैं. कलबी ने कहा कि यह आयत हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो के हक़ में उतरी क्यों कि आप पहले वो शख़्स हैं जिसने ख़ुदा की राह में माल ख़र्च किया और रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की हिमायत की.

वो मर्तबे में उनसे बड़े हैं जिन्होंने विजय के बाद ख़र्च और जिहाद किया और उन सबसे(28)
(28) यानी पहले ख़र्च करने वालो से भी फ़त्ह के बाद ख़र्च करने वालों से भी.

अल्लाह जन्नत का वादा फ़रमा चुका(29)
(29) अलबत्ता दर्जो में अन्तर है. फ़त्ह से पहले खर्च करने वालों का दर्जा ऊंचा है.
और अल्लाह को तुम्हार कामों की ख़बर है{10}

57-Surah Al-Hadeed

57 सूरए हदीद -तीसरा रूकू

57|20|اعْلَمُوا أَنَّمَا الْحَيَاةُ الدُّنْيَا لَعِبٌ وَلَهْوٌ وَزِينَةٌ وَتَفَاخُرٌ بَيْنَكُمْ وَتَكَاثُرٌ فِي الْأَمْوَالِ وَالْأَوْلَادِ ۖ كَمَثَلِ غَيْثٍ أَعْجَبَ الْكُفَّارَ نَبَاتُهُ ثُمَّ يَهِيجُ فَتَرَاهُ مُصْفَرًّا ثُمَّ يَكُونُ حُطَامًا ۖ وَفِي الْآخِرَةِ عَذَابٌ شَدِيدٌ وَمَغْفِرَةٌ مِّنَ اللَّهِ وَرِضْوَانٌ ۚ وَمَا الْحَيَاةُ الدُّنْيَا إِلَّا مَتَاعُ الْغُرُورِ
57|21|سَابِقُوا إِلَىٰ مَغْفِرَةٍ مِّن رَّبِّكُمْ وَجَنَّةٍ عَرْضُهَا كَعَرْضِ السَّمَاءِ وَالْأَرْضِ أُعِدَّتْ لِلَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَرُسُلِهِ ۚ ذَٰلِكَ فَضْلُ اللَّهِ يُؤْتِيهِ مَن يَشَاءُ ۚ وَاللَّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ
57|22|مَا أَصَابَ مِن مُّصِيبَةٍ فِي الْأَرْضِ وَلَا فِي أَنفُسِكُمْ إِلَّا فِي كِتَابٍ مِّن قَبْلِ أَن نَّبْرَأَهَا ۚ إِنَّ ذَٰلِكَ عَلَى اللَّهِ يَسِيرٌ
57|23|لِّكَيْلَا تَأْسَوْا عَلَىٰ مَا فَاتَكُمْ وَلَا تَفْرَحُوا بِمَا آتَاكُمْ ۗ وَاللَّهُ لَا يُحِبُّ كُلَّ مُخْتَالٍ فَخُورٍ
57|24|الَّذِينَ يَبْخَلُونَ وَيَأْمُرُونَ النَّاسَ بِالْبُخْلِ ۗ وَمَن يَتَوَلَّ فَإِنَّ اللَّهَ هُوَ الْغَنِيُّ الْحَمِيدُ
57|25|لَقَدْ أَرْسَلْنَا رُسُلَنَا بِالْبَيِّنَاتِ وَأَنزَلْنَا مَعَهُمُ الْكِتَابَ وَالْمِيزَانَ لِيَقُومَ النَّاسُ بِالْقِسْطِ ۖ وَأَنزَلْنَا الْحَدِيدَ فِيهِ بَأْسٌ شَدِيدٌ وَمَنَافِعُ لِلنَّاسِ وَلِيَعْلَمَ اللَّهُ مَن يَنصُرُهُ وَرُسُلَهُ بِالْغَيْبِ ۚ إِنَّ اللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٌ

 

जान लो कि दुनिया की ज़िन्दगी तो नहीं मगर खेल कूद(1)
(1) जिस में वक़्त नष्ट के सिवा कुछ हासिल नहीं.
और आराइश और तुम्हारी आपस में बड़ाई मारना और माल और औलाद में एक दूसरे पर ज़ियादती चाहना(2)
(2) और उन चीज़ों में मश्ग़ूल रहना और उनसे दिल लगाना दुनिया है, लेकिन ताअतें और इबादतें और जो चीज़ें कि ताअत पर सहायक हों और वो आख़िरत के कामें में से हैं. अब इस दुनिया की ज़िन्दगानी की एक मिसाल इरशाद फ़रमाई जाती है.

उस मेंह की तरह जिसका उगाया सब्ज़ा किसानों को भाया फिर सूखा(3)
(3) उसकी सब्ज़ी जाती रही, पीला पड़ गया, किसी आसमानी आफ़त या ज़मीनी मसीबत से.

कि तू उसे ज़र्द देखे फिर रौंदन हो गया (4)
(4) कण कण, यही हाल दुनिया की ज़िन्दगी का है जिसपर दुनिया का तालिब बहुत ख़ुश होता है और उसके साथ बहुत सी उम्मीदें रखता है. वह निहायत जल्द गुज़र जाती है.

और आख़िरत में सख़्त अज़ाब है (5)
(5) उसके लिये जो दुनिया का तालिब हो और ज़िन्दगी लहव व लईब में गुज़ारे और वह आख़िरत की परवाह न करे ऐसा हाल काफ़िर का होता है.

और अल्लाह की तरफ़ से बख़्शिश और उसकी रज़ा (6)
(6) जिसने दुनिया को आख़िरत पर प्राथमिकता न दी.

और दुनिया का जीना तो नहीं मगर धोखे का माल (7){20}
(7) यह उसके लिये है जो दुनिया ही का हो जाए और उस पर भरोसा करले और आख़िरत की फ़िक्र न करे और जो शख़्स दुनिया में आख़िरत का तालिब हो और दुनियवी सामान से भी आख़िरत ही के लिये इलाक़ा रखे तो उसके लिये दुनिया की कामयाबी आख़िरत का ज़रिया है. हज़रत ज़ुन्नून मिस्त्री रज़ियल्लहो अन्हो ने फ़रमाया कि ऐ मुरीदों के गिरोह, दुनिया तलब न करो और अगर तलब करो तो उससे महब्बत न करो. तोशा यहाँ से लो, आरामगाह और है.

बढ़कर चलो अपने रब की बख़्शिश और उस जन्नत की तरफ़(8)
(8) अल्लाह की रज़ा के तालिब बनो, उसकी फ़रमाँबरदारी इख़्तियार करो और उसकी इताअत बजा लाकर जन्नत की तरफ़ बढ़ो.

जिसकी चौड़ाई जैसे आसमान और ज़मीन का फैलाव(9)
(9) यानी जन्नत की चौड़ाई ऐसी है कि सातों आसमान और सातों ज़मीनों के वरक़ बनाकर आपस में मिला दिये जाएं जितने वो हों उतनी जन्नत की चौड़ाई, फिर लम्बाई की क्या इन्तिहा.

तैयार हुई है उनके लिये जो अल्लाह और उसके सब रसूलों पर ईमान लाए, यह अल्लाह का फ़ज़्ल है जिसे चाहे दे, और अल्लाह बड़े फ़ज़्ल वाला है {21} नहीं पहुंचती कोई मुसीबत ज़मीन में (10)
(10) दुष्काल की, कम वर्षा की, पैदावर न होने की, फलों की कमी की, खेतियों के तबाह होने की.

और न तुम्हारी जानों में (11)
(11) बीमारियों की और औलाद के दुखों की.

मगर वह एक किताब में है(12)
(12) लौहे मेहफ़ूज़ में.

पहले इसके कि हम उसे पैदा करें(13)
(13) यानी ज़मीन को या जानों को या मुसीबत को.

बेशक यह (14)
(14) यानी इन बातों का कसरत के बावुजुद लौह में दर्ज फ़रमाना.

अल्लाह को आसान है {22} इसलिये कि ग़म न खाओ उस(15)
(15) दुनिया की माल मत्ता.

पर जो हाथ से जाए और ख़ुश न हो(16)
(16) यानी न इतराओ.

उसपर जो तुम को दिया(17)
(17) दुनिया की माल मत्ता, और यह समझ लो कि जो अल्लाह तआला ने मुक़द्दर फ़रमाया है ज़रूर होता है, न ग़म करने से कोई गई हुई चीज़ वापस मिल सकती है न फ़ना होने वाली चीज़ इतराने के लायक़ है तो चाहिये कि ख़ुशी की जगह शुक्र और ग़म की जगह सब्र इख़्तियार करो. ग़म से मुराद यहाँ इन्सान की वह हालत है जिसमें सब्र और अल्लाह की मर्ज़ी से राज़ी रहना और सवाब की उम्मीद बाक़ी न रहे और ख़ुशी से वह इतराना मुराद है जिसमें मस्त होकर आदमी शुक्र से ग़ाफ़िल हो जाए और वह ग़म और रंज जिसमें बन्दा अल्लाह की तरफ़ मुतवज्जह हो और उसकी रज़ा पर राज़ी हो. ऐसे ही वह ख़ुशी जिस पर अल्लाह तआला का शुक्र गुज़ार हो, मना नहीं है. हज़रत इमाम जअफ़रे सादिक़ रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया ऐ आदम के बेटे, किसी चीज़ के न होने पर ग़म क्यों करता है यह उसको तेरे पास वापस न लाएगा और किसी मौजूद चीज़ पर क्यों इतराता है मौत उसको तेरे हाथ में न छोड़ेगी.

और अल्लाह को नहीं भाता कोई इतरौना बड़ाई मारने वाला {23} वो जो आप बुख़्ल (कंजूसी) करें (18)
(18) और अल्लाह की राह और भलाई के कामों में ख़र्च न करें और माली हुक़ूक़ की अदायगी से क़ासिर (असमर्थ) रहें.

और औरों से बुख़्ल को कहें (19)
(19) इसकी तफ़सीर में मुफ़स्सिरों का एक क़ौल यह भी है कि यहूदियों के हाल का बयान है और कंजूसी से मुराद उनका सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के उन गुणों को छुपाना है जो पिछली किताबों में दर्ज थे.

और जो मुंह फेरे(20)
(20) ईमान से या माल ख़र्च करने से या ख़ुदा और रसूल की फ़रमाँबरदारी से.

तो बेशक अल्लाह ही बेनियाज़ है सब ख़ूबियों सराहा {24} बेशक हमने अपने रसूलों को दलीलों के साथ भेजा और उनके साथ किताब (21)
(21) अहकाम और क़ानून की बयान करने वाली.

और इन्साफ़ की तराज़ू उतारी(22)
(22) तराज़ू से मुराद इन्साफ़ है. मानी ये है कि हम ने इन्साफ़ का हुक्म दिया और एक क़ौल यह है कि तराज़ू से वज़न का आला ही मुराद है कि हज़रत जिब्रईल अलैहिस्सलाम हज़रत नूह अलैहिस्सलाम के पास तराज़ू लाए और फ़रमाया कि अपनी क़ौम को हुक्म दीजिये कि इससे वज़न करें.

कि लोग इन्साफ़ पर क़ायम हों(23)
(23) और कोई किसी का हक़ न मारे.

और हमने लोहा उतारा(24)
(24) कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि उतारना यहाँ पैदा करने के मानी में हैं. मुराद यह है कि हमने लोहा पैदा किया और लोगों के लिये खानों से निकाला और उन्हें उसकी सनअत का इल्म दिया और यह भी रिवायत है अल्लाह तआला ने चार बरकत वाली चीज़ें आसमान से ज़मीन की तरफ़ उतारीं, लोहा, आग, पानी और नमक.

उसमें सख़्त आंच नुक़सान (25)
(25) और निहायत क़ुव्वत कि उससे जंग के हथियार बनाए जाते हैं.

और लोगों के फ़ायदे(26)
(26) कि सनअतों और हिरफ़तों में वह बहुत काम आता है. ख़ुलासा यह कि हमने रसूलों को भेजा और उनके साथ इन चीज़ों को उतारा ताकि लोग सच्चाई और इन्साफ़ का मामला करें.

और इसलिये कि अल्लाह देखे उसको जो बे देखे उसकी(27)
(27) यानी उसके दीन की.

और उसके रसूलों की मदद करता है, बेशक अल्लाह क़ुव्वत वाल ग़ालिब है(28) {25}
(28) उसको किसी की मदद दरकार नहीं. दीन की मदद करने का जो हुक्म दिया गया है उन्हीं के नफ़े के लिये है.

57-Surah Al-Hadeed

57 सूरए हदीद -चौथा रूकू

57|26|وَلَقَدْ أَرْسَلْنَا نُوحًا وَإِبْرَاهِيمَ وَجَعَلْنَا فِي ذُرِّيَّتِهِمَا النُّبُوَّةَ وَالْكِتَابَ ۖ فَمِنْهُم مُّهْتَدٍ ۖ وَكَثِيرٌ مِّنْهُمْ فَاسِقُونَ
57|27|ثُمَّ قَفَّيْنَا عَلَىٰ آثَارِهِم بِرُسُلِنَا وَقَفَّيْنَا بِعِيسَى ابْنِ مَرْيَمَ وَآتَيْنَاهُ الْإِنجِيلَ وَجَعَلْنَا فِي قُلُوبِ الَّذِينَ اتَّبَعُوهُ رَأْفَةً وَرَحْمَةً وَرَهْبَانِيَّةً ابْتَدَعُوهَا مَا كَتَبْنَاهَا عَلَيْهِمْ إِلَّا ابْتِغَاءَ رِضْوَانِ اللَّهِ فَمَا رَعَوْهَا حَقَّ رِعَايَتِهَا ۖ فَآتَيْنَا الَّذِينَ آمَنُوا مِنْهُمْ أَجْرَهُمْ ۖ وَكَثِيرٌ مِّنْهُمْ فَاسِقُونَ
57|28|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَآمِنُوا بِرَسُولِهِ يُؤْتِكُمْ كِفْلَيْنِ مِن رَّحْمَتِهِ وَيَجْعَل لَّكُمْ نُورًا تَمْشُونَ بِهِ وَيَغْفِرْ لَكُمْ ۚ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
57|29|لِّئَلَّا يَعْلَمَ أَهْلُ الْكِتَابِ أَلَّا يَقْدِرُونَ عَلَىٰ شَيْءٍ مِّن فَضْلِ اللَّهِ ۙ وَأَنَّ الْفَضْلَ بِيَدِ اللَّهِ يُؤْتِيهِ مَن يَشَاءُ ۚ وَاللَّهُ ذُو الْفَضْلِ الْعَظِيمِ

और बेशक हमने नूह और इब्राहीम को भेजा और उनकी औलाद में नबुव्वत और किताब रखी(1)
(1) यानी तौरात व इंजील और ज़ुबूर और क़ुरआन.

तो उनमें(2)
(2) यानी उनकी सन्तान में जिनमें नबी और किताबें भेजीं.

कोई राह पर आया, और उनमें बहुतेरे फ़ासिक़ हैं {26} फिर हमने उनके पीछे(3)
(3) यानी हज़रत नूह और इब्राहीम अलैहिस्सलाम के बाद हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के ज़माने तक एक के बाद दूसरा.

उसी राह पर अपने रसूल भेजे और उनके पीछे मरयम के बेटे ईसा को भेजा और उसे इन्जील अता फ़रमाई और उसके अनुयाइयों के दिल में नर्मी और रहमत रखी (4)
(4) कि वो आपस में एक दूसरे के साथ महब्बत और शफ़क़त रखते.

और राहिब बनना (5)
(5) पहाड़ों और ग़ारों और अकेले मकानों में एकान्त में बैठना और दुनिया वालों से रिश्ते तोड़ लेना और इबादतों में अपने ऊपर अतिरिक्त मेहनतें बढ़ा लेना, सन्यासी हो जाना, निकाह न करना, खुरदुरे कपड़े पहन्ना, साधारण ग़िज़ा निहायत कम मात्रा में खाना.

तो यह बात उन्होंने दीन में अपनी तरफ़ से निकाली हमने उनपर मुक़र्रर न की थी हाँ यह बिदअत उन्होंने अल्लाह की रज़ा चाहने को पैदा की फिर उसे न निबाहा, जैसा उसके निबाहने का हक़ था(6)
(6) बल्कि उसको ज़ाया कर दिया और त्रिमूर्ति और इल्हाद में गिरफ़तार हुए और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के दीन से मुंह फेर कर अपने बादशाहों के दीन में दाख़िल हुए और कुछ लोग उनमें से मसीही दीन पर क़ायम और साबित भी रहे और हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मुबारक ज़माने को पाया तो हुज़ूर पर ईमान भी लाए. इस आयत से मालूम हुआ कि बिदअत यानी दीन में किसी नई बात का निकालना, अगर वह बात नेक हो और उससे अल्लाह की रज़ा मक़सूद हो, तो बेहतर है, उस पर सवाब मिलता है और उसको जारी रखना चाहिये. ऐसी बिदअत को बिदअते हसना कहते हैं अलबत्ता दीन में बुरी बात निकालना बिदअते सैइय्या कहलाता है और वह ममनूअ और नाजायज़ है. और बिदअते सैइय्या हदीस शरीफ़ में वह बताई गई है जो सुन्नत के खिलाफ़ हो उसके निकालने से कोई सुन्नत उठ जाए. इससे हज़ारों मसअलों का फ़ैसला हो जाता है. जिनमें आजकल लोग इख़्तिलाफ़ करते हैं और अपनी हवाए नफ़्सानी से ऐसे भले कामों को बिदअत बताकर मना करते हैं जिनसे दीन की तक़वियत और ताईद होती है और मुसलमानों को आख़िरत के फ़ायदे पहुंचते हैं और वो ताअतों और इबादतों में ज़ौक़ और शौक़ से मश्ग़ूल रहते हैं. ऐसे कामों को बिदअत बताना क़ुरआन मजीद की इस आयत के ख़िलाफ़ है.

तो उनके ईमान वालों को(7)
(7) जो दीन पर क़ायम रहे थे.

हमने उनका सवाब अता किया, और उनमें से बहुतेरे(8)
(8) जिन्होंने सन्यास को छोड़ दिया और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के दीन से कट गए.

फ़ासिक़ हैं {27} ऐ ईमान वालो(9)
(9) हज़रत मूसा और ईसा अलैहिस्सलाम पर. यह ख़िताब किताब वालों को है उनसे फ़रमाया जाता है.

अल्लाह से डरो और उसके रसूल (10)
(10) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम

पर ईमान लाओ वह अपनी रहमत के दो हिस्से तुम्हें अता फ़रमाएगा(11)
(11) यानी तुम्हें दुगना अज्र देगा क्योंकि तुम पहली किताब और पहले नबी पर ईमान लाए और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और क़ुरआने पाक पर भी.

और तुम्हारे लिये नूर कर देगा(12)
(12) सिरात पर.

जिसमें चलो और तुम्हें बख़्श देगा, और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है {28} यह इसलिये कि किताब वाले काफ़िर जान जाएं कि अल्लाह के फ़ज़्ल पर उनका कुछ क़ाबू नहीं(13)और यह कि फ़ज़्ल अल्लाह के हाथ है देता है जिसे चाहे, और अल्लाह बड़े फ़ज़्ल वाला है{29}
(13)वो उसमें से कुछ नहीं पा सकते न दुगना अज्र, व नूर, मग़फ़िरत, क्योंकि वो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर ईमान न लाए तो उनका पहले नबियों पर ईमान लाना भी लाभदायक न होगा. जब ऊपर की आयत उतरी और उसमें किताब वालों के मूमिनों को सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ऊपर ईमान लाने पर दुगने अज्र का वादा दिया गया तो एहले किताब के काफ़िरों ने कहा कि अगर हम हुज़ूर पर ईमान लाएं तो दुगना अज्र मिले और न लाएं तो एक अज्र तब भी रहेगा. इस पर यह आयत उतरी और उनके इस ख़याल को ग़लत क़रार दिया गया.

पारा सत्ताईस समाप्त