60-Surah Al-Mumtahinah

60 सूरए मुम्तहिनह -दूसरा रूकू

60|7|۞ عَسَى اللَّهُ أَن يَجْعَلَ بَيْنَكُمْ وَبَيْنَ الَّذِينَ عَادَيْتُم مِّنْهُم مَّوَدَّةً ۚ وَاللَّهُ قَدِيرٌ ۚ وَاللَّهُ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
60|8|لَّا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ لَمْ يُقَاتِلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَلَمْ يُخْرِجُوكُم مِّن دِيَارِكُمْ أَن تَبَرُّوهُمْ وَتُقْسِطُوا إِلَيْهِمْ ۚ إِنَّ اللَّهَ يُحِبُّ الْمُقْسِطِينَ
60|9|إِنَّمَا يَنْهَاكُمُ اللَّهُ عَنِ الَّذِينَ قَاتَلُوكُمْ فِي الدِّينِ وَأَخْرَجُوكُم مِّن دِيَارِكُمْ وَظَاهَرُوا عَلَىٰ إِخْرَاجِكُمْ أَن تَوَلَّوْهُمْ ۚ وَمَن يَتَوَلَّهُمْ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الظَّالِمُونَ
60|10|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا إِذَا جَاءَكُمُ الْمُؤْمِنَاتُ مُهَاجِرَاتٍ فَامْتَحِنُوهُنَّ ۖ اللَّهُ أَعْلَمُ بِإِيمَانِهِنَّ ۖ فَإِنْ عَلِمْتُمُوهُنَّ مُؤْمِنَاتٍ فَلَا تَرْجِعُوهُنَّ إِلَى الْكُفَّارِ ۖ لَا هُنَّ حِلٌّ لَّهُمْ وَلَا هُمْ يَحِلُّونَ لَهُنَّ ۖ وَآتُوهُم مَّا أَنفَقُوا ۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ أَن تَنكِحُوهُنَّ إِذَا آتَيْتُمُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ ۚ وَلَا تُمْسِكُوا بِعِصَمِ الْكَوَافِرِ وَاسْأَلُوا مَا أَنفَقْتُمْ وَلْيَسْأَلُوا مَا أَنفَقُوا ۚ ذَٰلِكُمْ حُكْمُ اللَّهِ ۖ يَحْكُمُ بَيْنَكُمْ ۚ وَاللَّهُ عَلِيمٌ حَكِيمٌ
60|11|وَإِن فَاتَكُمْ شَيْءٌ مِّنْ أَزْوَاجِكُمْ إِلَى الْكُفَّارِ فَعَاقَبْتُمْ فَآتُوا الَّذِينَ ذَهَبَتْ أَزْوَاجُهُم مِّثْلَ مَا أَنفَقُوا ۚ وَاتَّقُوا اللَّهَ الَّذِي أَنتُم بِهِ مُؤْمِنُونَ
60|12|يَا أَيُّهَا النَّبِيُّ إِذَا جَاءَكَ الْمُؤْمِنَاتُ يُبَايِعْنَكَ عَلَىٰ أَن لَّا يُشْرِكْنَ بِاللَّهِ شَيْئًا وَلَا يَسْرِقْنَ وَلَا يَزْنِينَ وَلَا يَقْتُلْنَ أَوْلَادَهُنَّ وَلَا يَأْتِينَ بِبُهْتَانٍ يَفْتَرِينَهُ بَيْنَ أَيْدِيهِنَّ وَأَرْجُلِهِنَّ وَلَا يَعْصِينَكَ فِي مَعْرُوفٍ ۙ فَبَايِعْهُنَّ وَاسْتَغْفِرْ لَهُنَّ اللَّهَ ۖ إِنَّ اللَّهَ غَفُورٌ رَّحِيمٌ
60|13|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا لَا تَتَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِمْ قَدْ يَئِسُوا مِنَ الْآخِرَةِ كَمَا يَئِسَ الْكُفَّارُ مِنْ أَصْحَابِ الْقُبُورِ

क़रीब है कि अल्लाह तुम में और उनमें जो उनमें से(1)
(1) यानी मक्के के काफ़िरों में से.

तुम्हारे दु्श्मन हैं दोस्ती कर दे(2)
(2) इस तरह कि उन्हें ईमान की तौफ़ीक़ दे. चुनांन्चे अल्लाह तआला ने ऐसा किया और फ़त्हे मक्का के बाद उनमें से बहुत से लोग ईमान ले आए और मूमिनों के दोस्त और भाई बन गए और आपसी प्यार बढ़ा. जब ऊपर की आयतें उतरीं तो ईमान वालों ने अपने रिश्तेदारों की दुश्मनी में सख़्ती की, उनसे बेज़ार हो गए और इस मामले में बड़े सख़्त हो गए तो अल्लाह तआला ने यह आयत उतार कर उन्हें उम्मीद दिलाई कि उन काफ़िरों का हाल बदलने वाला है. और यह आयत उतरी.

और अल्लाह क़ादिर (सक्षम) है(3)
(3) दिल बदलने और हाल तब्दीन करने पर.

और बख़्शने वाला मेहरबान है {7} अल्लाह तुम्हें उनसे (4)
(4) यानी उन काफ़िरों से. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि यह आयत ख़ूज़ाअह के हक़ में उतरी जिन्होंने रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से इस शर्त पर सुलह की थी कि न आपसे लड़ेंगे न आपके विरोधियों का साथ देंगे. अल्लाह तआला ने उन लोगों के साथ सुलूक करने की इजाज़त दे दी. हज़रत अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर ने फ़रमाया कि यह आयत उनकी वालिदा अस्मा बिन्ते अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो के हक़ में नाज़िल हुई. उनकी वालिदा मदीनए तैय्यिबह उनके लिये तोहफ़े लेकर आई थीं और थीं मुश्रिका. तो हज़रत अस्मा ने उनके तोहफ़े क़ुबूल न किये और उन्हें अपने घर में आने की आज्ञा न दी और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से दरियाफ़्त किया कि क्या हुक्म है. इसपर यह आयत उतरी और रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने इजाज़त दी कि उन्हें घर में बुलाएं, उनके तोहफ़े क़ुबूल करें उनके साथ अच्छा सुलूक करें.

मना नहीं करता जो तुम से दीन में न लड़े और तुम्हें तुम्हारे घरो से न निकाला कि उनके साथ एहसान करो और उनसे इन्साफ़ का बर्ताव बरतो, बेशक इन्साफ़ वाले अल्लाह को मेहबूब हैं{8} अल्लाह तुम्हें उन्हीं से मना करता है जो तुम से दीन में लड़े या तुम्हें तुम्हारे घरो से निकाला या तुम्हारे निकालने पर मदद की कि उनसे दोस्ती करो (5)
(5) यानी ऐसे काफ़िरों से दोस्ती मना है.

और जो उनसे दोस्ती करे तो वही सितमगार हैं {9}ऐ ईमान वालो! जब तुम्हारे पास मुसलमान औरतें कुफ़्रिस्तान से अपने गर छोड़ कर आएं तो उनका इम्तिहान करो(6)
(6) कि उनकी हिजरत ख़ालिस दीन के लिये है ऐसा तो नहीं है कि उन्होंने शौहरों की दुशमनी में घर छोड़ा हो. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि उन औरतों को क़सम दी जाए कि वो न शौहरों की दुश्मनी में निकली हैं और न किसी दुनियावी कारण से. उन्होंने केवल अपने दीन और ईमान के लिये हिजरत की है.

अल्लाह उनके ईमान का हाल बेहतर जानता है फिर अगर तुम्हें ईमान वालियाँ मालूम हों तो उन्हें काफ़िरों को वापस न दो, न ये(7)
(7) मुसलमान औरतें.

उन्हें हलाल(8)
(8) यानी काफ़िरों को.

न वो इन्हें हलाल(9)
(9) यानी न काफ़िर मर्द मुसलमान औरतों को हलाल. औरत मुसलमान होकर काफ़िर की बीबी होने से बाहर हो गई.

और उनके काफ़िर शौहरों को दे दो जो उनका ख़र्च हुआ(10)
(10) यानी जो मेहर उन्होंने उन औरतों को दिये थे वो उन्हें लौटा दो. यह हुक्म ज़िम्मा के लिये हैं जिनके हक़ में यह आयत उतरी लेकिन हर्बी औरतों के मेहर वापस करना न वाजिब है न सुन्नत. और ये मेहर देना उस सूरत में है जबकि औरत का काफ़िर शौहर उसको तलब करे और अगर तलब न करे तो उसको कुछ न दिया जाएगा. इसी तरह अगर काफ़िर ने उस मुहाजिरा को मेहर नहीं दिया था तो भी वह कुछ न पाएगा. यह आयत सुलह हुदैबियह के बाद उतरी. सुलह में यह शर्त थी कि मक्के वालों में से जो शख़्स ईमान लाकर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हो उसको मक्के वाले वापस ले सकते हैं. इस आयत में यह बयान फ़रमा दिया गया कि यह शर्त सिर्फ़ मर्दों के लिये है औरतों की तसरीह एहदनामे में नहीं न औरतें इस क़रारदाद में दाख़िल हो सकती हैं क्योंकि मुसलमान औरतें काफ़िर के लिये हलाल नहीं. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि यह आयत पहले आदेश को स्थगित करने वाली है यह इस सूरत में है कि औरतें सुलह के एहद में दाख़िल हों मगर औरतों को इस एहद में दाख़िल होना सही नहीं क्योंकि हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो से एहदनामे के ये अल्फ़ाज़ आए हैं कि हम में से जो मर्द आपके पास पहुंचे चाहे वह आप के दीन पर ही हो आप उसको वापस कर देंगे.

और तुम पर कुछ गुनाह नहीं कि उनसे निकाह कर लो(11)
(11) यानी हिजरत करने वाली औरतों से अगरचे दारूल हर्ब में उनके शौहर हों. क्योंकि इस्लाम लाने से वो उन शौहरों पर हराम हो गई और उनकी ज़ौजियत में न रहीं.

जब उनके मेहर उन्हें दो(12)
(12) मेहर देने से मुराद उसको ज़िम्मे लाज़िम कर लेना है अगरचे बिलफेअल न दिया जाए. इससे यह साबित हुआ कि इन औरतों से निकाह करने पर नया मेहर वाजिब होगा. उनके शौहरों को जो अदा कर दिया गया वह उसमें जोड़ा या गिनती नहीं किया जाएगा.

और काफ़िरनियों के निकाह पर जमे न रहो(13)
(13) यानी जो औरतें दारूल हर्ब में रह गईं या इस्लाम से फिर कर दारूल हर्ब में चली गईं उनसे ज़ौज़ियत का सम्बन्ध न रखो. चुनांन्चे यह आयत उतरने के बाद असहाबे रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन काफ़िर औरतों को तलाक़ दे दी जो मक्कए मुकर्रमा में थीं. अगर मुसलमान की औरत इस्लाम से फिर जाए तो उसके निकाह की क़ैद से बाहर न होगा.

और मांग लो जो तुम्हारा ख़र्च हुआ(14)
(14) यानी उन औरतों को तुमने जो मेहर दिये थे वो उन काफ़िरों से वुसूल करलो जिन्होंने उनसे निकाह किया.

और काफ़िर मांग लें जो उन्होंने ख़र्च किया(15)
(15) अपनी औरतों पर जो हिजरत करके दारूल इस्लाम में चली आईं उनके मुसलमान शौहरों से जिन्होंने उनसे निकाह किया.

यह अल्लाह का हुक्म है, वह तुम में फैसला फ़रमाता है, और अल्लाह इल्म व हिकमत वाला है {10} और अगर मुसलमानों के हाथ से कुछ औरतें काफ़िरों की तरफ़ निकल जाएं(16)
(16) इस आयत के उतरने के बाद मुसलमानों ने तो मुहाजिरह औरतों के मेहर उनके काफ़िर शौहरों को अदा कर दिये और काफ़िरों ने इस्लाम से फिर जाने वाली औरतों के मेहर मुसलमानों को अदा करने से इन्कार किया. इसपर यह आयत उतरी.

फिर तुम काफ़िरों को सज़ा दो(17)
(17) जिहाद में और उनसे ग़नीमत पाओ.

तो जिनकी औरतें जाती रही थीं (18)
(18) यानी इस्लाम से फिर कर दारूल हर्ब में चली गईं थीं.

ग़नीमत में से उतना दे दो जो उनका ख़र्च हुआ था (19)
(19) उन औरतों के मेहर देने में, हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया कि मूमिन मुहाजिरीन की औरतों में से छ औरतें ऐसी थी जिन्हों ने दारूल हर्ब को इख़्तियार किया और मुश्रिकों के साथ जुड़ गईं और इस्लाम से फिर गईं. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनके शौहरों को माले ग़नीमत से उनके मेहर अता फ़रमाए. इन आयतों में मुहाजिर औरतों के इम्तिहान और काफ़िरों ने जो अपनी बीबीयों पर ख़र्च किया हो वह हिजरत के बाद उन्हें देना और मुसलमानों ने जो अपनी बीबीयों पर ख़र्च किया हो वह उनके मुर्तद होकर काफ़िरों से मिल जाने के बाद उनसे मांगना और जिनकी बीबियाँ मुर्तद होकर चली गईं हों उन्होंने जो उनपर ख़र्च किया था वह उन्हें माले ग़नीमत में से देना, ये तमाम अहकाम स्थगित हो गए आयतें सैफ़ या आयतें ग़नीमत या सुन्नत से, क्योंकि ये अहकाम जभी तक बाकि रहे जब तक ये एहद रहा और जब यह एहद उठ गया तो अहकाम भी न रहे.

और अल्लाह से डरो जिसपर तुम्हें ईमान है{11} ऐ नबी जब तुम्हारे हुज़ूर मुसलमान औरतें हाज़िर हों इस पर बैअत करने को कि अल्लाह का कुछ शरीक न ठहराएंगी न चोरी करेगी और न बदकारी और न अपनी औलाद को क़त्ल करेगी(20)
(20) जैसा कि जिहालत के ज़माने में तरीक़ा था कि लड़कियों को शर्मिन्दगी के ख़याल और नादारी के डर से ज़िन्दा गाड़ देते थे. उससे और हर नाहक़ क़त्ल से बाज़ रहना इस एहद में शामिल है.

और न वह बोहतान लाएंगी जिसे अपने हाथों और पाँवों के बीच यानी मौज़ए बिलादत (गुम्तांग) में उठाएं (21)
(21) यानी पराया बच्चा लेकर शौहर को धोखा दें और उसको अपने पेट से जना हुआ बताएं जैसा कि इस्लाम के पहले के काल में तरीक़ा था.
और किसी नेक बात में तुम्हारी ना फ़रमानी न करेगी(22)
(22) नेक बात अल्लाह और उसके रसूल की फ़रमाँबरदारी है.

तो उनसे बैअत लो और अल्लाह से उनकी मग़फ़िरत चाहो (23)
(23) रिवायत है कि जब सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम फ़त्ह मक्का के दिन मर्दों की बैअत लेकर फ़ारिग़ हुए तो सफ़ा पहाड़ी पर औरतों से बैअत लेना शुरू की और हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो नीचे खड़े हुए हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का कलामे मुबारक औरतों को सुनाते जाते थे. हिन्द बिन्ते उतबह अबू सुफ़ियान की बीवी डरी हुई बुर्क़ा पहन कर इस तरह हाज़िर हुई कि पहचानी न जाए. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि मैं तुम से इस बात पर बैअत लेता हूँ कि तुम अल्लाह तआला के साथ किसी चीज़ को शरीक न करो. हिन्द ने कहा कि आप हम से वह एहद लेते हैं जो हमने आपको मर्दों से लेते नहीं देखा और उस रोज़ मर्दों में सिर्फ़ इस्लाम और जिहाद पर बैअत की गई थी. फिर हुज़ूर ने फ़रमाया और चोरी न करेंगी. तो हिन्द ने अर्ज़ किया कि अबू सुफ़ियान कंजूस आदमी है और मैंने उनका माल ज़रूर लिया है, मैं नहीं समझती मुझे हलाल हुआ या नहीं. अबू सुफ़ियान हाज़िर थे उन्होंने कहा जो तूने पहले लिया और जो आगे ले सब हलाल. इस पर नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मुस्कुराए और फ़रमाया तू हिन्द बिन्ते उतबह है? अर्ज़ किया जी हाँ, मुझ से जो कुछ क़ुसूर हुए हैं माफ़ फ़रमाइये. फिर हुज़ूर ने फ़रमाया, और न बदकारी करेंगी. तो हिन्द ने कहा क्या कोई आज़ाद औरत बदकारी करती है. फिर फ़रमाया, न अपनी औलाद को क़त्ल करें, हिन्द ने कहा, हमने छोटे छोटे पाले जब बड़े हो गए तुमने उन्हें क़त्ल कर दिया. तुम जानो और वो जानें. उसका लड़का हुन्जुला बिन अबी सुफ़ियान बद्र में क़त्ल कर दिया गया था. हिन्द की ये बातचीत सुनकर हज़रत उमर रदियल्लाहो अनहो को बहुत हंसी आई फिर हुज़ूर ने फ़रमाया कि अपने हाथ पाँवों के बीच कोई लांछन नहीं घंड़ेगी. हिन्द ने कहा ख़ुदा की क़स्म बोहतान बहुत बुरी चीज़ है और हुज़ूर हमको नेक बातों और अच्छी आदतों का हुक्म देते हैं. फिर हुज़ूर ने फ़रमाया कि किसी नेक बात में रसूल (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) की नाफ़रमानी नहीं करेंगी. इसपर हिन्द ने कहा कि इस मजलिस में हम इसलिये हाज़िर ही नहीं हुए कि अपने दिल में आपकी नाफ़रमानी का ख़याल आने दें. औरतों ने इन सारी बातों का इक़रार किया और चार सौ सत्तावन औरतों ने बैअत की. इस बैअत में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मुसाफ़हा न फ़रमाया और औरतों को दस्ते मुबारक छूने न दिया. बैअत की कै़फ़ियत में भी यह बयान किया गया है कि एक प्याला पानी में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपना दस्ते मुबारक डाला फिर उसी में औरतों ने अपने हाथ डाले और यह भी कहा गया बैअत कपड़े के वास्ते से ली गई और बईद नहीं कि दोनों सूरतें अमल में आई हो. बैअत के वक़्त कैंची का इस्तेमाल मशायख़ का तरीक़ा हे. यह भी कहा गया है कि यह हज़रत अली मुर्तजा़ रदियल्लाहो अन्हो की सुन्नत है. ख़िलाफ़त के साथ टोपी देना मशायख़ का मामूल है और कहा गया है कि नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मन्क़ूल है औरतों की बैअत में अजनबी औरत का हाथ छूना हराम है या बैअत ज़बान से हो या कपड़े वग़ैरह की मदद से.

बेशक अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है, {12} ऐ ईमान वालो ! उन लोगों से दोस्ती न करो जिन पर अल्लाह का ग़ज़ब है (24)
(24) इन लोगों से मुराद यहूदी है.

वो आख़िरत से आस तोड़ बैठे हैं (25)
(25)क्योंकि उन्हें पिछली किताबों से मालूम हो चुका था और वो यक़ीन से जानते थे कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह तआला के रसूल है और यहूदियों ने इसे झुटलाया है इसलिये उन्हें अपनी मग़फ़िरत की उम्मीद नहीं.

जैसे काफ़िर आस तोड़ बैठे क़ब्रवालों से(26){13}
(26)फिर दुनिया में वापस आने की, या ये मानी हैं कि यहूदी आख़िरत के सवाब से ऐसे निराश हुए जैसे कि मरे हुए काफ़िर अपनी क़ब्रों में अपने हाल को जानकर आख़िरत के सवाब से बिल्कुल मायूस हैं.

59-Surah Al-Hashra

59 सूरए हश्र
सूरए हश्र मदीने में उतरी, इसमें 24 आयतें, तीन रूकू हैं.
पहला रूकू

بِسْمِ اللَّهِ الرَّحْمَٰنِ الرَّحِيمِ
59|1|سَبَّحَ لِلَّهِ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَمَا فِي الْأَرْضِ ۖ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ
59|2|هُوَ الَّذِي أَخْرَجَ الَّذِينَ كَفَرُوا مِنْ أَهْلِ الْكِتَابِ مِن دِيَارِهِمْ لِأَوَّلِ الْحَشْرِ ۚ مَا ظَنَنتُمْ أَن يَخْرُجُوا ۖ وَظَنُّوا أَنَّهُم مَّانِعَتُهُمْ حُصُونُهُم مِّنَ اللَّهِ فَأَتَاهُمُ اللَّهُ مِنْ حَيْثُ لَمْ يَحْتَسِبُوا ۖ وَقَذَفَ فِي قُلُوبِهِمُ الرُّعْبَ ۚ يُخْرِبُونَ بُيُوتَهُم بِأَيْدِيهِمْ وَأَيْدِي الْمُؤْمِنِينَ فَاعْتَبِرُوا يَا أُولِي الْأَبْصَارِ
59|3|وَلَوْلَا أَن كَتَبَ اللَّهُ عَلَيْهِمُ الْجَلَاءَ لَعَذَّبَهُمْ فِي الدُّنْيَا ۖ وَلَهُمْ فِي الْآخِرَةِ عَذَابُ النَّارِ
59|4|ذَٰلِكَ بِأَنَّهُمْ شَاقُّوا اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۖ وَمَن يُشَاقِّ اللَّهَ فَإِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ
59|5|مَا قَطَعْتُم مِّن لِّينَةٍ أَوْ تَرَكْتُمُوهَا قَائِمَةً عَلَىٰ أُصُولِهَا فَبِإِذْنِ اللَّهِ وَلِيُخْزِيَ الْفَاسِقِينَ
59|6|وَمَا أَفَاءَ اللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِ مِنْهُمْ فَمَا أَوْجَفْتُمْ عَلَيْهِ مِنْ خَيْلٍ وَلَا رِكَابٍ وَلَٰكِنَّ اللَّهَ يُسَلِّطُ رُسُلَهُ عَلَىٰ مَن يَشَاءُ ۚ وَاللَّهُ عَلَىٰ كُلِّ شَيْءٍ قَدِيرٌ
59|7|مَّا أَفَاءَ اللَّهُ عَلَىٰ رَسُولِهِ مِنْ أَهْلِ الْقُرَىٰ فَلِلَّهِ وَلِلرَّسُولِ وَلِذِي الْقُرْبَىٰ وَالْيَتَامَىٰ وَالْمَسَاكِينِ وَابْنِ السَّبِيلِ كَيْ لَا يَكُونَ دُولَةً بَيْنَ الْأَغْنِيَاءِ مِنكُمْ ۚ وَمَا آتَاكُمُ الرَّسُولُ فَخُذُوهُ وَمَا نَهَاكُمْ عَنْهُ فَانتَهُوا ۚ وَاتَّقُوا اللَّهَ ۖ إِنَّ اللَّهَ شَدِيدُ الْعِقَابِ
59|8|لِلْفُقَرَاءِ الْمُهَاجِرِينَ الَّذِينَ أُخْرِجُوا مِن دِيَارِهِمْ وَأَمْوَالِهِمْ يَبْتَغُونَ فَضْلًا مِّنَ اللَّهِ وَرِضْوَانًا وَيَنصُرُونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ ۚ أُولَٰئِكَ هُمُ الصَّادِقُونَ
59|9|وَالَّذِينَ تَبَوَّءُوا الدَّارَ وَالْإِيمَانَ مِن قَبْلِهِمْ يُحِبُّونَ مَنْ هَاجَرَ إِلَيْهِمْ وَلَا يَجِدُونَ فِي صُدُورِهِمْ حَاجَةً مِّمَّا أُوتُوا وَيُؤْثِرُونَ عَلَىٰ أَنفُسِهِمْ وَلَوْ كَانَ بِهِمْ خَصَاصَةٌ ۚ وَمَن يُوقَ شُحَّ نَفْسِهِ فَأُولَٰئِكَ هُمُ الْمُفْلِحُونَ
59|10|وَالَّذِينَ جَاءُوا مِن بَعْدِهِمْ يَقُولُونَ رَبَّنَا اغْفِرْ لَنَا وَلِإِخْوَانِنَا الَّذِينَ سَبَقُونَا بِالْإِيمَانِ وَلَا تَجْعَلْ فِي قُلُوبِنَا غِلًّا لِّلَّذِينَ آمَنُوا رَبَّنَا إِنَّكَ رَءُوفٌ رَّحِيمٌ

अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला(1)
(1) सूरए हश्र मदीने में उतरी. इसमें तीन रूकू, 34 आयतें. 445 कलिमे एक हज़ार नौ सौ तेरह अक्षर हैं.

अल्लाह की पाकी बोलता है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में, और वही इज़्ज़त व हिकमत वाला हैं(2){1}
(2) यह सूरत बनी नुज़ैर के हक़ में नाज़िल हुई. ये लोग यहूदी थे. जब नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मदीनए तैय्यिबह में रौनक़ अफ़रोज़ हुए तो उन्होंने हुज़ूर से इस शर्त पर सुलह की कि न आपके साथ होकर किसी से लड़ें, न आपसे जंग करें. जब जंगे बद्र में इस्लाम की जीत हुई तो बनी नुज़ैर ने कहा कि यह वही नबी हैं जिनकी सिफ़त तौरात में है. फिर जब उहद में मुसलमानों को आरिज़ी हार की सूरत पेश आई तो यो शक में पड़े और उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और हुज़ूर के नियाज़मन्दों के साथ दुश्मनी ज़ाहिर की. और जो मुआहिदा किया था वह तोड़ दिया और उनका एक सरकार कअब बिन अशरफ़ यहूदी चालीस सवारों के साथ मक्कए मुकर्रमा पहुंचा और काबा मुअज़्ज़मा के पर्दें थाम कर क़ुरैश के सरदारों से रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ख़िलाफ़ समझौता किया. अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को इस की ख़बर दे दी थी. और बनी नुज़ैर से एक ख़यानत और भी वाक़े हो चुकी थी कि उन्होंने क़िले के ऊपर से सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम पर बुरे इरादे से एक पत्थर गिराया था. अल्लाह तआला ने हुज़ूर को ख़बरदार कर दिया और अल्लाह के फ़ज्ल से हुज़ूर मेहफ़ूज़ रहे. जब बनी नुज़ैर के यहूदियों ने ख़यानत की और एहद तोड़ा और क़ुरैश के काफ़िरों से हुज़ूर के ख़िलाफ एहद जोड़ा तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मुहम्मद बिन मुस्लिमा अन्सारी को हुक्म दिया और उन्होंने कअब बिन अशरफ़ को क़त्ल कर दिया. फिर हुज़ूर लश्कर के साथ बनी नुज़ैर की तरफ़ रवाना हुए और उनका मुहासिरा कर लिया. यह घिराव 21 दिन चला. उस बीच मुनाफ़िक़ों ने यहूदियों से हमदर्दी और मदद के बहुत से मुआहिदे किये लेकिन अल्लाह तआला ने उन सबको नाकाम किया. यहूद के दिलों में रोअब डाला. आख़िरकार उन्हें हुज़ूर के हुक्म से जिलावतन होना पड़ा. और वो शाम और अरीहा और ख़ैबर की तरफ़ चले गए.

वही है जिसने उन काफ़िर किताबियों को(3)
(3) यानी बनी नुज़ैर के यहूदियों को.

उनके घरों से निकाला(4)
(4) जो मदीनए तैय्यिबह में थे.

उनके पहले हश्र के लिये(5)
(5) यह जिलावतनी उनका पहला हश्र और दूसरा हश्र उनका यह है कि अमीरूल मूमिनीन हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने उन्हें अपनी ख़िलाफ़त के ज़माने में ख़ैबर से शाम की तरफ़ निकाला था. आख़िरी हश्र क़यामत के दिन का हश्र है कि आग सब लोगों को सरज़मीने शाम की तरफ़ ले जाएगी और वहीं उनपर क़यामत क़ायम होगी. उसके बाद मुसलमानों से ख़िताब किया जाता है.

तुम्हें गुमान न था कि वो निकलेंगे(6)
(6) मदीने से, क्योंकि क़ुव्वत और लश्कर वाले थे. मज़बूत किले रखते थे. उनकी संख्या भी काफ़ी थी, जागीरें थीं, दौलत थी.

और वो समझते थे कि उनके क़िले उन्हें अल्लाह से बचा लेंगे, तो अल्लाह का हुक्म उनके पास आया जहाँ से उनका गुमान भी न था(7)
(7) यानी ख़तरा भी न था कि मुसलमान उन पर हमला कर सकते है.

और उस ने उनके दिलों में रोब डाला(8)
(8) उनके सरदार कअब बिन अशरफ़ के क़त्ल से.

कि अपने घर वीरान करते हैं अपने हाथों (9)
(9) और उनको ढाते हैं ताकि जो लकड़ी वग़ैरह उन्हें अच्छी मालूम हो वो जिलावतन होते वक्त अपने साथ लेते जाएं.

और मुसलमानों के हाथों(10)
(10) कि उनके मकानों के जो हिस्से बाक़ी रह जाते थे उन्हें मुसलमान गिरा देते थे ताकि जंग के लिये साफ़ हो जाए.

तो इबरत लो ऐ निगाह वालो {2} और अगर न होता कि अल्लाह ने उनपर घर से उजड़ना लिख दिया था तो दुनिया ही में उनपर अज़ाब फ़रमाता(11)
(11) और उन्हें क़त्ल और क़ैद में जकड़ता जैसा कि बनी क़ुरैज़ा के यहूदियों के साथ किया.

और उनके लिये(12)
(12) हर हाल में, चाहे जिलावतन किये जाएं या क़त्ल किये जाएं.

आख़िरत में आग का अज़ाब है {3} यह इसलिये कि वो अल्लाह और उसके रसूल से फटे (जुदा)रहे (13)
(13) यानी विरोध पर डटे रहे.

और जो अल्लाह और उसके रसूल से फटा रहे तो बेशक बेशक अल्लाह का अज़ाब सख़्त है {4} जो दरख़्त तुमने काटे या उनकी जड़ों पर क़ायम छोड़ दिये यह सब अल्लाह की इजाज़त से था (14)
(14) जब बनी नुज़ैर ने अपने क़िलों में पनाह ले ली तो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उनके पेड़ काट डालने और उन्हें जला देने का हुक्म दिया. इस पर वो बहुत घबराए और रंजीदा हुए और कहने लगे कि क्या तुम्हारी किताब में इसी का हुक्म है. मुसलमान इस मुद्दे पर अलग अलग राय के हो गए. कुछ ने कहा, पेड न काटो कि ये ग़नीनत यानी दुश्मन का छोड़ा हुआ माल हैं जो अल्लाह तआला ने हमें अता किये हैं. कुछ ने कहा, काट डाले जाएं कि इससे काफ़िरों को रूसवा करना और उन्हें ग़ुस्सा दिलाना मक़सूद है. इस पर आयत उतरी. और इसमें बताया गया कि मुसलमानों में जो पेड़ काटने वाले हैं उनका कहना भी ठीक है और जो न काटने की कहते हैं उनका ख़याल भी सही है, क्योंकि दरख़्तों का काटना और उनका छोड़ देना ये दोनो अल्लाह तआला के इज़्न और इजाज़त से है.

और इसलिये कि फ़ासिकों को रूसवा करे(15) {5}
(15) यानी यहूदियों को ज़लील करे पेड़ काटने की इजाज़त देकर.

और जो ग़नीमत दिलाई अल्लाह ने अपने रसूल को उनसे(16)
(16) यानी बनी नुज़ैर के यहूदियों से.

तो तुमने उनपर अपने घोड़े दौड़ाए थे और न ऊंट(17)
(17) यानी उसके लिये तुम्हें कोई कोफ्त़ या मशक़्क़त नहीं उठानी पड़ी. सिर्फ़ दो मील का फ़ासला था. सब लोग पैदल चले गए सिर्फ़ रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम सवार हुए.

हाँ अल्लाह अपने रसूलों के क़ाबू में दे देता है जिसे चाहे(18)
(18) अपने दुश्मनों में से, मुराद यह है कि बनी नुज़ैर से जो ग़नीमतें हासिल हुई उनके लिये मुसलमानों को जंग करना नहीं पड़े. अल्लाह तआला ने अपने रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को उन पर मुसल्लत कर दिया. ये माल हुज़ूर की मर्ज़ी पर है, जहां चाहें ख़र्च करें. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने यह माल मुहाजिरों पर तक़सीम फ़रमा दिया. और अन्सार में से सिर्फ़ तीन हाजतमन्द लोगों को दिया वो अबू दुजाना समाक बिन खरशाहकी और सहल बिन हनीफ़ और हारिस बिन सुम्मा हैं.

और अल्लाह सब कुछ कर सकता है {6} जो ग़नीमत दिलाई अल्लाह ने अपने रसूल को शहर वालों से (19)
(19) पहली आयत में ग़नीमत का जो ज़िक्र हुआ इस आयत में उसीकी व्याख्या है और कुछ मुफ़स्सिरों ने इस क़ौल का विरोध किया और फ़रमाया कि पहली आयत बनी नुज़ैर के अमवाल के बारे में उतरी. उनको अल्लाह तआला ने अपने रसूल के लिये ख़ास किया और यह आयत हर उस शहर की ग़नीमतों के बारे में है जिसको मुसलमान अपनी क़ुव्वत से हासिल करें. (मदारिक)

वह अल्लाह और रसूल की है और रिश्तेदारों (20)
(20) रिश्तेदारों से मुराद सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के एहले क़राबत हैं यानी बनी हाशिम और बनी मुत्तलिब.

और यतीमों और मिस्कीनों (दरिद्रों) और मुसाफ़िरों के लिये कि तुम्हारे मालदारों का माल न हो जाए(21)
(21) और ग़रीब और फ़क़ीर नुक़सान में रहें जैसा कि इस्लाम से पहले के ज़माने में तरीक़ा था कि ग़नीमत में से एक चौथाई तो सरदार ले लेता था, बाक़ी क़ौम के लिये छोड़ देता था. इसमें से मालदार लोग बहुत ज़ियादा ले लेते थे और ग़रीबों के लिये बहुत थोड़ा बचता था. इसी तरीक़े के अनुसार लोगों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे से अर्ज़ किया कि हुज़ूर का इख़्तियार नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को दिया और उसका तरीक़ा इरशाद फ़रमाया.

और जो कुछ तुम्हें रसूल अता फ़रमाएं वह लो(22)
(22) ग़नीमत में से क्योंकि वो तुम्हारे लिये हलाल है. या ये मानी हैं कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम जो तुम्हें हुक्म दें उसका पालन करो क्योंकि रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की इताअत हर काम में वाजिब है.

और जिससे मना फ़रमाएं बाज़ रहो, और अल्लाह से डरो(23)
(23) नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मुख़ालिफ़त न करो और उनके इरशाद पर तअमील में सुस्ती न करो.

बेशक अल्लाह का अज़ाब सख़्त है(24){7}
(24) उन पर जो रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नाफ़रमानी करे और ग़नीमत के माल में, जैसा कि ऊपर ज़िक्र किये हुए लोगों का हश्र है, ऐसा ही.

उन फ़क़ीर हिजरत करने वालों के लिये जो अपने घरों और मालों से निकाले गए(25)
(25) और उनके घरों और मालों पर मक्का के काफ़िरों ने क़ब्ज़ा कर लिया. इस आयत से साबित हुए है कि काफ़िर इस्तीला, (ग़ालिब होने) से मुसलमानों के अमवाल के मालिक हो जाते हैं.

अल्लाह का फ़ज़्ल (26)
(26) यानी आख़िरत का सवाब.

और उसकी रज़ा चाहते और अल्लाह व रसूल की मदद करते(27)
(27) अपने जानो माल से दीन की हिमायत में.

वही सच्चे हैं(28){8}
(28) ईमान और इख़लास में. क़तादह ने फ़रमाया कि उन मुहाजिरों ने घर और माल और कुंबे अल्लाह तआला और रसूल की महब्बत में छोड़े और इस्लाम को क़बूल किया और उन सारी सख़्तियों को गवारा किया जो इस्लाम क़बूल करने की वजह से उन्हें पेश आई. उनकी हालतें यहां पहुंचीं कि भूक की शिद्दत से पेट पर पत्थर बांधते थे और जाड़ों में कपड़ा न होने के कारण गढ़ों और ग़ारों में गुज़ारा करते थे. हदीस शरीफ़ में आया है कि फ़क़ीर मुहाजिरीन मालदारों से चालीस साल पहले जन्नत में जाएंगे.

और जिन्होंने पहले से(29)
(29) यानी मुहाजिरों से पहले या उनकी हिजरत से पहले बल्कि नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तशरीफ़ आवरी से पहले.

इस शहर(30)
(30) मदीनए पाक.

और ईमान में घर बना लिया(31)
(31) यानी मदीनए पाक को वतन और ईमान को अपनी मंज़िल बनाया और इस्लाम लाए और हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तशरीफ़ आवरी से दो साल पहले मस्जिदें बनाई उनका यह हाल है कि.

दोस्त रखते हैं उन्हें जो उनकी तरफ़ हिजरत करके गए(32)
(32) चुनांन्चे अपने घरों में उन्हें उतारते हैं अपने मालों में उन्हें आधे का शरीक करते हैं.

और अपने दिलों में कोई हाजत नहीं पाते(33)
(33) यानी उनके दिलों में कोई ख्वाहिश और तलब नहीं पैदा होती.

उस चीज़ की जो दिये गये(34)
(34) यानी मुहाजिरीन को जो ग़नीमत के माल दिये गए. अन्सार के दिल में उनकी कोई ख्वाहिश पैदा नहीं होती, रश्क तो क्या होता. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की बरकत ने दिल ऐसे पाक कर दिये कि अन्सार मुहाजिरों के साथ ये सुलूक करते हैं.

और अपनी जानों पर उनको तरजीह देते हैं(35)
(35) यानी मुहाजिरों को.

अगरचे उन्हें शदीद(सख्त़) मुहताजी हो (36)
(36) हदीस शरीफ़ में है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में एक भूखा आदमी आया. हुज़ूर ने अपनी पाक मुक़द्दस बीबियों के हुजरों पर मालूम कराया कि क्या खाने की कोई चीज़ है. मालूम हुआ कि किसी बीबी साहिबा के यहां कुछ भी नहीं है तो हुज़ूर ने सहाबा से फ़रमाया जो इस आदमी को मेहमान बनाए, अल्लाह तआला उस पर रहमत फ़रमाए. हज़रत अबू तलहा अन्सारी खड़े हो गए और हुज़ूर से इजाज़त लेकर मेहमान को अपने घर ले गए. घर जाकर बीबी से पूछा, कुछ है ? उन्होंने कहा, कुछ भी नहीं. सिर्फ़ बच्चों के लिये थोड़ा सा खाना रखा है. हज़रत अबूतलहा ने फ़रमाया बच्चों को बहलाकर सुला दो और जब मेहमान खाने बैठे तो चिराग़ दुरूस्त करने उठो और चिराग़ को बुझा दो ताकि वह अच्छी तरह खाले. यह इसलिये कहा कि मेहमान यह न जान सके कि घर वाले उसके साथ नहीं खा रहे हैं. क्योकि उसको यह मालूम होगा तो वह इसरार करेगा और खाना कम है, भूखा रह जाएगा. इस तरह मेहमान को ख़िलाया और आप उन लोगों ने भूखे पेट रात गुज़ारी. जब सुबह हुई और सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो हुज़ूर अक़दस ने फ़रमाया, रात फ़लां फ़लां लोगों में अजीब मामला पेश आया. अल्लाह तआला उनसे बहुत राज़ी है और यह आयत उतरी.

और जो अपने नफ़्स के लालच से बचाया गया(37)
(37) यानी जिसके नफ़्स को लालच से पाक किया गया.

तो वही कामयाब हैं {9} और वो जो उनके बाद आए(38)
(38) यानी मुहाजिरों और अन्सार के, इसमें क़यामत तक पैदा होने वाले मुसलमान दाख़िल हैं.

अर्ज़ करते हैं ऐ हमारे रब! हमें बख़्श दे और हमारे भाइयों को जो हम से पहले ईमान लाए और हमारे दिल में ईमान वालों की तरफ़ से कीना न रख(39)
(39) यानी रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के सहाबा की तरफ़ से. जिसके दिल में किसी सहाबी की तरफ़ से बुग्ज़ और कदूरत हो और वह उनके लिये रहमत और मग़फ़िरत की दुआ न करे वह मूमिन की किस्म से बाहर है क्योंकि यहां मूमिनों की तीन किस्में फ़रमाई गई, मुहाजिर, अन्सार और उनके बाद वाले जो उनके ताबेअ हों और उनकी तरफ़ से दिल में कोई कदूरत न रखें और उनके लिए मग़फ़िरत की दुआ करें तो जो सहाबा से कदूरत रखे, राफ़िज़ी हो या ख़ारिजी, वह मुसलमानों की इन तीनों क़िस्मों से बाहर है. हज़रत उम्मुल मूमिनीन आयशा सिद्दीक़ा रदियल्लाहो अन्हा ने फ़रमाया कि लोगों को हुक्म तो यह दिया गया कि सहाबा के लिये इस्तिग़फ़ार करें और करते हैं यह, कि गालियां देते हैं.
ऐ रब हमारे! बेशक तू ही बहुत मेहरबान रहम वाला है {10}

59-Surah Al-Hashra

59 सूरए हश्र -तीसरा रूकू

59|18|يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُوا اتَّقُوا اللَّهَ وَلْتَنظُرْ نَفْسٌ مَّا قَدَّمَتْ لِغَدٍ ۖ وَاتَّقُوا اللَّهَ ۚ إِنَّ اللَّهَ خَبِيرٌ بِمَا تَعْمَلُونَ
59|19|وَلَا تَكُونُوا كَالَّذِينَ نَسُوا اللَّهَ فَأَنسَاهُمْ أَنفُسَهُمْ ۚ أُولَٰئِكَ هُمُ الْفَاسِقُونَ
59|20|لَا يَسْتَوِي أَصْحَابُ النَّارِ وَأَصْحَابُ الْجَنَّةِ ۚ أَصْحَابُ الْجَنَّةِ هُمُ الْفَائِزُونَ
59|21|لَوْ أَنزَلْنَا هَٰذَا الْقُرْآنَ عَلَىٰ جَبَلٍ لَّرَأَيْتَهُ خَاشِعًا مُّتَصَدِّعًا مِّنْ خَشْيَةِ اللَّهِ ۚ وَتِلْكَ الْأَمْثَالُ نَضْرِبُهَا لِلنَّاسِ لَعَلَّهُمْ يَتَفَكَّرُونَ
59|22|هُوَ اللَّهُ الَّذِي لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ ۖ عَالِمُ الْغَيْبِ وَالشَّهَادَةِ ۖ هُوَ الرَّحْمَٰنُ الرَّحِيمُ
59|23|هُوَ اللَّهُ الَّذِي لَا إِلَٰهَ إِلَّا هُوَ الْمَلِكُ الْقُدُّوسُ السَّلَامُ الْمُؤْمِنُ الْمُهَيْمِنُ الْعَزِيزُ الْجَبَّارُ الْمُتَكَبِّرُ ۚ سُبْحَانَ اللَّهِ عَمَّا يُشْرِكُونَ
59|24|هُوَ اللَّهُ الْخَالِقُ الْبَارِئُ الْمُصَوِّرُ ۖ لَهُ الْأَسْمَاءُ الْحُسْنَىٰ ۚ يُسَبِّحُ لَهُ مَا فِي السَّمَاوَاتِ وَالْأَرْضِ ۖ وَهُوَ الْعَزِيزُ الْحَكِيمُ

ऐ ईमान वालों अल्लाह से डरो(1)
(1) और उसके हुक्म का विरोध न करो.

और हर जान देखे कि कल के लिये क्या आगे भेजा(2)
(2) यानी क़यामत के दिन के लिये क्या कर्म किये.

और अल्लाह से डरो(3)
(3) उसकी ताअत और फ़रमाँबरदारी में सरगर्म रहो.

बेशक अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है {18} और उन जैसे न हो जो अल्लाह को भूल बैठे(4)
(4) उसकी ताअत छोड़ दी.

तो अल्लाह ने उन्हें बला में डाला कि अपनी जानें याद न रहीं (5)
(5) कि उनके लिये फ़ायदा देने वाले और काम आने वाले अमल कर लेते.

वही फ़ासिक़ हैं {19} दोज़ख़ वाले (6)
(6) जिनके लिये हमेशा का अज़ाब है.

और जन्नत वाले(7)
(7) जिनके लिये हमेशा का ऐश और हमेशा की राहत है.

बराबर नहीं, जन्नत वाले ही मुराद को पहुंचे {20} अगर हम यह क़ुरआन किसी पहाड़ पर उतारते(8)
(8) और उसको इन्सान की सी तमीज़ अता करते.

तो ज़रूर तू उसे देखता झुका हुआ पाश पाश होता, अल्लाह के डर से(9)
(9) यानी क़ुरआन की अज़मत व शान ऐसी है कि पहाड़ को अगर समझ होती तो वह बावुजूद इतना सख़्त और मज़बूत होने के टुकड़े
टुकड़े हो जाता इससे मालूम होता है कि काफ़िरों के दिल कितने सख़्त है कि ऐसे अज़मत वाले कलाम से प्रभावित नहीं होते.

और ये मिसाले लोगों के लिये हम बयान फ़रमाते हैं कि वो सोचें {21} वही अल्लाह है जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, हर छुपे ज़ाहिर का
जानने वाला(10)
(10) मौजूद का भी और मअदूम का भी दुनिया और आख़िरत का भी.

वही है बड़ा मेहरबान रहमत वाला {22} वही है अल्लाह जिसके सिवा कोई माबूद नहीं, बादशाह(11)
(11) मुल्क और हुकूमत का हक़ीक़ी मालिक कि तमाम मौजूदात उसके तहत मुल्को हुकूमत है और उसकी मालिकिय्यत और सल्तनत
दायमी है जिसे ज़वाल नहीं.

निहायत (परम) पाक (12)
(12) हर ऐब से और तमाम बुराइयों से.

सलामती देने वाला(13)
(13) अपनी मख़लूक़ को.

अमान बख़्शने वाला (14)
(14) अपने अज़ाब से अपने फ़रमाँबरदार बन्दों को.

हिफ़ाज़त फ़रमाने वाला इज़्ज़त वाला अज़मत वाला तकब्बुर (बड़ाई) वाला (15)
(15) यानी अज़मत और बड़ाई वाला अपनी ज़ात और तमाम सिफ़ात में और अपनी बड़ाई का इज़हार उसी के शायाँ और लायक़ है उसका
हर कमाल अज़ीम है और हर सिफ़त आली. मख़लूक़ में किसी को नहीं पहुंचता कि घमण्ड यानी अपनी बड़ाई का इज़हार करे. बन्दे के
लिये विनम्रता सबसे बेहतर है.

अल्लाह को पाकी है उनके शिर्क से {23} वही है अल्लाह बनाने वाला पैदा करने वाला(16)
(16)नेस्त से हस्त करने वाला.

हर एक को सूरत देने वाला (17)
(17) जैसी चाहे.

उसी के हैं सब अच्छे नाम (18)
(18) निनानवे जो हदीस में आए हैं.

उसकी पाकी बोलता है जो कुछ आसमानों और ज़मीन में है, और वही इज़्ज़त व हिकमत (बोध) वाला है {24}

58-Surah Al-Mujadalah

58 सूरए मुजादलह -तीसरा रूकू

58|14|۞ أَلَمْ تَرَ إِلَى الَّذِينَ تَوَلَّوْا قَوْمًا غَضِبَ اللَّهُ عَلَيْهِم مَّا هُم مِّنكُمْ وَلَا مِنْهُمْ وَيَحْلِفُونَ عَلَى الْكَذِبِ وَهُمْ يَعْلَمُونَ
58|15|أَعَدَّ اللَّهُ لَهُمْ عَذَابًا شَدِيدًا ۖ إِنَّهُمْ سَاءَ مَا كَانُوا يَعْمَلُونَ
58|16|اتَّخَذُوا أَيْمَانَهُمْ جُنَّةً فَصَدُّوا عَن سَبِيلِ اللَّهِ فَلَهُمْ عَذَابٌ مُّهِينٌ
58|17|لَّن تُغْنِيَ عَنْهُمْ أَمْوَالُهُمْ وَلَا أَوْلَادُهُم مِّنَ اللَّهِ شَيْئًا ۚ أُولَٰئِكَ أَصْحَابُ النَّارِ ۖ هُمْ فِيهَا خَالِدُونَ
58|18|يَوْمَ يَبْعَثُهُمُ اللَّهُ جَمِيعًا فَيَحْلِفُونَ لَهُ كَمَا يَحْلِفُونَ لَكُمْ ۖ وَيَحْسَبُونَ أَنَّهُمْ عَلَىٰ شَيْءٍ ۚ أَلَا إِنَّهُمْ هُمُ الْكَاذِبُونَ
58|19|اسْتَحْوَذَ عَلَيْهِمُ الشَّيْطَانُ فَأَنسَاهُمْ ذِكْرَ اللَّهِ ۚ أُولَٰئِكَ حِزْبُ الشَّيْطَانِ ۚ أَلَا إِنَّ حِزْبَ الشَّيْطَانِ هُمُ الْخَاسِرُونَ
58|20|إِنَّ الَّذِينَ يُحَادُّونَ اللَّهَ وَرَسُولَهُ أُولَٰئِكَ فِي الْأَذَلِّينَ
58|21|كَتَبَ اللَّهُ لَأَغْلِبَنَّ أَنَا وَرُسُلِي ۚ إِنَّ اللَّهَ قَوِيٌّ عَزِيزٌ
58|22|لَّا تَجِدُ قَوْمًا يُؤْمِنُونَ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ يُوَادُّونَ مَنْ حَادَّ اللَّهَ وَرَسُولَهُ وَلَوْ كَانُوا آبَاءَهُمْ أَوْ أَبْنَاءَهُمْ أَوْ إِخْوَانَهُمْ أَوْ عَشِيرَتَهُمْ ۚ أُولَٰئِكَ كَتَبَ فِي قُلُوبِهِمُ الْإِيمَانَ وَأَيَّدَهُم بِرُوحٍ مِّنْهُ ۖ وَيُدْخِلُهُمْ جَنَّاتٍ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ رَضِيَ اللَّهُ عَنْهُمْ وَرَضُوا عَنْهُ ۚ أُولَٰئِكَ حِزْبُ اللَّهِ ۚ أَلَا إِنَّ حِزْبَ اللَّهِ هُمُ الْمُفْلِحُونَ

क्या तुमने उन्हें न देखा जो ऐसों के दोस्त हुए जिन पर अल्लाह का ग़ज़ब है(1)
(1) जिन लोगों पर अल्लाह तआला का ग़ज़ब है उनसे मुराद यहूदी है और उनसे दोस्ती करने वाले मुनाफ़िक़. यह आयत मुनाफ़िक़ों के बारे में उतरी जिन्होंने यहूदियों से दोस्ती की और उनकी ख़ैर ख़्वाही में लगे रहते और मुसलमानों के राज़ उनसे कहते.

वो न तुम से न उनसे(2)
(2) यानी न मुसलमान न यहूदी बल्कि मुनाफ़िक़ हैं बीच में लटके हुए.

वो जानकर झूटी क़सम खाते हैं(3){14}
(3) यह आयत अब्दुल्लाह बिन नबतल मुनाफ़िक़ के बारे में उतरी जो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मजलिस में हाज़िर रहता यहाँ की बात यहूदियों के पास पहुंचाता. एक दिन हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम दौलत सराय अक़दस में तशरीफ़ फ़रमा थे. हुज़ूर ने फ़रमाया इस वक़्त एक आदमी आएगा जिसका दिल निहायत सख़्त और शैतान की आँखों से देखता है. थोड़ी ही देर बाद अब्दुल्लाह बिन नबतल आया उसकी आख़ें नीली थीं. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उससे फ़रमाया तू और तेरे साथी हमें क्यों गालियाँ देते हैं. वह क़सम खा गया कि ऐसा नहीं करता. और अपने यारों को ले आया उन्होंने भी क़सम खाई कि हमने आपको गाली नहीं दी. इस पर यह आयत उतरी.

अल्लाह ने उनके लिये सख़्त अज़ाब तैयार कर रखा है, बेशक वो बहुत ही बुरे काम करते हैं{15} उन्होंने अपनी क़समों को(4)
(4) जो झूटी है.

ढाल बना लिया है (5)
(5) कि अपना जान माल मेहफ़ूज़ रहे.

तो अल्लाह की राह से रोका(6)
(6) यानी मुनाफ़िक़ों ने अपनी इस हीला साज़ी से लोगों को जिहाद से रोका और कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा कि मानी यह हैं कि लोगों को इस्लाम में दाख़िल होने से रोका.

तो उनके लिये ख़्वारी का अज़ाब है(7){16}
(7) आख़िरत में.

उनके माल और उनकी औलाद अल्लाह के सामने उन्हें कुछ काम न देंगे(8)
(8) और क़यामत के दिन उन्हें अल्लाह के अज़ाब से न बचा सकेंगे.

वो दोज़ख़ी हैं, उन्हें उसमें हमेशा रहना {17} जिस दिन अल्लाह उन सब को उठाएगा तो उसके हुज़ूर भी ऐसे ही क़समें खाएंगे जैसे तुम्हारे सामने खा रहे हैं(9)
(9) कि दुनिया में मूमिन मुख़लिस थे.

और वो यह समझते हैं कि उन्होंने कुछ किया(10)
(10) यानी वो अपनी उन झूटी क़स्मों को कारआमद समझते हैं.

सुनते हो बेशक वही झूठे हैं(11) {18}
(11) अपनी क़स्मों में और ऐसे झूटे कि दुनिया में भी झूट बोलते रहे और आख़िरत में भी रसूल के सामने भी और ख़ुदा के सामने भी.

उन पर शैतान ग़ालिब आ गया तो उन्हें अल्लाह की याद भुलादी, वो शैतान के गिरोह हें, सुनता है बेशक शैतान ही का गिरोह हार में है(12) {19}
(12) कि जन्नत की हमेशा की नेअमतों से मेहरूम और जहन्नम के अबदी अज़ाब में गिरफ़्तार.

बेशक वो जो अल्लाह और उसके रसूल की मुख़ालिफ़त करते हैं, वो सबसे ज़्यादा ज़लीलों में हैं{20} अल्लाह लिख चुका (13)
(13) लौहे मेहफ़ूज़ में.

कि ज़रूर मैं ग़ालिब आऊंगा और मेरे रसूल (14)
(14) हुज्जत के साथ या तलवार के साथ.

बेशक अल्लाह क़ुव्वत वाला इज़्ज़त वाला है {21} तुम न पाओगे उन लोगों को जो यक़ीन रखते हैं अल्लाह और पिछले दिन पर कि दोस्ती करें उनसे जिन्हों ने अल्लाह और उसके रसूल से मुख़ालिफ़त की(15)
(15) यानी मूमिनों से यह हो ही नहीं सकता और उनकी यह शान ही नहीं और ईमान इसको गवारा ही नहीं करता कि ख़ुदा और रसूल के दुश्मन से दोस्ती करे. इस आयत से मालूम हुआ कि बददीनों और बदमज़हबों और ख़ुदा और रसूल की शान में गुस्ताख़ी और बेअदबी करने वालों से ताल्लुक़ात और मेलजोल जायज़ नहीं.

अगरचे वो उनके बाप या बेटे या भाई या कुंबे वाले हों(16)
(16) चुनांन्वे हज़रत अबूउबैदह बिन जर्राह ने उहुद की जंग में अपने बाप जर्राह को क़त्ल किया और हज़रत अबूबक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो ने बद्र के दिन अपने बेटे अब्दुर्रहमान को लड़ने के लिये पुकारा लेकिन रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने उन्हें इस जंग की इजाज़त न दी और मुसअब बिन उमैर ने अपने भाई अब्दुल्लाह बिन उमैर को क़त्ल किया और हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो ने अपने मामूँ आस बिन हिशाम बिन मुग़ीरह को बद्र के दिन क़त्ल किया और हज़रत अली बिन अबी तालिब व हमज़ा व अबू उबैदह ने रबीआ के बेटों उतबह और शैबह को और वलीद बिन उतबह को बद्र में क़त्ल किया जो उनके रिश्तेदार थे. ख़ुदा और रसूल पर ईमान लाने वालों को रिश्तेदारी का क्या लिहाज़.

ये हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान नक़्श फ़रमा दिया और अपनी तरफ़ की रूह से उनकी मदद की(17)
(17) इस रूह से या अल्लाह की मदद मुराद है या ईमान या क़ुरआन या जिब्रईल या अल्लाह की रहमत या नूर.

और उन्हें बाग़ों में ले जाएगा जिनके नीचे नेहरें बहें उनमें हमेशा रहें, अल्लाह उनसे राज़ी (18)
(18) उनके ईमान, इख़लास और फ़रमाँबरदारी के कारण.

और वो अल्लाह से राज़ी (19)
(19) उसके रहमत और करम से.
यह अल्लाह की जमाअत है सुनता है अल्लाह ही की जमाअत कामयाब है{22}

57-Surah Al-Hadeed

57 सूरए हदीद -दूसरा रूकू

57|11|مَّن ذَا الَّذِي يُقْرِضُ اللَّهَ قَرْضًا حَسَنًا فَيُضَاعِفَهُ لَهُ وَلَهُ أَجْرٌ كَرِيمٌ
57|12|يَوْمَ تَرَى الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ يَسْعَىٰ نُورُهُم بَيْنَ أَيْدِيهِمْ وَبِأَيْمَانِهِم بُشْرَاكُمُ الْيَوْمَ جَنَّاتٌ تَجْرِي مِن تَحْتِهَا الْأَنْهَارُ خَالِدِينَ فِيهَا ۚ ذَٰلِكَ هُوَ الْفَوْزُ الْعَظِيمُ
57|13|يَوْمَ يَقُولُ الْمُنَافِقُونَ وَالْمُنَافِقَاتُ لِلَّذِينَ آمَنُوا انظُرُونَا نَقْتَبِسْ مِن نُّورِكُمْ قِيلَ ارْجِعُوا وَرَاءَكُمْ فَالْتَمِسُوا نُورًا فَضُرِبَ بَيْنَهُم بِسُورٍ لَّهُ بَابٌ بَاطِنُهُ فِيهِ الرَّحْمَةُ وَظَاهِرُهُ مِن قِبَلِهِ الْعَذَابُ
57|14|يُنَادُونَهُمْ أَلَمْ نَكُن مَّعَكُمْ ۖ قَالُوا بَلَىٰ وَلَٰكِنَّكُمْ فَتَنتُمْ أَنفُسَكُمْ وَتَرَبَّصْتُمْ وَارْتَبْتُمْ وَغَرَّتْكُمُ الْأَمَانِيُّ حَتَّىٰ جَاءَ أَمْرُ اللَّهِ وَغَرَّكُم بِاللَّهِ الْغَرُورُ
57|15|فَالْيَوْمَ لَا يُؤْخَذُ مِنكُمْ فِدْيَةٌ وَلَا مِنَ الَّذِينَ كَفَرُوا ۚ مَأْوَاكُمُ النَّارُ ۖ هِيَ مَوْلَاكُمْ ۖ وَبِئْسَ الْمَصِيرُ
57|16|۞ أَلَمْ يَأْنِ لِلَّذِينَ آمَنُوا أَن تَخْشَعَ قُلُوبُهُمْ لِذِكْرِ اللَّهِ وَمَا نَزَلَ مِنَ الْحَقِّ وَلَا يَكُونُوا كَالَّذِينَ أُوتُوا الْكِتَابَ مِن قَبْلُ فَطَالَ عَلَيْهِمُ الْأَمَدُ فَقَسَتْ قُلُوبُهُمْ ۖ وَكَثِيرٌ مِّنْهُمْ فَاسِقُونَ
57|17|اعْلَمُوا أَنَّ اللَّهَ يُحْيِي الْأَرْضَ بَعْدَ مَوْتِهَا ۚ قَدْ بَيَّنَّا لَكُمُ الْآيَاتِ لَعَلَّكُمْ تَعْقِلُونَ
57|18|إِنَّ الْمُصَّدِّقِينَ وَالْمُصَّدِّقَاتِ وَأَقْرَضُوا اللَّهَ قَرْضًا حَسَنًا يُضَاعَفُ لَهُمْ وَلَهُمْ أَجْرٌ كَرِيمٌ
57|19|وَالَّذِينَ آمَنُوا بِاللَّهِ وَرُسُلِهِ أُولَٰئِكَ هُمُ الصِّدِّيقُونَ ۖ وَالشُّهَدَاءُ عِندَ رَبِّهِمْ لَهُمْ أَجْرُهُمْ وَنُورُهُمْ ۖ وَالَّذِينَ كَفَرُوا وَكَذَّبُوا بِآيَاتِنَا أُولَٰئِكَ أَصْحَابُ الْجَحِيمِ

कौन है जो अल्लाह को क़र्ज़ दे अच्छा क़र्ज़(1)
(1) यानी ख़ुशदिली के साथ ख़ुदा की राह में ख़र्च करे. इस ख़र्च को इस मुनासिबत से फ़र्ज़ फ़रमाया गया है कि इसपर जन्नत का वादा फ़रमाया गया है.

तो वह उस के लिये दूने करे और उसको इज़्ज़त का सवाब है{11} जिस दिन तुम ईमान वाले मर्दों और ईमान वाली औरतों को(2)
(2) पुले सिरात पर.

देखोगे कि उनका नूर है 3)
(3) यानी उनके ईमान और ताअत का नूर.

उनके आगे और उनके दाएं दौड़ता है (4)
(4) और जन्नत की तरफ़ उनका मार्गदर्शन करता है.

उनसे फ़रमाया जा रहा है कि आज तुम्हारी सब से ज़्यादा ख़ुशी की बात वो जन्नतें हैं जिनके नीचे नेहरें बहें, तुम उनमें हमेशा रहो यही बड़ी कामयाबी है {12} जिस दिन मुनाफ़िक़ (दोग़ले) मर्द और मुनाफ़िक़ औरतें मुसलमानों से कहेंगे कि हमें एक निगाह देखो कि हम तुम्हारे नूर से कुछ हिस्सा लें, कहा जाएगा अपने पीछे लौटो (5)
(5) जहाँ से आए थे यानी हश्र के मैदान की तरफ़ जहाँ हमें नूर दिया गया वहाँ नूर तलब करो या ये मानी हैं कि तुम हमारा नूर नहीं पा सकते, नूर की तलब के लिये पीछे लौट जाओ फिर वो नूर की तलाश में वापस होंगे और कुछ न पाएंगे तो दोबारा मूमिनीन की तरफ़ फिरेंगे.

वहाँ नूर ढूंढो वो लौटेंगे, जभी उनके (6)
(6) यानी मूमिनीन और मुनाफ़िक़ीन के.

बीच दीवार खड़ी कर दी जाएगी(7)
(7) कुछ मुफ़स्सिरों ने कहा कि वही अअराफ़ है.

जिसमें एक दरवाज़ा है(8)
(8) उससे जन्नती जन्नत में दाख़िल होंगे.

उसके अन्दर की तरफ़ रहमत (9)
(9) यानी उस दीवार के अन्दूरूनी जानिब जन्नत.

और उसके बाहर की तरफ़ अज़ाब {13} मुनाफ़िक़ (10)
(10) उस दीवार के पीछे से.

मुसलमानों को पुकारेंगे क्या हम तुम्हारे साथ न थे(11)
(11) दुनिया में नमाज़ें पढ़ते, रोज़ा रखते.

वो कहेंगे क्यों नहीं मगर तुमने तो अपनी जानें फ़ित्ने में डालीं(12)
(12) दोग़लेपन और कुफ़्र को अपना कर.

और मुसलमानों की बुराई तकते और शक रखते (13)
(13)इस्लाम में.

और झूटे लालच ने तुम्हें धोखा दिया(14)
(14) और तुम बातिल उम्मीदों में रहे कि मुसलमानों पर हादसे आएंगे, वो तबाह हो जाएंगे.

यहाँ तक कि अल्लाह का हुक्म आ गया (15)
(15)यानी मौत.

और तुम्हें अल्लाह के हुक्म पर उस बड़े फ़रेबी ने घमण्डी रखा(16){14}
(16) यानी शैतान ने धोखा दिया कि अल्लाह तआला बड़ा हिलम वाला है तुम पर अज़ाब न करेगा और न मरने के बाद उठना न हिसाब. तुम उसके इस फ़रेब में आ गए.

तो आज न तुमसे कोई फ़िदिया लिया जाए(17)
(17) जिसको देकर तुम अपनी जानें अज़ाब से छुड़ा सको. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया मानी ये हैं कि आज न तुम से ईमान क़ुबूल किया जाए, न तौबह.

और न खुले काफ़िरों से, तुम्हारा ठिकाना आग है, वह तुम्हारी रफ़ीक़ है, और क्या ही बुरा अंजाम {15} क्या ईमान वालों को अभी वह वक़्त न आया कि उनके दिल झुक जाएं अल्लाह की याद और उस हक़ के लिये जो उतरा (18)
(18) हज़रत उम्मुल मूमिनीन आयशा सिद्दीक़ा रदियल्लाहो अन्हा से रिवायत है कि नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम दौलतसरा से बाहर तशरीफ़ लाए तो मुसलमानों को देखा कि आपस में हंस रहे हैं फ़रमाया तुम हंसते हो, अभी तक तुम्हारे रब की तरफ़ से अमान नहीं आई और तुम्हारे हंसने पर यह आयत उतरी. उन्होंने अर्ज़ किया या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैका वसल्लम, इस हंसी का कफ़्फ़ारा क्या है? फ़रमाया इतना ही रोना. और उतरने वाले हक़ से मुराद क़ुरआन शरीफ़ है.

और उन जैसे न हों जिन को पहले किताब दी गई (19)
(19)यानी यहूदी और ईसाईयों के तरीक़े इख़्तियार न करें.

फिर उन पर मुद्दत दराज़ हुई(20)
(20) यानी वह ज़माना जो उनके और उन नबियों के बीच था.

तो उनके दिल सख़्त हो गए(21)
(21) और अल्लाह की याद के लिये नर्म न हुए दुनिया की तरफ़ माइल हो गए और नसीहतों उपदेशों से मुंह फेरा.

और उनमें बहुत फ़ासिक़ हैं(22){16}
(22) दीन से निकल जाने वाले.

जान लो कि अल्लाह ज़मीन को ज़िन्दा करता है उसके मरे पीछे,(23)
(23) मेंह बरसाकर सब्ज़ा उगा कर. बाद इसके कि ख़ुश्क हो गई थी. ऐसे ही दिलों को सख़्त हो जाने के बाद नर्म करता है और उन्हें इल्म व हिकमत से ज़िन्दगी अता फ़रमाता है. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि यह मिसाल है ज़िक्र के दिलों में असर करने की जिस तरह बारिश से ज़मीन को ज़िन्दगी हासिल होती है ऐसे ही अल्लाह के ज़िक्र से दिल ज़िन्दा होते हैं.

बेशक हमने तुम्हारे लिये निशानियाँ, बयान फ़रमा दीं कि तुम्हें समझ हो {17} बेशक सदक़ा देने वाले मर्द और सदक़ा देने वाली औरतें और वो जिन्हों ने अल्लाह को अच्छा क़र्ज़ दिया(24)
(24) यानी ख़ुशदिली और नेक नियत के साथ मुस्तहिक़्क़ों को सदक़ा दिया और ख़ुदा की राह में ख़र्च किया.

उनके दूने हैं और उनके लिये इज़्ज़त का सवाब है(25){18}
(25) और वह जन्नत है.

और वो जो अल्लाह और उसके सब रसूलों पर ईमान लाएं वही हैं पूरे सच्चे और औरों पर(26)
(26) गुज़री हुई उम्मतों में से.

गवाह अपने रब के यहाँ, उनके लिये उनका सवाब(27)
(27) जिसका वादा किया गया.

और उनका नूर है(28)और जिन्होंने कुफ़्र किया और हमारी आयतें झुटलाईं दोज़ख़ी हैं {19}
(28) जो हश्र में उनके साथ होगा.